❝ मायके का तोहफ़ा ❞

 


सुबह की चाय की चुस्कियाँ लेते हुए नीरा जी ने अपनी बहू रचना को आवाज़ दी —

“रचना बेटा, वो तुम्हारी मम्मी ने जो दुपट्टा भेजा है ना, वो निकाल देना। कामवाली को देना है।”


रचना रसोई से बाहर आई, हाथ पोंछते हुए बोली,

“लेकिन मम्मी जी, वो तो नया दुपट्टा है। मम्मी ने खास आपके लिए भेजा था, बहुत मन से चुना था।”


“अरे बेटा, तुम्हारी मम्मी को बोलो, अब इतना खर्चा न करें। मुझे ऐसे चमकीले कपड़े पसंद नहीं। और फिर घर में कामवाली भी तो है, उसे दे दो, उसे ज़रूरत है।”


रचना ने कुछ नहीं कहा।

वो जानती थी, नीरा जी को मायके से आई चीज़ें कभी नहीं भातीं।

उसने चुपचाप दुपट्टा समेटकर अपने अलमारी में रख दिया।


रचना का मन भारी हो गया।

माँ हर बार मन से भेजती हैं और सासू माँ हर बार वही बात दोहरा देती हैं —

“मायके से आई चीज़ों का कोई मोल नहीं।”


उस दिन शाम को राजेश, यानी रचना के पति, ऑफिस से लौटे तो रचना ने बात छेड़ दी —

“राजेश जी, इस बार करवाचौथ पर मम्मी जी के लिए मैं खुद एक सुंदर साड़ी लाना चाहती हूँ।”


राजेश मुस्कराए,

“बहुत अच्छा विचार है। चलो, इस रविवार को बाजार चलते हैं।”


रविवार को दोनों साथ गए।

रचना ने एक बहुत ही हल्की क्रीम कलर की साड़ी चुनी, और उसी जैसी एक अपने लिए भी ले ली।

राजेश ने कहा, “दोनों एक जैसी साड़ियां, मम्मी को बहुत पसंद आएगा।”


घर लौटते ही रचना ने साड़ी नीरा जी के कमरे में दी।

“मम्मी जी, ये साड़ी आपके लिए। मैंने और राजेश जी ने मिलकर चुनी है।”


नीरा जी ने साड़ी खोली,

थोड़ी देर देखती रहीं, फिर बोलीं,

“अरे रचना, ये रंग मेरे ऊपर नहीं जंचेगा। तुम ही रख लो।”


रचना ने मुस्कराने की कोशिश की,

“मम्मी जी, ये तो राजेश जी ने कहा था कि ये रंग आप पर बहुत अच्छा लगेगा।”


“अच्छा? वो तो बस तुम्हें खुश करने को कह देता होगा बेटा।”

नीरा जी ने साड़ी मोड़ी और अपने बक्से में रख दी।



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करवाचौथ का दिन आया।

सुबह से घर में चहल-पहल थी।

रचना तैयार होकर आई तो उसने देखा, सासू माँ ने वही पुरानी गुलाबी साड़ी पहन रखी थी।


“मम्मी जी, आपने नई साड़ी नहीं पहनी?”

“अरे नहीं बेटा, वो तो बहुत हल्की थी। मुझे ये ही पसंद है।”


रचना ने कुछ नहीं कहा।

बस मन ही मन सोचा — “शायद मम्मी जी को मायके की चीज़ों से नफरत है, इसलिए…”


शाम को जब पूजा खत्म हुई,

राजेश ने माँ को देखा और बोला —

“माँ, आपने वो नई साड़ी क्यों नहीं पहनी? रचना ने कितने प्यार से दिलाई थी।”


नीरा जी बोलीं,

“अरे बेटा, वो साड़ी रचना की पसंद की थी। मुझे ऐसी साड़ियां पसंद नहीं। और वैसे भी वो तो उसके मायके वालों की सोच जैसी लग रही थी।”


राजेश चुप हो गया, लेकिन उसके मन में बात खटक गई।



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रात को जब सब सो गए,

राजेश को अपने माता-पिता के कमरे से बातों की आवाज़ सुनाई दी।

नीरा जी अपने पति से कह रही थीं —


“पता नहीं बहुएं क्यों इतनी दिखावा करती हैं।

अपने लिए तो भारी साड़ी ले आई, मेरे लिए हल्की उठा लाई।”


“लेकिन नीरा, वो साड़ी तो राजेश ने खुद पसंद की थी।”

“अरे रहने दो, बेटा बहू की तरफ ही रहेगा हमेशा।”


राजेश सुनकर वहीं रुक गया।

उसे बहुत बुरा लगा।

सुबह उठते ही उसने रचना से कहा,


“रचना, अगली बार मम्मी को साड़ी-वाड़ी मत देना।

उन्हें जो देना है, सीधे पैसे दे दिया करो।

वो अपनी पसंद की चीज़ खुद खरीद लेंगी।”


रचना ने चुपचाप सिर हिला दिया।

उस दिन के बाद उसने न साड़ी खरीदी, न दुपट्टा, न गिफ्ट।

बस हर त्यौहार पर लिफ़ाफ़ा पकड़ा देती —

“मम्मी जी, ये आपके लिए।”


नीरा जी भी खुश।

अब किसी साड़ी पर उन्हें शिकायत नहीं होती थी।


लेकिन धीरे-धीरे रचना के मन की मिठास भी कम होती गई।

पहले जो हर त्योहार पर मां जैसी अपनापन महसूस करती थी,

अब बस दूरी सी रह गई थी।



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एक दिन पास के मंदिर में कथा थी।

नीरा जी वहाँ बैठी एक और बुजुर्ग महिला से बात कर रही थीं —

“मेरी बहू बहुत समझदार है। अब तो मुझे साड़ियां नहीं देती, बस पैसे दे देती है। अच्छा है, मेरी पसंद से खरीद लेती हूँ।”


वो महिला मुस्कराई और बोली —

“बहू को कभी ये मत कहना कि वो प्यार से कुछ लाए।

क्योंकि जब बहू अपने दिल से साड़ी देती है ना,

तो उसमें सिर्फ कपड़ा नहीं, अपनापन लिपटा होता है।”


वो बात नीरा जी के दिल को छू गई।


घर लौटकर उन्होंने अपनी अलमारी खोली —

वही क्रीम कलर की साड़ी अब भी तह में रखी थी,

बिलकुल नई, जैसी रखी थी, वैसी ही पड़ी है।


उन्होंने साड़ी उठाई और धीरे से बोलीं —

“रचना, ज़रा इधर आओ बेटा।”


रचना आई तो नीरा जी ने साड़ी उसके हाथ में रख दी।

“कल मेरे साथ चलना, ब्लाउज सिलवा लेंगे।

इस बार करवाचौथ मैं तुम्हारे दिल की साड़ी ही पहनूंगी।”


रचना की आंखों में चमक आ गई।

उसे पहली बार लगा —

“मम्मी जी ने तोहफ़ा नहीं, मेरा प्यार स्वीकार किया है।”



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सीख:

कभी-कभी बड़ों की “पसंद-नापसंद” के पीछे

 बस एक वहम होता है।

प्यार जताने का तरीका चाहे मायके से आया तोहफ़ा हो या खुद की पसंद —

महत्व तो भावना का होता है, चीज़ का नहीं।

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