❝ रिश्तों की मिठास ❞
सुबह का समय था। घर में रसोई से आते तड़के का सुगंध पूरे आँगन में फैल रहा था।
संध्या रसोई में पूरी, सब्ज़ी और सेवइयाँ बना रही थी। आज रक्षाबंधन था — और हर साल की तरह आज भी घर में बहुत चहल-पहल थी।
“अरे संध्या! ज़रा जल्दी कर, नंदिनी का फोन आया था, वह रास्ते में है,” सासु माँ, मीरा देवी ने रसोई में झाँकते हुए कहा।
“जी माँजी, बस दस मिनट में सब तैयार हो जाएगा।”
संध्या के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, लेकिन मन में कुछ खटास भी। पिछली बार जब नंदिनी आई थी, तो उसने हर बात पर टोक दिया था — “भाभी, नमक ज़्यादा है”, “भाभी, ये पकवान तो अम्मा के जैसे नहीं बने!”
संध्या तब से ही थोड़ी दूरी बनाए रखती थी।
इतने में गाड़ी का हॉर्न सुनाई दिया।
मीरा देवी उत्साह से बाहर निकलीं, “लो, आ गई मेरी बिटिया!”
नंदिनी उतरकर दौड़ते हुए माँ के गले लग गई।
“अरे माँ! आप तो पहले से ही रो रही हैं!”
“खुशी के आँसू हैं बेटा,” मीरा ने हँसते हुए कहा।
संध्या ने दरवाज़े पर आरती की थाली लेकर स्वागत किया — “आओ नंदिनी, अंदर आओ।”
“भाभी, आप तो बिल्कुल पहले जैसी लग रही हैं,” नंदिनी ने मुस्कराते हुए कहा, “बस थोड़ा कम बोलती हैं अब।”
संध्या ने हल्के से हँसते हुए कहा, “रसोई और रिश्ते — दोनों को धीमी आँच पर पकाना पड़ता है, तभी स्वाद आता है।”
थोड़ी देर बाद सब लोग नाश्ते की मेज़ पर थे।
मीरा देवी बोलीं, “संध्या, तू भी बैठ जा, सब कुछ तू ही करती रहेगी क्या?”
“माँ, भाभी को रहने दो न, उन्हें तो काम करते ही अच्छा लगता है!” नंदिनी ने मुस्कराकर कहा।
संध्या ने आँखें उठाईं और पहली बार नंदिनी के चेहरे पर एक सच्ची मुस्कान देखी।
शायद इस बार कुछ अलग था।
नाश्ते के बाद नंदिनी रसोई में गई।
“भाभी, चलो, मैं आपकी मदद करती हूँ।”
“अरे, तुम बैठो न, तुम मेहमान हो।”
“भाभी, रक्षाबंधन पर भाभी-ननद का रिश्ता भी तो बंधता है, सिर्फ राखी ही नहीं।”
संध्या चौक गई। नंदिनी ने पहली बार इतनी प्यारी बात कही थी।
संध्या ने कहा, “ठीक है, तुम भाजी काट लो, मैं चाय बना लेती हूँ।”
दोनों के बीच धीरे-धीरे बातों की गाड़ी चल पड़ी।
“भाभी, याद है शादी के बाद मैं कितनी नखरीली थी?”
“याद है, और मैं कितनी चुप रहती थी,” संध्या ने कहा।
“अब लगता है, मैं गलत थी। मैंने आपको कभी समझने की कोशिश ही नहीं की,” नंदिनी बोली।
संध्या ने हल्के से कहा, “गलती हम दोनों की थी, रिश्ता तो दोनों तरफ से निभाया जाता है।”
दोपहर को जब राखी बाँधने का वक्त आया, नंदिनी ने अपने भाई रोहित की कलाई पर राखी बाँधी और फिर संध्या की ओर देखा।
“भाभी, अगर राखी सिर्फ भाई की कलाई पर बाँधना ही रिवाज होता, तो रसोई की खुशबू में भाभी की ममता क्यों होती?”
“आप तो हमारे घर की सच्ची राखी हैं — जो सबको बाँधकर रखती हैं।”
संध्या की आँखों में नमी आ गई।
मीरा देवी ने दोनों को देख कहा, “आज मुझे पहली बार लगा कि मेरी बहू और बेटी नहीं, दो बेटियाँ हैं।”
शाम को जब नंदिनी जाने लगी, उसने भाभी का हाथ पकड़ा,
“भाभी, अबकी बार राखी पर मैं अकेली नहीं आऊँगी — अपने बच्चों को भी लाऊँगी। उन्हें भी सिखाऊँगी कि रिश्ते प्यार से निभते हैं, तकरार से नहीं।”
संध्या बोली, “और मैं तुम्हारे लिए तुम्हारी पसंद की गुझिया खुद बनाऊँगी।”
मीरा देवी दरवाज़े पर खड़ी दोनों को आशीर्वाद देती बोलीं,
“भगवान करे, हर घर में ऐसी ननद-भाभी हों, जो एक-दूसरे की परछाईं बन जाएँ।”
नंदिनी कार में बैठी तो पीछे मुड़कर देखा — संध्या मुस्कराती हुई हाथ हिला रही थी।
उस मुस्कान में अपनापन था, जो न जाने कितने सालों से उनके बीच खो गया था।
सीख:
रिश्तों की मिठास कभी शब्दों से नहीं, बल्कि समझ और सम्मान से बढ़ती है।
ननद-भाभी अगर दोस्त बन जाएँ, तो घर में हर त्यौहार सच्चा उत्सव बन जाता है।
#RishtonKiMithaas #FamilyValues

Post a Comment