❝ माँ की चादर ❞
आज सुबह जब मैंने अलमारी खोली तो ऊपर वाले खाने से एक पुरानी, हल्की नीली चादर नीचे गिर पड़ी।
थोड़ी धूल लगी थी उस पर, पर जैसे ही मैंने उसे उठाया… एक जानी-पहचानी खुशबू आई —
माँ की।
माँ को गए पूरे आठ साल हो गए हैं, लेकिन उस चादर में आज भी वही महक है जो माँ के आँचल में होती थी —
मीठी, सुकून देने वाली, और थोड़ी-सी आँसुओं में भीगी हुई।
मैं कुछ देर तक उसी चादर को गोद में रखकर बैठी रही।
सुबह का वक्त था, बच्चे स्कूल जा चुके थे, और पति ऑफिस निकल चुके थे।
घर में बस दीवार घड़ी की टिक-टिक और मेरी साँसों की आवाज़ रह गई थी।
धीरे-धीरे मन किसी पुराने अल्बम की तरह खुलने लगा…
और मैं पहुँच गई अपने बचपन के दिनों में।
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बचपन का घर...
हमारा घर छोटा था, लेकिन माँ की हँसी से बड़ा लगता था।
दीवारों पर नीले रंग का पुराना पेंट उखड़ चुका था, पर माँ रोज़ सुबह झाड़ू लगाते वक्त गुनगुनाती थी —
"आज फिर जीने की तमन्ना है..."
हम तीन भाई-बहन थे।
मैं सबसे बड़ी, फिर दीपू और सबसे छोटी मीनू।
पापा शहर के डाकघर में काम करते थे, सुबह सात बजे घर से निकल जाते और शाम को लाल झोला लेकर लौटते।
माँ पूरे दिन एक मशीन की तरह काम करती —
कभी रसोई में, कभी आँगन में, कभी दादी की दवाई के लिए।
पर चेहरे पर कभी थकान नहीं दिखी।
हम सोचते, माँ के पास क्या कोई जादू है?
हर शाम जब हम स्कूल से लौटते, तो माँ दरवाज़े पर ही खड़ी मिलती —
हाथ में थाली और चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान।
“हाथ धो लो बेटा, गरम रोटी रखी है,”
वह कहती, और हमें लगता, इस दुनिया में कोई भूखा नहीं रह सकता अगर सबकी माँ ऐसी हो।
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समय उड़ता गया।
स्कूल खत्म हुआ, कॉलेज शुरू हुआ।
अब माँ हर सुबह मेरा डिब्बा बनाते हुए थोड़ा थकने लगी थी।
बालों में सफेदी दिखने लगी थी, पर वह बोलती —
“अरे! ये तो हल्दी का असर है, उम्र का नहीं।”
मैं हँस देती थी।
फिर कॉलेज खत्म हुआ और नौकरी की तलाश शुरू।
घर में शादी की बातें भी चलने लगीं।
माँ हर बार कहती —
“बेटी, शादी के बाद ससुराल में कभी सिर झुकाना मत, पर ज़ुबान भी ऊँची मत करना।
घर बनाने के लिए दिल चाहिए, ताकत नहीं।”
मुझे आज भी वो बात याद है।
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मेरी शादी दीपक से हुई — एक सरकारी स्कूल के शिक्षक।
बहुत सीधी-सादी ज़िंदगी थी।
पहले-पहले हर चीज़ नई लगती थी — साड़ी, गहना, घर, लोग...
फिर धीरे-धीरे सब रूटीन हो गया।
मैं हर महीने मायके जाती, माँ को देखती,
तो लगता जैसे वो अब पहले से और छोटी हो गई है,
पर आँखों में वही चमक रहती थी।
एक दिन जब मैं मायके पहुँची, तो माँ खाँस रही थी।
मैंने कहा — “माँ, डॉक्टर को दिखा दो।”
वो बोली — “अरे बेटा, ये तो बस पुरानी खाँसी है।”
पर उस “पुरानी खाँसी” ने ज्यादा दिन नहीं छोड़ा…
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आखिरी दोपहर...
माँ अस्पताल में थी।
कमरे में दवाई की गंध, मशीनों की आवाज़ और माँ की धीमी साँसें।
मैं उनके पास बैठी थी, उनका हाथ पकड़े हुए।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
“बेटी, अब तू थक गई होगी, घर जा के आराम कर ले।”
मैंने कहा — “माँ, अब मैं कहीं नहीं जाऊँगी।”
वो बोलीं —
“माँ को तो जाना ही होता है बेटी…
पर जब कभी बहुत थक जाए न,
तो मेरी चादर ओढ़ लेना… उसमें सुकून मिलेगा।”
उस रात माँ चली गईं।
और उनके साथ घर की रौनक, खुशबू, और मेरा बचपन भी।
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आज का दिन...
आज आठ साल बाद, वही चादर मेरे हाथों में है।
मैंने उसे अपने सिर पर ओढ़ लिया,
जैसे माँ का आँचल हो।
आँखें बंद कीं तो लगा, माँ ठीक मेरे सामने बैठी हैं —
मुस्कुरा रही हैं, कह रही हैं —
“थक गई होगी बेटी, थोड़ा आराम कर ले…”
मुझे समझ आ गया कि माँ कहीं नहीं जाती।
वो रहती है —
हमारी आदतों में, हमारे बच्चों की मुस्कान में,
और उन पुरानी चीज़ों में जो अब सिर्फ याद बन चुकी हैं।
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अंत...
चाय की केतली सीटी मार रही थी।
मैं उठी, रसोई
में गई,
और सोचा —
अब मेरी बारी है किसी की माँ बनने की…
किसी के लिए वो चादर बनने की,
जो सुकून देती है, पर शिकायत नहीं करती।

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