समझ का उजाला
सुबह के आठ बजे थे। सीमा रसोई में खड़ी पराठे सेंक रही थी।
तेल की खुशबू पूरे घर में फैल रही थी, तभी सास उषा देवी ने कमरे से आवाज लगाई —
“सीमा, ज़रा देखो, दही ठंडी है कि नहीं, मुझे ठंडी दही नहीं चाहिए।”
“जी माँजी,” — सीमा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
वह थकी हुई थी, क्योंकि पिछली रात बेटे की तबियत कुछ खराब थी और वह आधी रात तक जागती रही थी।
उषा देवी को यह सब पता था, पर फिर भी सुबह-सुबह वही ताने, वही बातें।
“बहुएँ आजकल सिर्फ दिखावे की परवाह करती हैं, मेहनत किसी को पसंद नहीं।”
सीमा ने कुछ नहीं कहा, चुपचाप रसोई में लगी रही।
कुछ साल पहले जब सीमा इस घर में आई थी, तो उसने सपने देखे थे —
कि ससुराल एक बड़ा, प्यार भरा परिवार होगा।
पर वक्त के साथ उसने महसूस किया कि सासू माँ को वह अब तक “अपनी” नहीं लगी।
हर काम में कमी निकालना, हर चीज़ में तुलना करना — यही रोज़ की बात बन गई थी।
सीमा का पति राहुल ऑफिस में बहुत व्यस्त रहता था।
वह कभी ठीक से देख ही नहीं पाता कि घर में क्या चल रहा है।
उषा देवी भी उसे कुछ न कुछ कहकर बहू के खिलाफ कर देतीं।
“तेरी बीवी तो बहुत चालाक है, कामचोर भी है।”
राहुल हँसकर टाल देता, मगर सीमा के दिल पर हर बार चोट लगती।
एक दिन उषा देवी की तबियत अचानक बिगड़ गई।
डॉक्टर ने बताया — “ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ा हुआ है, आराम की ज़रूरत है।”
सीमा ने बिना देर किए सास के सारे काम अपने जिम्मे ले लिए।
दवाइयाँ देना, खाना बनाना, वक़्त पर टहलाना — सब खुद किया।
धीरे-धीरे उषा देवी की तबियत सुधरने लगी,
मगर एक दिन उन्होंने पड़ोसन से कहा —
“मेरी बहू तो दिखावे के लिए कर रही है, दिल से नहीं।”
सीमा ने यह बात सुनी, पर कुछ बोली नहीं।
बस मन ही मन सोचती रही, “कभी तो माँजी को मेरी सच्चाई दिखेगी।”
एक शाम राहुल घर लौटा तो देखा —
सीमा माँ के पैरों की मालिश कर रही थी।
माँ की आँखें बंद थीं, पर चेहरे पर शांति थी।
राहुल के मन में कुछ बदला।
उसे एहसास हुआ कि उसकी पत्नी जो करती है, वह दिखावे के लिए नहीं,
बल्कि प्यार और जिम्मेदारी से करती है।
उस रात राहुल ने माँ से कहा —
“माँ, मैं दिन भर बाहर रहता हूँ, पर अब देखता हूँ कि सीमा ने इस घर को संभाल रखा है।
आपकी दवा से लेकर पूजा तक, सबका ख्याल रखती है।
आपने कभी उसे बेटी की तरह अपनाया नहीं, फिर भी वह आपकी सेवा में कोई कमी नहीं रखती।”
उषा देवी कुछ देर तक चुप रहीं।
फिर धीरे से बोलीं —
“बेटा, शायद मैंने अपनी बहू को कभी सही नजर से देखा ही नहीं।
मुझे लगा वो मेरी जगह लेना चाहती है,
पर वो तो मेरी जगह संभाल रही थी…”
उनकी आँखें नम हो गईं।
सीमा दरवाजे पर खड़ी सब सुन रही थी।
वह आगे बढ़ी, माँ के पास बैठी और बोली —
“माँजी, घर तो आपका ही है, मैं तो बस आपकी परछाई हूँ।”
उषा देवी ने पहली बार सीमा का हाथ थामा और कहा —
“आज से तू सिर्फ बहू नहीं, मेरी बेटी है।”
उस दिन के बाद से घर का माहौल ही बदल गया।
उषा देवी जब भी कुछ खातीं, तो सीमा को साथ बैठाकर खिलातीं।
पड़ोस में अब कोई कहता, “आपकी बहू बहुत भाग्यशाली है,”
तो उषा देवी मुस्कुराकर कहतीं —
“नहीं, भाग्यशाली तो मैं हूँ कि मुझे ऐसी बहू मिली।”
सीमा के चेहरे पर जो सुकून था,
वह सालों की चुप्पी का फल था —
प्यार, धैर्य और समझ का उजाला आखिरकार उनके घर में फैल चुका था।
संदेश:
कभी-कभी रिश्ते जीतने के लिए जवाब नहीं, बस थोड़ी सी समझ और समय चाहिए।
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