❛ मां का आँगन ❜
सावित्री देवी आज बहुत खुश थीं। बरसों बाद उनका घर फिर से हंसी खुशी से भरने वाला था।
कारण भी खास था — उनके दोनों बेटे, विवेक और अमन, अपने-अपने परिवारों के साथ अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से वापस आ रहे थे।
पिछले चार सालों से दोनों सिर्फ वीडियो कॉल पर ही बात करते थे।
इस बार उन्होंने साफ कहा था —
“मां, इस दिवाली पर हम सब मिलकर घर सजाएंगे।”
यह सुनकर सावित्री देवी के चेहरे पर जैसे फिर से जवानी लौट आई थी।
वह 68 वर्ष की थीं, पर जोश किसी 25 साल की लड़की जैसा था।
पूरा घर उन्होंने चमका दिया था। दीवारों पर नए रंग, फर्श पर चमचमाती टाइलें, और हर कमरे में ताज़ा गेंदा और मोगरे के फूल।
आँगन में तुलसी के पास दीया सजाकर उन्होंने कहा —
“यही तो असली सुख है, जब अपने आसपास अपने हों।”
सावित्री देवी के पति का देहांत लगभग 10 साल पहले हो चुका था।
तब से वह अकेले ही इस बड़े से पुश्तैनी घर को संभाल रही थीं।
नीचे वह खुद रहती थीं, और ऊपर किराए पर एक युवा जोड़ा — रवि और मीना — अपने दो छोटे बच्चों के साथ।
बच्चों की खिलखिलाहट और “दादी, दादी” की आवाजें उनके अकेलेपन को भर देती थीं।
उन्हें बच्चों की हर शैतानी प्यारी लगती थी।
दो दिन बाद बेटे आ गए।
सावित्री देवी की आंखें नम हो गईं —
“मेरे बच्चे कितने बदल गए हैं, पर गले लगाने पर वही पुराने लगते हैं।”
पूरे मोहल्ले में मिठाइयाँ बंटी, घर में रोशनी, और हंसी का माहौल था।
तीनों परिवार ने मिलकर दिवाली मनाई।
आँगन में दीयों की कतारें, छत पर चमकती झालरें — जैसे घर ही नहीं, मां का दिल रोशन हो गया हो।
लेकिन त्योहार के अगले दिन माहौल थोड़ा बदल गया।
विवेक और अमन ने मां से कहा —
“मां, अब आपको इतनी बड़ी हवेली में अकेले नहीं रहना चाहिए।
हम सोच रहे हैं कि ये मकान बेच देते हैं और किसी अच्छी सोसाइटी में आपके लिए छोटा सा फ्लैट ले लेते हैं।”
सावित्री देवी मुस्कुराईं —
“पर बेटा, यह तो तुम्हारे पिता का घर है। यहां तुम्हारे बचपन की हर आवाज़ बसती है।”
विवेक ने समझाने की कोशिश की —
“मां, अब ज़माना बदल गया है। बड़ा मकान संभालना मुश्किल है।
हम दोनों दूर रहते हैं, तो हमें भी चिंता रहती है।”
सावित्री देवी का चेहरा धीरे-धीरे उतर गया।
उन्होंने कहा —
“यह मकान मेरे लिए ईंट-पत्थर नहीं है, मेरे जीने का सहारा है।
इस आँगन में तुम्हारी पहली मुस्कान, पहली चोट, पहली पढ़ाई की यादें हैं।
क्या मैं अपनी यादों को बेच दूं?”
बेटों ने एक-दूसरे की ओर देखा, फिर बात वहीं छोड़ दी।
रात को सभी अपने-अपने कमरों में चले गए।
सावित्री देवी की आंखों में नींद नहीं थी।
वह बरामदे में बैठी पुराने दिनों की यादों में खोई थीं।
अचानक ऊपर से कुछ हल्की आवाज़ें आईं।
वह धीरे से सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर गईं।
वहां कमरे से विवेक और अमन की बातें सुनाई दे रही थीं।
विवेक कह रहा था —
“भाई, अगर ये मकान बिक जाए तो हमें दोनों को अच्छा खासा पैसा मिलेगा।
मां तो यहां बस यादों में जी रही हैं। हमें तो अपने बच्चों का भविष्य देखना है।”
अमन बोला —
“हां, पर मां नहीं मानेगी।
शायद हमें चालाकी से काम लेना पड़ेगा,
पहले कागज़ अपने पास करवा लेते हैं, फिर देखते हैं।”
सावित्री देवी के कदम रुक गए।
उनका सीना जैसे भारी हो गया।
जो आवाजें अभी तक लोरियों जैसी लगती थीं, अब वही तीर बनकर दिल में उतर गईं।
वह बिना कुछ बोले नीचे लौट आईं।
रातभर रोती रहीं —
“क्या मेरे ही बच्चे मुझे बेचने की बात कर रहे हैं?”
सुबह जब दोनों बेटे नाश्ते के लिए नीचे आए,
सावित्री देवी पहले से ही बैठी थीं — शांत, पर कठोर निगाहों से।
उन्होंने कहा —
“रात को मैंने सब सुन लिया।
तुम लोग मेरी चिंता नहीं, मेरी संपत्ति की चिंता कर रहे थे।”
दोनों बेटे सन्न रह गए।
“तुम लोग भूल गए कि यह घर सिर्फ दीवारें नहीं, तुम्हारी परवरिश की गवाही है।
मैंने इस घर को अपने आंसुओं से सींचा है।
और तुम इसे पैसों में तोलना चाहते हो?”
विवेक रोने लगा —
“मां, गलती हो गई… हमसे…”
अमन बोला —
“हम बस सोच रहे थे कि आपको आराम मिल जाए…”
सावित्री देवी ने दृढ़ स्वर में कहा —
“आराम पैसों से नहीं, अपनेपन से मिलता है।
तुम्हें अपने बच्चों के लिए घर चाहिए,
और मुझे अपने बच्चों के लिए यही घर चाहिए।”
फिर उन्होंने दोनों को देखा और बोलीं —
“अब तुम दोनों वापस अपने-अपने घर लौट जाओ।
मेरा घर, मेरी यादें — मेरे पास ही रहेंगी।”
दोनों बेटे शर्मिंदा होकर चले गए।
सावित्री देवी ने उनकी जाती गाड़ियों को बरामदे से देखा,
फिर मुस्कुराईं —
आँगन में तुलसी के पास जाकर दीया जलाया और बोलीं —
“भगवान, मेरे बच्चों को समझ दो।
मुझे तो बस इतना आशीर्वाद देना कि
जब तक सांस है
, इस घर की रौशनी बनी रहूं।”
सूरज की पहली किरण आँगन में पड़ी,
और सावित्री देवी का चेहरा उस दीये की लौ की तरह चमक उठा।

Post a Comment