"सीमा की चुप्पी"
सुबह के सात बज चुके थे। घर के आंगन में चाय की केतली की सीटी बज रही थी।
सीमा ने जल्दी-जल्दी दो कपों में चाय डाली — एक अपने पति राजेश के लिए, और एक सासू माँ के लिए।
"माँजी, चाय रख दी है,"
वो धीरे से बोली।
पर जवाब में सासू माँ ने बस ठंडी निगाहें डालीं, जैसे वो घर की बहू नहीं, कोई नौकरानी हो।
राजेश अख़बार में डूबा था, और हर रोज़ की तरह उसके चेहरे पर न कोई अपनापन था, न ही कोई दिलचस्पी।
सीमा शादी के तीन साल बाद भी इस घर में अपनेपन की तलाश कर रही थी।
शादी के वक्त राजेश ने कहा था —
"सीमा, मुझे कोई बनावटी लड़की नहीं चाहिए, बस एक सीधी-सादी, संस्कारी पत्नी जो घर को सम्भाल ले।"
पर अब उसे एहसास होता था कि "संस्कार" का मतलब यहाँ चुप रहना था — चाहे कोई कुछ भी कह दे।
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उस दिन सुबह की तरह ही, दोपहर भी भारी थी।
राजेश का छोटा भाई राहुल और उसकी पत्नी पायल अपने कमरे से हँसते हुए निकले।
पायल ऑफिस जाती थी, और राजेश को ये बात कभी पसंद नहीं थी।
"आजकल की औरतों को बस बाहर घूमना है, घर बैठने वाली कोई मिलती ही नहीं,"
राजेश हमेशा कहा करता था।
सीमा हर बार सुनती, पर कुछ कहती नहीं थी।
वो जानती थी — अगर जवाब दिया तो घर में भूचाल आ जाएगा।
लेकिन उस दिन सब्र की हद तब टूटी, जब सासू माँ की आवाज़ पूरे घर में गूँज उठी —
"अरे सीमा! तेरा बेटा दिनभर घर में इधर-उधर घूमता रहता है। उसे सँभाल नहीं सकती? और खुद दिनभर फोन में लगी रहती है!"
सीमा का दो साल का बेटा रितेश सामने ही बैठा ब्लॉक्स से खेल रहा था।
वो हँसते हुए बोला —
"दादी, मम्मी तो मुझे कहानी सुना रही थी!"
सासू माँ ने घूरकर कहा,
"बस मुँह चलाना सिखा दिया इसने भी। माँ जैसी माँ!"
सीमा के कान लाल हो गए। उसने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसका दिल अंदर से टूट गया।
राजेश वहीं बैठा सब देखता रहा, लेकिन उसने मुँह नहीं खोला।
रात में सीमा ने हिम्मत जुटाकर राजेश से कहा —
"राजेश, माँ को समझाओ न, हर बात पर ताने देती हैं। बच्चे के सामने भी मुझे नीचा दिखाती हैं।"
राजेश ने अख़बार पलटते हुए कहा —
"माँ बड़ों में हैं, वो जो कहती हैं, तुम्हारे भले के लिए कहती हैं। और फिर, तुम भी तो ज्यादा भावुक हो जाती हो। छोटी-छोटी बातों को दिल पे ले लेती हो।"
सीमा की आँखों में आँसू आ गए —
"अगर मैं चुप रहती हूँ तो गलत, अगर कुछ बोलती हूँ तो बेहया कहलाती हूँ। आखिर चाहती क्या हैं आप लोग मुझसे?"
राजेश ने गुस्से से कहा —
"बस ज़्यादा बहस मत करो सीमा। मैं नहीं चाहता कि कल माँ के सामने फिर तुम्हारी आवाज़ उठे। मेरी इज़्ज़त जाती है सबके सामने।"
सीमा ने धीरे से कहा —
"तो आपकी इज़्ज़त मेरी चुप्पी पर टिकी है?"
राजेश ने जवाब नहीं दिया। लाइट बंद कर ली और सो गया।
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अगली सुबह वही कहानी दोहराई गई।
रसोई में गैस पर दूध उबल गया, तो सासू माँ फिर चिल्लाई —
"सीमा! तेरे बस का नहीं ये घर संभालना। ना तेरा ध्यान है, ना तेरी अक्ल!"
राजेश भी वहाँ आ गया और बोला —
"माँ सही कहती हैं। तुमसे इतना छोटा काम भी नहीं होता। अब अगर मैं गुस्सा हो जाऊँ तो बोलोगी कि मैं गलत हूँ!"
सीमा ने पहली बार सीधा जवाब दिया —
"हाँ, आप गलत हैं राजेश! क्योंकि घर संभालना सिर्फ मेरा काम नहीं है। इस घर की औरतें अगर हर वक्त रोती रहें, तो शायद कुछ गलत हो रहा है।"
पूरा घर सन्न रह गया।
सासू माँ ने हाथ नचाते हुए कहा —
"वाह रे जमाना! अब बहुएँ सास और पति दोनों को उपदेश देंगी!"
सीमा की आँखें नम थीं, पर उसकी आवाज़ में अब डर नहीं था
"अगर सच बोलना उपदेश है, तो मैं आज से रोज़ उपदेश दूँगी।
क्योंकि अब मैं अपनी चुप्पी से किसी की इज़्ज़त नहीं बचाऊँगी।
आप सबको अपने-अपने सम्मान की चिंता है, पर मेरी इज़्ज़त भी कोई चीज़ होती है!"
राजेश एक पल को स्तब्ध रह गया।
सीमा ने अपनी साड़ी का आँचल ठीक किया, अपने बेटे का हाथ पकड़ा और रसोई से बाहर निकल गई।
उस दिन पहली बार उसने खुद के लिए खड़ा होना सीखा था।
पड़ोस की औरतें जब उसे "तेज़ जबान वाली" कहने लगीं, तो वो मुस्करा दी।
क्योंकि उसे अब समझ आ गया था —
कभी-कभी औरत को अपने सम्मान के
लिए आवाज़ ऊँची करनी ही पड़ती है,
वरना दुनिया उसकी चुप्पी को उसकी मंज़ूरी समझ लेती है।

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