❝ कपड़ों से नहीं, इंसानियत से आंकना ❞

 



शहर के बड़े अस्पताल में सुबह से भीड़ लगी थी। हर रोज़ की तरह लोग लाइन में खड़े थे—किसी को बुखार, किसी को दवा चाहिए, किसी को अपने बच्चे का चेकअप करवाना था। अस्पताल की गेट पर खड़ी थी सुरक्षा गार्ड रेखा, जो हर आने-जाने वाले पर कड़ी नजर रखती थी।


उसी भीड़ में धीरे-धीरे एक साधारण बुज़ुर्ग महिला अंदर आईं। उन्होंने एक फीकी सी साड़ी पहनी थी, पैर में पुरानी चप्पल थी, बाल सफेद और बिखरे हुए थे। हाथ में एक पुराना बैग और एक लिफाफा था।


रेखा ने उन्हें देखकर नाक-भौं सिकोड़ ली —

“अरे अम्मा, कहां चली आ रही हो? यहाँ बड़े लोग आते हैं, ये कोई सरकारी अस्पताल नहीं है। ये सिटी मेडिकल सेंटर है।”


महिला ने नम्रता से कहा, “बेटी, मुझे अंदर डॉक्टर साहिबा से मिलना है। उन्होंने खुद मुझे बुलाया है।”


रेखा हँस पड़ी —

“डॉक्टर साहिबा ने तुम्हें बुलाया है? अरे अम्मा, तुम्हें देखकर तो लगता है कि तुम तोख़ाना मांगने आई हो। चलो चलो, बाहर जाओ।”


महिला ने फिर भी शांति से कहा, “बेटी, नाम लिख लो — कुसुम बाई। डॉक्टर सरिता ने कहा था कि आज 11 बजे आना।”


रेखा ने झुंझलाकर कहा, “नाम क्या लिखना! डॉक्टर लोग बड़े-बड़े लोगों को टाइम देते हैं। तुम्हारे जैसे लोगों के लिए उनके पास वक़्त नहीं होता। अब चलो यहाँ से, वरना सिक्योरिटी बुलाऊँगी।”


भीड़ में खड़े कुछ लोग यह सब सुन रहे थे, मगर किसी ने कुछ नहीं कहा।

बुज़ुर्ग महिला धीरे से एक बेंच पर बैठ गईं। वो थक चुकी थीं, मगर चेहरे पर अब भी शांति थी।


थोड़ी देर बाद, अस्पताल के अंदर से एक नर्स बाहर आई। उसने बुज़ुर्ग महिला को देखा और तुरंत बोली,

“अरे आप कुसुम बाई हैं ना? डॉक्टर सरिता मैम आपकी ही राह देख रही हैं! आइए, अंदर चलिए!”


रेखा चौंक गई।

“क्या? इन्हें डॉक्टर साहिबा ने बुलाया है?”

नर्स ने कहा, “हाँ, यही उनकी माँ हैं।”


ये सुनते ही पूरे अस्पताल के लोग सन्न रह गए।

रेखा के चेहरे से रंग उड़ गया। उसने सिर झुका लिया।



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डॉक्टर सरिता, जो शहर की मशहूर हृदय रोग विशेषज्ञ थीं, अपने केबिन में खड़ी थीं। जैसे ही उनकी माँ अंदर आईं, वे भागकर उनके पास पहुँचीं,

“माँ! आपने मुझे बताया क्यों नहीं कि आप अकेले आ रही हैं? मैं लेने आती।”


कुसुम बाई मुस्कुराईं —

“बेटी, अब तो तू इतनी बड़ी डॉक्टर है, तेरे अस्पताल में आने के लिए भी क्या कोई गाड़ी चाहिए?”


सरिता ने उनका हाथ थामा और बैठाया। माँ की आँखों में गर्व था, बेटी की आँखों में प्यार।


उसी समय रेखा धीरे-धीरे अंदर आई, सिर झुका हुआ था।

“मैडम... मैं... मैं बहुत शर्मिंदा हूँ। मुझे पता नहीं था ये आपकी माँ हैं। मैंने बहुत गलत बात कह दी।”


सरिता ने शांत स्वर में कहा,

“रेखा, गलती मेरी माँ के साथ नहीं, इंसानियत के साथ हुई है। अगर ये मेरी माँ न होतीं, तो भी तुम्हारा व्यवहार ऐसा नहीं होना चाहिए था। तुम अस्पताल में काम करती हो — जहाँ हर मरीज बराबर होता है, चाहे अमीर हो या गरीब।”


रेखा की आँखों से आँसू निकल पड़े।

“मैडम, मुझे माफ़ कर दीजिए, अब से कभी किसी को कपड़ों से नहीं आंकूँगी।”


कुसुम बाई ने आगे बढ़कर उसका सिर सहलाया,

“बेटी, गलती सब से होती है, बस सीख लेना ज़रूरी है। याद रखो, गरीब कपड़े पहनने वाला हमेशा गरीब दिल वाला नहीं होता।”


पूरा स्टाफ उस वक्त चुप था। डॉक्टर सरिता ने सबको संबोधित किया —

“आज मेरी माँ ने हमें सिखाया है कि असली इंसानियत यही है — हर व्यक्ति को सम्मान देना, चाहे वो किसी भी हाल में क्यों न हो। अस्पताल वो जगह है जहाँ दर्द बांटा जाता है, न कि किसी को नीचा दिखाया जाता है।”



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उस दिन के बाद सिटी मेडिकल सेंटर का माहौल पूरी तरह बदल गया।

अब कोई भी मरीज साधारण कपड़ों में आता, तो नर्स और गार्ड उसे “सर” या “मैडम” कहकर संबोधित करते।

रेखा हर दिन किसी न किसी गरीब मरीज को पानी देती, मदद करती।


कुसुम बाई अब भी कभी-कभी अपनी बेटी से मिलने आतीं, लेकिन इस बार जब भी आतीं, पूरा स्टाफ खड़ा होकर उनका अभिवादन करता।

वो मुस्कुरातीं और कहतीं —

“बेटा, इंसानियत की दवा सबसे असरदार होती है।”



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सीख:


कभी किसी को उसके कपड़ों या हालत से मत आंकिए।

हर इंसान में एक गरिमा, एक कहानी और एक सम्मान छुपा होता है।

जो दूसरों को सम्मान देता है — वही सच में “बड़ा” होता है।

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