❝ सास बहु की बहस ❞
रविवार की वो सुबह हमेशा की तरह हलचल भरी थी।
अपर्णा जी का स्वर पूरे घर में गूंज रहा था —
“अरे सुनो दिनेश जी, देखो तो ज़रा, सूरज आधे आकाश पर चढ़ आया, पर महारानी बहु अभी तक सो रही है।
मैं सास होकर रसोई में खट रही हूँ, और वो चद्दर ओढ़े आराम फरमा रही है!”
दिनेश जी अख़बार के पीछे से झाँकते हुए बोले —
“भाग्यवान, आज तो रविवार है, उसे सोने दो ज़रा।
इतने दिन काम करती है, थोड़ी देर की नींद तो उसका हक है।”
अपर्णा जी ने आँखें तरेर दीं —
“आप तो बस अपने बेटे और बहु के वकील बन गए हैं।
हमारे ज़माने में बहुएँ सास के उठने से पहले उठ जाती थीं।
और अब देखो — सास रसोई में और बहु रजाई में।”
दिनेश जी बोले —
“अब ज़माना बदल गया है, आप भी थोड़ा बदल जाइए।”
इतने में दीपक कमरे से बाहर निकला, आँखें मलते हुए बोला —
“मा, हर रविवार सुबह-सुबह आप कचहरी क्यों लगा देती हैं?”
“क्योंकि तुम्हारी बीवी बेशर्म है!” अपर्णा जी बोलीं।
दीपक ने हाथ जोड़ते हुए कहा —
“मा, प्लीज़, आज नहीं। मैं पूरे हफ्ते काम करता हूँ, और रेखा भी।
कम से कम एक दिन चैन से रहने दीजिए।”
तभी कमरे का दरवाज़ा खुला। रेखा बालों में रबर लगाते हुए बाहर आई।
थोड़ी थकी हुई, पर चेहरे पर आत्मविश्वास साफ दिख रहा था।
“मम्मी जी,” रेखा बोली, “मैंने कई बार कहा कि मेड रख लेते हैं,
मैं उसका खर्चा दे दूँगी। पर आपको तो मुझे सुनाने में ही मज़ा आता है।”
अपर्णा जी ने भौंहे उठाईं —
“हमारा जमाना और था बेटी। तब न मेड थी, न मोबाइल।
हम खुद सब करते थे।”
रेखा ने शांत स्वर में कहा —
“मम्मी जी, आपका जमाना बहुत अच्छा था, लेकिन अब हालात बदल गए हैं।
अगर औरत घर और नौकरी दोनों संभाले, तो थोड़ा साथ मिल जाए तो बहुत कुछ आसान हो जाता है।”
दीपक ने दोनों की बीच आते हुए कहा —
“बस, अब और नहीं। मा, कुछ दिन मामा जी के घर चले जाओ।
पापा, आप छोड़ आइए। घर में शांति आ जाएगी।”
अपर्णा जी नाराज़ होकर बोलीं —
“वाँ जी वाँ, अब मैं ही दोषी हो गई!”
दिनेश जी बोले —
“भाग्यवान, तुम खुद कहती थीं कि भाभी से मिले अरसा हो गया,
चलो वहीं कुछ दिन रह लो।”
मन मारकर ही सही, अपर्णा जी तैयार हो गईं।
---
गाँव का घर...
दो दिन बाद वो अपने भाई के घर पहुँच गईं।
वहाँ उनकी भाभी कविता जी ने बड़े प्यार से स्वागत किया।
कविता जी बोलीं —
“अरे जीजी, अब तो आप शहर की हो गईं। हमारी याद ही भूल गईं।”
अपर्णा जी हँसते हुए बोलीं —
“नहीं-नहीं भाभी, ऐसी बात नहीं। बस कुछ दिनों की व्यस्तता थी,”
थोड़ी देर में नेहा ऑफिस से लौटी।
वो आते ही सास-ससुर के पैर छूकर बोली,
“मम्मी जी, सॉरी लेट हो गया। ट्रैफिक बहुत था।”
कविता जी मुस्कुराईं,
“कोई बात नहीं बहु, खाना बना रखा है।
तुम पहले हाथ-मुँह धो लो, फिर साथ में खा लेंगे।”
अपर्णा जी ने तुरंत तंज कस दिया —
“वाह भाभी, आप तो बड़ी महान हैं।
आपकी बहु देर से आती है, और आप फिर भी खुश!”
कविता जी बोलीं —
“जीजी, अब ज़माना बदल गया है।
अगर बहु को थोड़ा आराम मिल जाए, तो घर में शांति बनी रहती है।”
कौशल बाबू (कविता जी के पति) बोले —
“दीदी, अब सास-बहु का रिश्ता हुक्म और आदेश वाला नहीं रहा।
अब समझदारी और बराबरी का रिश्ता है।”
अपर्णा जी मुस्कुराईं लेकिन अंदर कुछ सोचने लगीं।
---
अगली सुबह...
अपर्णा जी की आदत के मुताबिक वो सुबह 6 बजे उठीं।
उन्होंने देखा, कविता जी पहले से उठी हुई थीं, पूजा कर रही थीं,
और रसोई में चाय बन रही थी।
अपर्णा जी ने कहा —
“भाभी, ये क्या? बहु के होते हुए आप रसोई में?”
कविता जी हँसते हुए बोलीं —
“जीजी, ये रसोई मेरा मंदिर है।
मुझे अपने हाथों से बनाकर सबको खिलाने में सुकून मिलता है।
नेहा भी ऑफिस से लौटकर बहुत काम करती है।
तो अगर मैं सुबह कुछ कर लूँ, तो क्या गलत है?”
अपर्णा जी को पहली बार महसूस हुआ कि
शायद प्यार से भी घर चल सकता है, सिर्फ नियमों से नहीं।
---
☕ नेहा की चाय और सास का दिल..
थोड़ी देर बाद नेहा उठी, सास-ससुर और अपर्णा जी के पैर छूए,
और बोली, “बुआ जी, आज आपके लिए मैंने इलायची वाली चाय बनाई है।
पी लीजिए, फिर बताइए कैसी लगी।”
अपर्णा जी ने एक घूँट लिया और बोलीं —
“अरे, बहुत अच्छी है बेटा।”
नेहा मुस्कुराकर बोली —
“बुआ जी, मेरी मम्मी कहती हैं, जिस घर में सास मुस्कुरा दे,
वो घर मंदिर बन जाता है।”
सब हँस पड़े।
---
आत्मबोध...
उसी रात बिस्तर पर लेटी अपर्णा जी सोचने लगीं —
“मेरे घर में शांति क्यों नहीं है?
दीपक और रेखा मेहनती हैं, पर मैं ही तो हर बात पर ताने देती थी।
अगर मैं थोड़ा समझदारी दिखाऊँ, तो शायद वो भी मुझसे खुलकर बातें करें।”
उनकी आँखों में पानी आ गया।
---
दो दिन बाद वो घर लौटीं।
रेखा ने झिझकते हुए कहा, “मम्मी जी, नमस्ते।”
अपर्णा जी ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया और बोलीं —
“बहु, अब नमस्ते नहीं, गले लग जाओ।”
रेखा हैरान थी, लेकिन मुस्कुराकर गले लग गई।
अगले रविवार सुबह रसोई से खुशबू आ रही थी।
दीपक ने देखा, मा खुद नाश्ता बना रही हैं।
“मा, आप... आप ठीक तो हैं?”
अपर्णा जी हँसते हुए बोलीं —
“क्यों, अब मैं कुछ करूँ तो शक?”
फिर प्यार से बोलीं,
“बहु पूरे हफ्ते काम करती है।
तो क्या मैं एक रविवार उसे आराम नहीं करने दूँ?”
रेखा की आँखों में खुशी छलक आई।
दिनेश जी अख़बार से झाँककर बोले,
“अगर मुझे पता होता कि गाँव भेजने से इतना असर होगा,
तो मैं टिकट सालों पहले कटवा देता।”
सब हँस पड़े।
घर में अब आवाज़ें थीं — पर प्यार भरी।
शोर था — पर सुकून वाला।
और रेखा ने मन ही मन कहा —
“काश हर सास को एक दिन नेहा जैसी बहु,
और हर बहु को एक दिन अपर्णा जैसी सास मिल जाए।”
---
कहानी का संदेश:
> “सास-बहु का रिश्ता जंग नहीं, समझ का रिश्ता है।
जहाँ प्यार और इज़्जत साथ हों, वहाँ घर मंदिर बन जाता है।”

Post a Comment