बाबूजी का सम्मान

 

An emotional old father sitting peacefully in a temple after being humiliated by his daughter-in-law, realizing self-respect is greater than comfort, soft morning light on his wrinkled face expressing silent forgiveness.


“बाबूजी, अब तो कुछ शर्म कर लीजिए! दिनभर कमरे में पड़े रहते हैं... ज़रा-सा तो हाथ बटाइए घर के कामों में,”

काजल ने बर्तन धोते-धोते कहा।


“बेटा, मैं क्या करूं? इस घुटनों के दर्द ने तो मुझे लाचार बना दिया है… पाँच मिनट भी खड़ा रहूं तो टाँगें जवाब दे देती हैं।”

सत्यनारायण जी ने धीमे स्वर में कहा।


“हां, तो इसका मतलब यह नहीं कि आप कुछ करेंगे ही नहीं! आप तो सुबह उठकर बस राम नाम जपते रहते हैं, घर के खर्चे बढ़ते जा रहे हैं, ऊपर से दवा भी रोज़ की!”

काजल की आवाज़ में झुंझलाहट थी।


“पर बेटी, मैं अपने बेटे के समय में... जब दुकान चलती थी, तब तो दिन-रात मेहनत की थी। जो कुछ है उसी की बदौलत...”


“अरे बाबूजी!” — काजल ने बीच में ही बात काट दी —

“वो सब बीते ज़माने की बातें हैं! आज के समय में हर कोई अपने दम पर जीता है। आप बस पुरानी बातें लेकर बैठे रहिए!”


इतना कहकर काजल ज़ोर से दरवाज़ा बंद कर कमरे से बाहर चली गई।

सत्यनारायण जी का दिल जैसे किसी ने मुठ्ठी में जकड़ लिया हो। आंखें भर आईं… उन्होंने पास रखी अपनी पुरानी तस्वीर उठाई, जिसमें वो अपनी दुकान के सामने मुस्कुरा रहे थे — पत्नी, बेटा और बहु काजल उनके बगल में थी।


“कितना अच्छा वक्त था… जब सब एक साथ खाना खाते थे, हँसी मज़ाक करते थे...” उन्होंने तस्वीर को सीने से लगा लिया।



अगले दिन सुबह, उन्होंने धीरे-धीरे उठकर अपने पुराने झोले में कुछ कपड़े रखे।

पोते अंशु ने पूछा,

“दादू, आप कहां जा रहे हैं?”

“बस बेटा, जरा मंदिर तक जा रहा हूँ... जल्दी लौट आऊँगा।”


वो बाहर निकले — किसी ने रोका नहीं, किसी ने पूछा तक नहीं।




मंदिर पहुंचकर उन्होंने पुजारी जी से कहा,

“पंडित जी, क्या मंदिर के पीछे जो छोटा कमरा है... वहां कोई रह सकता है?”

पंडित जी ने देखा — सफेद बाल, थका चेहरा, मगर आँखों में एक सच्ची चमक थी।

“हाँ, क्यों नहीं बाबा, भगवान का घर सबके लिए खुला है। लेकिन यहाँ आपको आराम नहीं मिलेगा, पूजा-पाठ में हाथ बटाना होगा।”


“यही तो चाहता हूँ पंडित जी, अपने बचे हुए दिन भगवान की सेवा में बिताना चाहता हूँ।”


उस दिन से सत्यनारायण जी मंदिर में रहने लगे।

सुबह भगवान का भोग लगाते, दोपहर में साफ-सफाई करते, शाम को आरती में बैठते।

मंदिर आने वाले लोग उनके चेहरे पर शांति देखकर कहते —

“बाबा, आपके चेहरे पर तो भगवान का प्रकाश झलकता है।”



उधर घर में काजल को अब रोज़ सब्ज़ी लाना, बच्चों को संभालना, और पति रवि के गुस्से झेलना — सब कुछ अकेले करना पड़ रहा था।


“काजल, बाबूजी दिखाई नहीं दे रहे, कहीं गए हैं क्या?”

रवि ने पूछा।

“पता नहीं... शायद किसी रिश्तेदार के यहां होंगे,” काजल ने लापरवाही से कहा।

“तो तूने पूछा नहीं?? दस दिन से आदमी घर पर नहीं है और तुझे परवाह नहीं!”

रवि ने गुस्से से कहा।


अब काजल को चिंता हुई। वो आसपास के मोहल्ले में पूछताछ करने लगी।

“अरे, वो सत्यनारायण जी ना... मंदिर वाले? वही तो वहाँ पूजा करते हैं।”

किसी ने बताया।


काजल भागती हुई मंदिर पहुंची।

देखा — वही बाबूजी, फर्श पर बैठकर मंदिर झाड़ू लगा रहे थे।


“बाबूजी... आप यहाँ?” उसकी आँखें भर आईं।

“बेटी, तू... तू यहाँ कैसे?”

“मैं... मैं गलती कर बैठी बाबूजी... मुझे माफ कर दीजिए... मैंने कभी नहीं सोचा था कि आप इतना अपमान महसूस कर रहे होंगे।”


सत्यनारायण जी मुस्कुराए —

“नहीं बेटी, गलती किसी की नहीं होती... वक्त सिखा देता है कि कौन अपनों में भी अपना है। अब मैं यहीं अच्छा हूँ। यहाँ कोई झिड़कता नहीं, सब सम्मान देते हैं।”


“बाबूजी, घर चलिए... बिना आपके घर सूना है। आपके बिना तो अंशु भी खाना नहीं खा रहा।”

काजल रोते हुए उनके पैर पकड़ लेती है।


सत्यनारायण जी ने उसके सिर पर हाथ रखा —

“अगर तू सच में चाहती है कि मैं चलूं, तो एक वादा कर — आगे कभी किसी बूढ़े को बोझ मत समझना। जिस दिन घर के बुज़ुर्गों का आदर खत्म होता है, उस दिन घर का सुख भी चला जाता है।”


काजल ने सिर झुका लिया — “वादा करती हूँ बाबूजी।”



कुछ दिन बाद...

घर में फिर से हंसी लौट आई थी।

सत्यनारायण जी सुबह अंशु को कहानी सुनाते, रवि के लिए आशीर्वाद देते और काजल को मुस्कुराकर कहते — ‘अब घर फिर से घर जैसा लगने लगा है।' —

“बेटी, भगवान करे तेरे घर से कभी सम्मान न जाए।”



कहानी की सीख


> “बुज़ुर्ग बोझ नहीं

 होते, वो अनुभव का खज़ाना होते हैं।

उनकी रोटियाँ मुफ्त नहीं — आबरू से कमाई हुई होती हैं।”

#RespectParents #HeartTouchingStory


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