❝ सास और बहू की अनकही दूरी ❞

 



घर के आँगन में तुलसी चौरा के पास बैठी सरोजा देवी सुबह की पूजा खत्म कर रही थीं। तभी पीछे से आवाज आई —

“माँ, ये सब आप अकेले क्यों करती हैं? मुझे भी तो बुला लिया होता।”

सरोजा देवी मुस्कुराईं, “अरे, बहू, तुम तो रोज सुबह दफ्तर के लिए भागती रहती हो, मैं सोचती हूँ तुम्हें परेशान न करूँ।”


“माँ, अब ये घर सिर्फ आपका नहीं, मेरा भी तो है ना? और पूजा के समय घर की बहू का होना शुभ माना जाता है।”

ये कहते हुए आरती ने थाली में फूल चढ़ा दिए।


आरती की शादी को अब छः महीने हो चुके थे। वह पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा और समझदार लड़की थी। पर सास–बहू के बीच अभी भी एक दीवार-सी थी। सरोजा देवी को लगता था कि नई बहू अपने फोन और दफ्तर में ज्यादा व्यस्त रहती है, घर के कामों में उसका मन नहीं है।


इधर राजेश (आरती का पति) को लगता था कि माँ और आरती दोनों एक-दूसरे को समझने की कोशिश ही नहीं करतीं।



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एक दिन दोपहर का वक्त था। सरोजा देवी सब्जी काट रही थीं। तभी आरती ने कहा,

“माँ, आज मैं जल्दी घर आ गई, चलिए साथ में खाना बनाते हैं।”


सरोजा बोलीं, “नहीं बेटा, तुम बैठो, मैं बना लूँगी। वैसे भी तुम्हें मेरे बनाए खाने में स्वाद नहीं आता, तुम तो होटल जैसा मसालेदार खाना पसंद करती हो।”


आरती चुप हो गई। उसे बुरा लगा। वह सिर्फ माँ का साथ चाहती थी, लेकिन माँ ने उसके मन की बात सुने बिना ताना दे दिया।


शाम को राजेश आया, तो आरती ने कहा,

“तुम्हारी माँ मुझसे बात भी ठीक से नहीं करतीं। मैं कुछ बोलूँ, तो ऐसा लगता है जैसे मैंने कोई गलती कर दी हो।”


राजेश बोला, “आरती, माँ पुरानी सोच की हैं, उन्हें समय दो।”


आरती बोली, “समय तो दे रही हूँ, लेकिन वो हर बार मुझे ‘तुम लोग’ कहकर अलग कर देती हैं — जैसे मैं इस घर की नहीं हूँ।”



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दो दिन बाद मोहल्ले में एक कीर्तन था। सरोजा देवी ने वहाँ जाने की तैयारी की और कहा,

“आरती, तुम चाहो तो ऑफिस से छुट्टी लेकर चलना।”


आरती ने मुस्कुराकर कहा, “माँ, आज मेरा एक जरूरी प्रोजेक्ट है, मैं शाम को आ जाऊँगी।”


शाम को जब आरती पहुँची, तो देखा कि माँ नाराज़ बैठी हैं।

“क्यों माँ, कीर्तन कैसा रहा?”


सरोजा देवी बोलीं, “अरे छोड़ो, अब बहुएँ कहाँ मंदिर जाती हैं, उन्हें तो बस लैपटॉप और मोबाइल से ही फुर्सत नहीं।”


आरती को फिर चुभा। उसने कुछ नहीं कहा, बस कमरे में चली गई। लेकिन उस रात पहली बार वो रो पड़ी। उसे समझ नहीं आया कि उसने क्या गलती की थी।



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अगले दिन सुबह सरोजा देवी पूजा कर रही थीं कि अचानक सीढ़ियों पर उनका पैर फिसल गया। वो गिर पड़ीं और घुटने में चोट लग गई। आरती भागकर आई,

“माँ! ओह माँ, आपको चोट लग गई!”


आरती ने तुरंत डॉक्टर को बुलाया, मरहम लगाया, और पूरा दिन उनके पास बैठी रही।


जब दवा का असर हुआ, तो सरोजा देवी की आँखें खुलीं। उन्होंने देखा कि आरती उनके पैर दबा रही है।

“बहू, तुम दफ्तर नहीं गई?”


आरती मुस्कुराई, “आप दफ्तर से ज़्यादा ज़रूरी हैं माँ।”


उस पल सरोजा देवी की आँखें भर आईं। उन्होंने धीरे से आरती का हाथ पकड़कर कहा,

“मुझे माफ कर देना बेटा, मैं तुम्हें समझ नहीं पाई। मुझे लगा तुम इस घर में बस दिखावे के लिए निभा रही हो, पर तुम तो सच में दिल से इस घर की हो।”


आरती ने कहा, “माँ, मैं हमेशा चाहती थी कि आप मुझे बेटी की तरह अपनाएँ। शायद मैंने ही प्यार जताने का तरीका ठीक से नहीं अपनाया था।”


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उस दिन के बाद घर का माहौल बदल गया।

अब सरोजा देवी आरती के साथ मिलकर पूजा करतीं, साथ में खाना बनातीं और मोहल्ले की महिलाओं से कहतीं,

“मेरी बहू नहीं, मेरी बेटी है ये।”


राजेश हँसते हुए कहता,

“अब माँ और आरती की जोड़ी में मुझे जगह ही नहीं मिलती!”


आरती मुस्कुरा देती और कहती,

“यही तो असली घर है — जहाँ प्यार में कोई दीवार नहीं होती।”


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सीख


कभी-कभी रिश्ते गलतफहमियों से नहीं, समझ की कमी से बिगड़ते हैं।

थोड़ा-सा अपना

पन, एक छोटा-सा “माफ करना”, और थोड़ा-सा “साथ” — ये ही तो किसी भी घर को परिवार बनाते हैं।


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