❝ माया की छोटी बहू ❞ – एक सच्चा रिश्ता
माया देवी के दो बेटे थे — बड़ा बेटा राकेश और छोटा बेटा सुरेश।
पति का देहांत हुए अब दस साल बीत चुके थे। घर, दुकान और खेत का सारा जिम्मा राकेश ने ही संभाल रखा था।
सुरेश पढ़ाई में होशियार था, तो माया देवी का सपना था कि वह एक दिन बड़ा अफसर बने।
राकेश की शादी गाँव की ही सीधी-सादी लड़की कविता से हुई थी।
कविता दिन-रात घर के काम में लगी रहती — माया के पांव दबाना, खाना बनाना, गोबर से आँगन लीपना, सब करती थी।
माया देवी खुश रहतीं, पर मन में एक अधूरी चाह छिपी थी — “काश सुरेश की भी शादी हो जाए, तो घर में फिर से रौनक लौट आए।”
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एक दिन पंडित जी रिश्ता लेकर आए
“माया बहन, सुरेश के लिए बहुत अच्छा रिश्ता लाया हूं — लड़की बीए पास है, नाम नेहा है।
शहर में रहती है, पर संस्कारी है। पिता पोस्ट ऑफिस में क्लर्क हैं।”
माया देवी ने झट हामी भर दी।
सुरेश भी शहर में नौकरी करता था, तो उसने कहा,
“माँ, आप जैसा ठीक समझें, मुझे मंजूर है।”
देखते ही देखते रिश्ता पक्का हो गया और दो महीने के भीतर शादी की तैयारियाँ शुरू हो गईं।
गाँव में खूब धूमधाम से शादी हुई। बैंड-बाजा, बाराती और रिश्तेदारों की भीड़ —
हर कोई कह रहा था, “माया देवी को अब चैन की जिंदगी मिल जाएगी।”
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शादी के बाद की शुरुआत...
शुरू के कुछ दिन तो बहुत अच्छे गुज़रे।
नेहा सुबह-सुबह उठती, सास के साथ मंदिर जाती, सबका खाना बनाती।
माया देवी सोचतीं — “वाह, शहर की लड़की है पर संस्कार गजब के हैं।”
पर वक्त बीतते ही नेहा का असली रंग दिखने लगा।
अब वह देर से उठने लगी, सास से बहाने बनाने लगी।
“माँ जी, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं।”
“माँ जी, मेरा सिर दर्द कर रहा है।”
धीरे-धीरे घर का सारा काम फिर से कविता के सिर पर आ गया।
राकेश कुछ नहीं कहता था, पर कविता का चेहरा सब कह देता था।
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एक दिन माया देवी ने कहा –
“नेहा बेटा, कल से तुम भी थोड़ा-बहुत काम में हाथ बंटा दो।
कविता भी थक जाती है, और आखिर घर सबका है।”
नेहा बोली —
“माँ जी, मैं शहर की लड़की हूं। मुझे झाड़ू-पोछा नहीं आता।
और वैसे भी मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, एम.ए. करना है।”
माया देवी थोड़ा चौंकीं — “बेटा, शादी के बाद और पढ़ाई?”
“हाँ माँ जी, मेरे मम्मी-पापा भी यही चाहते हैं कि मैं आगे बढ़ूं।”
नेहा ने साफ-साफ कह दिया।
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धीरे-धीरे रिश्तों में दूरी आने लगी...
अब घर में दो बहुएँ थीं —
एक कविता, जो सबका ध्यान रखती थी,
और दूसरी नेहा, जो अपने फोन और किताबों में खोई रहती थी।
सुरेश को अपनी पत्नी से कोई शिकायत नहीं थी।
वह सोचता — “आजकल की लड़कियाँ पढ़ी-लिखी हैं, घर का काम तो मम्मी और भाभी कर ही लेती हैं।”
माया देवी ये सब देखतीं, पर चुप रहतीं।
उनका मन बस यही सोचता —
“कहां एक जैसी दो बेटियाँ मिलीं, एक सीता सी, दूसरी बिल्कुल मिर्ची!”
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समय बीतता गया...
छह महीने बाद माया देवी की तबीयत खराब रहने लगी।
उन्हें हल्का बुखार, कमजोरी और खांसी हो गई।
डॉक्टर ने कहा — “थोड़ा आराम चाहिए।”
कविता ने सास की सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ी।
रात को दवा देना, पैर दबाना, खाना खिलाना —
सब खुद करती, यहाँ तक कि अपने छोटे बेटे को भी सास के कमरे में सुला देती।
नेहा बस पूछ लेती —
“माँ जी, अब ठीक हैं ना? मैं तो कोचिंग जा रही हूँ।”
और फिर निकल जाती।
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एक दिन सुरेश ने देखा...
वह छुट्टी लेकर घर आया।
देखा कि माँ खाट पर पड़ी हैं और भाभी कविता उनके पांव दबा रही है।
“नेहा कहाँ है?” उसने पूछा।
“क्लास गई है बेटा।”
माया देवी ने धीरे से कहा।
सुरेश ने सोचा कि शायद भाभी बढ़ा-चढ़ा कर बोल रही हैं,
पर शाम को जब नेहा लौटी तो उसने सास की तरफ देखा तक नहीं।
“माँ जी, मेरी असाइनमेंट जमा करनी है, बाद में बात करती हूं।”
उस रात सुरेश बहुत देर तक सोचता रहा।
सुबह उठते ही उसने नेहा से कहा —
“अगर तुम माँ की सेवा नहीं कर सकती, तो इस घर में तुम्हारी पढ़ाई का कोई मतलब नहीं।”
नेहा चुप हो गई। पहली बार उसे लगा कि शायद उसने गलती की है।
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एक दिन माया देवी बाथरूम में गिर पड़ीं।
घुटने में फ्रैक्चर हो गया।
अब तो पूरा घर अस्त-व्यस्त हो गया।
कविता दिन-रात सास की सेवा में लग गई।
सुरेश दफ्तर से छुट्टी लेकर माँ के पास बैठने लगा।
राकेश दुकान से जल्दी घर लौट आता।
और नेहा?
वह अब खुद को बिल्कुल अलग-थलग महसूस करने लगी थी।
उसे एहसास होने लगा कि सब उसे गलत समझ रहे हैं।
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एक दिन रात को जब सब सो गए थे,
नेहा धीरे से माया देवी के कमरे में गई।
वह उनके पांव दबाने लगी।
माया देवी ने आंखें खोलीं — “कौन?”
“मैं हूं माँ जी… माफ कर दीजिए। मैंने आपको कभी माँ नहीं समझा।
बस अपना स्वार्थ देखा… लेकिन अब नहीं। अब मैं आपकी सेवा करूंगी।”
माया देवी की आंखों में आँसू आ गए।
उन्होंने नेहा का हाथ पकड़कर कहा —
“बेटा, सास और बहू का रिश्ता अगर ‘माँ-बेटी’ जैसा हो जाए,
तो घर स्वर्ग बन जाता है।”
उस रात के बाद सब बदल गया।
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नेहा अब सबकी लाडली
अब वह सुबह सबसे पहले माया देवी के लिए दूध गर्म करती,
कविता के साथ मिलकर घर का काम करती,
यहाँ तक कि खेत में भी सास के साथ जाती।
कविता को भी लगा कि उसकी देवरानी सच में बदल गई है।
दोनों के बीच बहन जैसा प्यार हो गया।
सुरेश भी अब अपनी पत्नी पर गर्व महसूस करता था।
माया देवी के चेहरे पर वो पुरानी चमक लौट आई थी।
एक दिन माया देवी ने दोनों बहुओं को पास बुलाया।
कहा —
“कविता, तूने मेरे बुढ़ापे को सहारा दिया,
और नेहा, तूने मेरी उम्मीदों को फिर से जिंदा किया।
अब मुझे लगता है कि तेरे ससुर की आत्मा सच में स्वर्ग में मुस्कुरा रही होगी।”
दोनों बहुएँ उनकी गोद में सिर रखकर रो पड़ीं।
घर में शांति, प्यार और
अपनापन लौट आया।
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संदेश:
रिश्ते खून से नहीं, अपनापन और जिम्मेदारी से बनते हैं।
अगर हर बहू अपनी सास को माँ समझ ले और हर सास बहू को बेटी —
तो कोई घर कभी बिखर नहीं सकता। ❤️

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