❝ अपना घर ❞
सुबह का वक्त था। शर्मा परिवार के बड़े से आँगन में तुलसी के पौधे के पास धूप की सुनहरी किरणें पड़ रही थी।
घर में हर तरफ हँसी और आवाज़ों का शोर था — बच्चे स्कूल की तैयारी में, ताईजी पूजा में, और दादी जी दूध वाले से बहस में लगी हुई थीं।
आज घर में नया जोड़ा भी था — आरव और सिया।
पिछले हफ्ते ही दोनों की शादी हुई थी। सिया पहली बार इतने बड़े संयुक्त परिवार में आई थी।
आरव के पापा, मम्मी, दादा-दादी, दो चाचा, दो चाची और पाँच बच्चे — पूरा भरा-पूरा घर था।
शादी के बाद से सिया सबका मन जीतने की कोशिश कर रही थी। वो सबके लिए मुस्कुराकर काम करती, सबको “नमस्ते” कहती, और छोटी-छोटी बातों में भी अपनापन दिखाती।
पर आज सुबह अचानक उसकी सास सुमित्रा जी ने कहा —
> “सिया बेटा, एक काम करो… तुम ऊपर वाले हिस्से में अपनी छोटी-सी रसोई बना लो। वहाँ सब सुविधाएँ हैं। धीरे-धीरे तुम अपना खाना-वाना वहाँ बना लिया करो।”
सिया हैरान रह गई।
उसने धीमे स्वर में पूछा —
> “माँ जी, क्या मुझसे कोई गलती हो गई है? मैंने कुछ गलत किया क्या?”
सुमित्रा जी मुस्कराईं, पर उनकी मुस्कान में कुछ झिझक थी।
> “नहीं बेटा, गलती नहीं की तुमने। बस मैं सोचती हूँ कि आजकल बड़े घरों में ज्यादा लोग हों तो बातें बढ़ जाती हैं। अगर हम शुरू से ही थोड़ा अलग रहेंगे तो झगड़े की नौबत नहीं आएगी।”
सिया कुछ पल चुप रही, फिर बोली —
> “माँ जी, लेकिन झगड़ा तभी होता है जब दिलों में दूरी होती है, दीवारों से नहीं।”
उसकी बात सुनकर सबकी नज़रें उस पर टिक गईं।
सिया ने धीरे से कहा —
> “मैंने बचपन से ही देखा है माँ जी, मेरा घर छोटा था… मम्मी, पापा और मैं। पर मम्मी अक्सर कहती थीं — ‘बड़ा घर, बड़ा दिल होता है’। मैं हमेशा सोचती थी कि कभी ऐसा घर मिले जहाँ सब साथ रहें, साथ हँसें, साथ खाएँ। और अब जब मुझे वो घर मिला है, तो मैं उसे छोड़ना नहीं चाहती।”
आरव भी पास बैठा था। उसने कहा —
> “माँ, सिया सच कह रही है। हम सब साथ रहेंगे तो और मज़ा आएगा। आप तो सबकी धुरी हैं, और हम सब आपके चारों तरफ घूमते हैं।”
सुमित्रा जी ने गहरी साँस ली —
> “बेटा, तुम्हारी बातें बहुत अच्छी हैं, पर मैंने बहुत घर टूटते देखे हैं। कई बहुएँ थोड़ी बात में रूठ जाती हैं, सास कुछ कह दे तो बेटे को बीच में फँसा देती हैं। फिर घर का माहौल बिगड़ जाता है।”
सिया मुस्कराई —
> “माँ जी, अगर सास बहू दोनों थोड़ा झुक जाएँ, तो रिश्ता टूटता नहीं, और घर भी बिखरता नहीं।
अगर आप मुझे डाँटेंगी भी, तो मैं यही सोचूँगी कि मेरी माँ भी तो मुझे डाँटती थीं। फर्क सिर्फ इतना है कि अब मेरी दो माँ हैं।”
ये सुनकर सबकी आँखें भर आईं।
दादी जी ने हँसते हुए कहा —
> “अरे बहू, तू तो घर की लक्ष्मी है। आजकल की लड़कियाँ तो शादी के बाद दिन गिनती हैं अलग होने के। और तू कह रही है साथ रहना चाहती हूँ!”
सिया झेंप गई और बोली —
> “दादी, मुझे लगता है घर तभी घर होता है जब उसमें सबकी हँसी गूँजे।
अगर हम सब साथ रहेंगे तो हर दिन त्योहार जैसा होगा।”
उसी वक्त सुमित्रा जी ने प्यार से सिया का सिर थपथपाया —
> “ठीक है बहू, ऊपर कोई रसोई नहीं बनेगी।
तू नीचे ही रहेगी, हमारे बीच… हमारे दिल में।”
आरव ने खुश होकर कहा —
> “बस माँ, यही हुआ ना सही फैसला!”
सिया मुस्कराते हुए बोली —
> “अब बताइए माँ, आज की चाय मैं बनाऊँ?”
सुमित्रा जी ने मज़ाक में कहा —
> “हाँ हाँ, जा बहू, लेकिन ध्यान रहे — चाय में प्यार ज्यादा और चीनी कम डालना।”
पूरा परिवार हँस पड़ा।
घर में फिर से वही पुराना रौनक-भरा माहौल लौट आया था।
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उस दिन के बाद सुमित्रा जी अक्सर कहा करतीं —
> “घर बड़ा दीवारों से नहीं, दिलों से बनता है।
और बहू अगर बेटी जैसी हो, तो घर कभी नहीं टूटता।”
सिया ने सबको
ये सिखा दिया था —
कि आधुनिकता का मतलब परिवार से दूर जाना नहीं,
बल्कि पुराने रिश्तों को नए नजरिए से निभाना है। ❤️

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