"ससुराल की दीवारें"
“अब और नहीं... इस बार मैं खुद को कमजोर नहीं पड़ने दूंगी,”
नीरा ने आईने में खुद से कहा।
चेहरे पर साड़ी का पल्लू ठीक किया, माथे की बिंदी सँवारी, और मन में ठान लिया —
अब वो ससुराल की दीवारों के बीच खुद को खोएगी नहीं।
नीरा की शादी को बस दो साल हुए थे।
शुरू के कुछ महीने तो बहुत अच्छे निकले। सास-ससुर प्यार करते थे, पति अरुण बहुत ख्याल रखता था।
पर जैसे ही उसकी ननद कविता मायके आई, सब कुछ धीरे-धीरे बदलने लगा।
कविता की शादी पास के शहर में हुई थी।
वो हर महीने दो-तीन बार मायके आ जाती और घर की छोटी-छोटी बातों में टोकना शुरू कर देती—
“मां, नीरा ने दाल में नमक ज़्यादा डाला है।”
“अरे, इतनी देर से उठती है भाभी? मेरी सास तो मुझे सूरज निकलने से पहले जगा देती हैं!”
“भाई, तुम्हारी बीवी तो बहुत चालाक है, धीरे-धीरे पूरा घर अपने क़ब्जे में ले रही है।”
नीरा सब सुनती, चुप रहती।
वो सोचती थी कि कविता को बस थोड़ा समय चाहिए, फिर सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन हर दिन उसका ताना, उसकी मुस्कान को थोड़ा-थोड़ा तोड़ता गया।
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एक दिन सुबह की बात है।
नीरा नाश्ता बना रही थी। अरुण ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था।
इतने में कविता बोली—
“भाई, तुम ऑफिस जाते हो तो नीरा भाभी दिन भर क्या करती हैं?
टीवी देखती हैं या सहेलियों के साथ गप्पें मारती हैं?”
अरुण ने हंसकर टालना चाहा—
“अरे नहीं, नीरा तो सारा घर संभालती है।”
“ओह, तो तुम उसकी तरफदारी करने लगे हो?
मां, देख लो, अब बेटे का भी दिमाग बदल दिया भाभी ने।”
कविता ने मुस्कराते हुए कहा, लेकिन वो मुस्कान ज़हर भरी थी।
नीरा के हाथ से चाय का कप गिर गया।
उस दिन उसके भीतर कुछ टूट गया।
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रात को अरुण ने नीरा को चुप देखा तो पूछा—
“क्या हुआ नीरा, तुम आज कुछ ज़्यादा ही खामोश हो?”
“कुछ नहीं अरुण, बस अब समझ आ गया है कि
इस घर में मैं चाहे जितना कर लूं,
कभी किसी के लिए सही नहीं हो सकती।”
अरुण ने उसका हाथ थाम लिया—
“तुम गलत सोच रही हो, मैं तुम्हारे साथ हूं।”
नीरा मुस्कराई, लेकिन वो मुस्कान मजबूर थी।
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दिन गुजरते गए।
घर में पूजा रखी गई थी। सारे रिश्तेदार बुलाए गए थे।
नीरा सुबह से भाग-दौड़ में लगी थी।
सजावट, मिठाई, फूल — हर चीज़ उसने खुद संभाली।
कविता आई तो बोली—
“अरे भाभी, ये फूल ऐसे क्यों लगाए हैं?
किसी को कोई सेन्स ही नहीं है इस घर में।”
नीरा ने संयम रखा—
“कोई बात नहीं दीदी, आप चाहो तो बदल दीजिए।”
कविता ने आंखें तरेरी—
“मुझे क्यों बदलना, तुमने जो बिगाड़ा है, वही ठीक करो।”
इतने में रिश्तेदार आने लगे।
कविता ने सबके सामने हंसकर कहा—
“भाई, तुम्हारी बीवी तो बहुत आधुनिक है,
पूजा में भी मोबाइल रखकर फोटो खींच रही थी।”
सब हंसने लगे।
नीरा की आंखें नम हो गईं।
उसने बस इतना कहा—“दीदी, मुझे अब कोई फर्क नहीं पड़ता।”
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रात को नीरा अकेले छत पर चली गई।
चांदनी में उसका चेहरा उदास था।
उसने मन ही मन कहा—
“अब बहुत हो गया।
अब मैं किसी को अपने आत्मसम्मान से खेलने नहीं दूंगी।
कविता दीदी मुझे तोड़ना चाहती हैं,
पर अब मैं खुद को और मजबूत बनाऊंगी।”
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समय बीत गया।
कुछ महीनों बाद अरुण की कंपनी ने नीरा को भी साथ में एक काम दिया —
सोसायटी में महिलाओं के लिए प्रशिक्षण क्लास शुरू करने का।
नीरा ने वो काम पूरे दिल से किया।
घर की औरतें उससे सीखने लगीं — सिलाई, ब्यूटी पार्लर, बेसिक कंप्यूटर।
धीरे-धीरे नीरा का नाम पूरे इलाके में फैल गया।
लोग उसकी तारीफ करने लगे।
सास भी गर्व महसूस करने लगीं।
लेकिन कविता को ये सब फिर भी नहीं भाया।
वो बोली—
“भाभी, काम अच्छा है, पर घर छोड़कर बाहर जाना मुझे पसंद नहीं।”
नीरा ने मुस्कराते हुए कहा—
“दीदी, घर संभालना और खुद को पहचान देना —
दोनों ज़रूरी हैं। मैं दोनों करूंगी।”
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एक दिन कविता की सास बीमार पड़ीं।
कविता ने नीरा से मदद मांगी—
“भाभी, मैं परेशान हूं, कुछ समझ नहीं आ रहा,
अस्पताल में भी कोई नहीं है मेरे साथ।”
नीरा बिना एक पल गवाए पहुंच गई।
डॉक्टर से बात की, दवाइयां लीं, सारा इंतज़ाम किया।
कविता बस देखती रही —
जिस भाभी को वो हर वक्त नीचा दिखाती थी,
वो आज उसके लिए फरिश्ता बन गई थी।
रात में जब सब शांत हो गया,
कविता ने नीरा का हाथ पकड़कर कहा—
“भाभी, मुझे माफ़ कर दो।
मैंने आपको बहुत ताने दिए, बहुत गलत बोला।”
नीरा ने मुस्कराते हुए कहा—
“कोई बात नहीं दीदी,
रिश्ते कभी नफ़रत से नहीं, माफी से बनते हैं।”
कविता फूट-फूटकर रो पड़ी।
उसने भाभी के गले लगकर कहा—
“आप सच में मेरे लिए भगवान की तरह हो।”
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उस दिन के बाद
ससुराल की दीवारें जो नीरा को कभी पराई लगती थीं,
अब अपनेपन से भर गईं।
कविता हर बात में नीरा की मदद करने लगी,
और सास भी कहतीं—
“मेरी दोनों बेटियाँ साथ हैं तो घर में हमेशा खुशियाँ रहेंगी।”
नीरा मुस्करा देती।
क्योंकि अब वो जान चुकी थी —
रिश्ते खून के नहीं, दिल के होते हैं।
और अगर दिल में प्यार हो,
तो सबसे ऊँची दीवार भी गिर जाती है।

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