❝ आख़िरी खत ❞
🩶 अध्याय 1: “पापा, मैं थक गई हूँ...”
संध्या का समय था।
सूरज ढल चुका था, और आकाश में हल्का नारंगी रंग तैर रहा था।
रवि शर्मा अपने पुराने लकड़ी के झूले पर बैठे अख़बार पढ़ रहे थे।
सफेद दाढ़ी, झुर्रियों से ढका चेहरा और गहरी, शांत आँखें — सब मिलकर उन्हें एक थके हुए, फिर भी कठोर पिता की छवि देते थे।
इतने में दरवाज़ा खुला और भीतर आई उनकी बेटी आर्या,
थोड़ी हिचकिचाई हुई, थकी हुई, आँखों में उलझन और होठों पर बस एक ही शब्द —
“पापा...”
रवि ने अख़बार नीचे रखा, चश्मा उतारा और बोले,
“कहो, क्या बात है? फिर नौकरी से झगड़ा हुआ क्या?”
आर्या ने धीमी आवाज़ में कहा,
“पापा, मैं थक गई हूँ... इस सब से।
ऑफिस का दबाव, समाज की बातें, आपकी डांटें, और ये अकेलापन... सब भारी हो गया है।”
रवि ने बिना उसकी ओर देखे कहा,
“थकान तो हर किसी को होती है, आर्या। लेकिन भाग जाना कोई हल नहीं होता।
तुम्हारी माँ भी अगर थक जाती, तो क्या मुझे छोड़कर चली जाती?”
आर्या चुप रही।
कमरे में घड़ी की टिक-टिक आवाज़ गूंज रही थी।
थोड़ी देर बाद आर्या ने कहा,
“पापा, मैंने एक लड़के से बात की है... वो मुझे समझता है, और... मैं उससे शादी करना चाहती हूँ।”
रवि का चेहरा बदल गया।
उन्होंने गहरी सांस ली और कहा,
“नाम क्या है उस लड़के का?”
“आदित्य,” आर्या ने झिझकते हुए कहा,
“वो बहुत अच्छा है पापा। वह मेरे साथ खुश रहेगा, और—”
रवि ने बीच में ही टोक दिया,
“कितने महीने से जानती हो उसे?”
“छह महीने,” आर्या ने कहा।
“बस! छह महीने में तुम्हें किसी का पूरा जीवन दिखाई दे गया?”
रवि की आवाज़ कठोर हो गई।
“आर्या, ये बचपना नहीं है। शादी कोई खेल नहीं। तुम मेरी इकलौती बेटी हो, और मैं तुम्हें किसी अजनबी को नहीं सौंप सकता।”
आर्या की आँखों में आँसू भर आए।
“पापा, वो अजनबी नहीं है। वो मुझे आपसे ज़्यादा समझता है!”
यह सुनकर रवि का दिल काँप उठा।
लेकिन चेहरे पर सख्ती बनी रही।
“अगर ऐसा ही है, तो मेरे घर में तुम्हारे लिए जगह नहीं है।”
उन्होंने खड़े होकर कहा,
“जब तुम्हें पिता की समझ से ज़्यादा किसी गैर की समझ चाहिए, तो वही संभाले तुम्हें।”
आर्या चुपचाप अपने कमरे में गई, अपना छोटा सा बैग उठाया,
और बिना पीछे देखे घर से निकल गई।
दरवाज़ा बंद हुआ, और पहली बार रवि शर्मा की आँखों से एक बूंद गिर पड़ी।
उन्होंने धीरे से कहा,
“जाओ बेटा... पर याद रखना, ये घर हमेशा तुम्हारा रहेगा — बस तुम्हारी जिद ने मुझे दूर कर दिया।”
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💬 आगे क्या होगा?
अगले अध्याय में आर्या की शादी, उसके संघर्ष और उस
के निर्णयों का सच सामने आएगा —
और रवि शर्मा का अकेलापन बढ़ेगा।
अध्याय 2: “आदित्य का सच”
रात के बारह बज चुके थे।
शहर की सड़कों पर बस कुछ गाड़ियाँ गुज़र रही थीं।
एक छोटे से मंदिर के सामने खड़ी टैक्सी से आर्या उतरी, उसके चेहरे पर आँसू सूख चुके थे, पर भीतर का तूफ़ान थमा नहीं था।
उसके हाथ में बस एक बैग था —
कुछ कपड़े, कुछ पुराने फोटो, और एक छोटा फ्रेम जिसमें उसकी और उसके पापा की तस्वीर थी।
पापा का चेहरा गुस्से से तना हुआ, और आर्या की मुस्कान — अब बस याद बनकर रह गई थी।
आदित्य वहीं मंदिर के पास इंतज़ार कर रहा था।
सूट पहने, होंठों पर बनावटी मुस्कान लिए उसने कहा,
“आर्या, आखिरकार तुम आ गईं! चलो, देर हो रही है — पंडित जी इंतज़ार कर रहे हैं।”
आर्या ने एक पल ठहरकर आसमान की ओर देखा।
उसे लगा जैसे पापा की नज़रों में अभी भी वही डांट, वही सख्ती, वही चुप्पी है।
लेकिन आज उसने अपने दिल की सुनने की ठानी थी।
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शादी की रात...
छोटे से मंदिर में दो गवाह थे —
पंडित जी और एक अजनबी जो शायद आदित्य का दोस्त था।
आर्या ने कांपते हाथों से मंगलसूत्र पहना, और आदित्य ने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“अब तुम मेरी हो।”
उस पल आर्या को लगा, शायद यही प्रेम है —
जहाँ डर भी हो, और सुकून भी।
शादी के बाद दोनों ने एक छोटे से किराए के मकान में रहना शुरू किया।
शुरू के कुछ हफ्ते बहुत अच्छे बीते।
आर्या सुबह उठकर खाना बनाती, आदित्य ऑफिस जाने का बहाना करता।
वो एक-दूसरे के साथ फिल्में देखते, बातें करते, और आर्या सोचती —
“पापा गलत थे... आदित्य अच्छा है।”
लेकिन समय के साथ बातें बदलने लगीं।
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💔 आदित्य का असली चेहरा...
एक शाम आदित्य नशे में धुत होकर घर आया।
दरवाज़ा खोलते ही उसने गुस्से से कहा,
“कहाँ है मेरा फोन? किससे बात कर रही थी तुम?”
आर्या हक्का-बक्का रह गई।
“मैं किसी से नहीं—”
वह कुछ कहती उससे पहले आदित्य ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया,
“मुझसे झूठ मत बोलो! तुम जैसी लड़कियाँ प्यार नहीं, पैसा ढूंढती हैं!”
आर्या डर के मारे रोने लगी।
वह चुपचाप कमरे में चली गई।
उस रात पहली बार उसने अपने पापा की कही बातें याद कीं।
वो गुस्से में नहीं थे, वो डरे हुए थे — अपनी बेटी के लिए।
कुछ दिनों बाद आदित्य ने नौकरी छोड़ दी।
उसने आर्या से कहा,
“तुम कमाती हो, तो खर्च भी तुम ही संभालो। मैं बिजनेस शुरू करूंगा।”
आर्या दिन-रात मेहनत करती रही,
कभी ऑफिस में, कभी घर में —
और आदित्य हर दिन और ज़्यादा शराब में डूबता गया।
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टूटता रिश्ता...
छह महीने बाद आर्या गर्भवती हुई।
जब उसने यह खुशखबरी आदित्य को बताई,
तो वह हँस पड़ा,
“क्या? बच्चा? अब और बोझ चाहिए मुझे? तुम खुद अपनी ज़िंदगी संभाल नहीं पा रही, और अब माँ बनने चली हो?”
आर्या ने पहली बार उसका विरोध किया,
“ये बच्चा मेरा है, चाहे तुम चाहो या न चाहो!”
आदित्य ने उस दिन कुछ नहीं कहा,
लेकिन रात में चुपचाप अपना बैग उठाया और चला गया।
सुबह दरवाज़े पर एक नोट था —
“मुझे आज़ादी चाहिए, आर्या। मैं किसी के बंधन में नहीं रह सकता।”
बस इतना ही लिखा था।
आर्या ने उस दिन पूरा दिन रोते हुए बिताया।
पर रात को, जब उसने पेट पर हाथ रखा,
तो उसे लगा, अब वह अकेली नहीं है।
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नई सुबह..
समय बीतता गया।
आर्या ने बेटे आरव और बेटी मीरा को जन्म दिया।
शहर में एक छोटे से रेस्टोरेंट में काम करके उसने अपने बच्चों को पाला।
धीरे-धीरे उसने वही रेस्टोरेंट अपने नाम से चलाना शुरू किया —
“आर्या’s Dine”
वो हर दिन अपने बच्चों को कहती,
“हमारा परिवार छोटा है, पर मजबूत है।”
पर जब भी कोई पिता और बेटी को साथ देखता,
उसका दिल भर आता।
कभी-कभी वह रात को चुपके से अपने पापा की तस्वीर देखती,
और फुसफुसाकर कहती —
“पापा, मैं ठीक हूँ... बस, थोड़ी अकेली हूँ।”
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और फिर एक दिन...
एक दोपहर, जब वह रेस्टोरेंट में ग्राहकों को खाना परोस रही थी,
दरवाज़े पर एक बुज़ुर्ग व्यक्ति आए —
ताऊजी।
वो उसे देखकर हैरान रह गईं।
“ताऊजी... आप यहाँ?”
ताऊजी की आँखें नम थीं।
उन्होंने बस इतना कहा,
“आर्या... तुम्हारे पापा अब नहीं रहे।”
थाली उसके हाथ से गिर गई।
आवाज़ गूंजी — और उसके अंदर कुछ
टूट गया।
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अगले अध्याय में —
आर्या अपने पिता की तेरहवीं में जाएगी,
और उसे मिलेगा एक आख़िरी खत,
जिसे पढ़कर उसका दिल बिखर जाएगा।
अध्याय 3:
“वो खत जो ज़िंदगी बदल गया”
बारिश की हल्की बूंदे गिर रही थीं।
आसमान में बादल थे, और हवा में एक गीली सी उदासी।
आर्या ताऊजी के साथ टैक्सी में बैठी अपने पुराने घर की ओर जा रही थी —
वो घर जिसे उसने कई साल पहले छोड़ दिया था।
हर मोड़ पर उसे अपने बचपन की झलक दिख रही थी —
वो सड़क जहाँ वो साइकिल चलाया करती थी,
वो दुकान जहाँ से पापा उसके लिए टॉफी लाया करते थे,
और वो मंदिर जहाँ पापा हर सुबह उसके लिए दिया जलाते थे।
लेकिन आज सब कुछ सूना लग रहा था।
घर पहुँची तो दरवाज़े पर सफेद चादर बिछी थी।
रिश्तेदार, पड़ोसी, सब खामोश थे।
बीच में पापा की तस्वीर रखी थी —
माथे पर हल्का टीका, और होंठों पर वही सख्त लेकिन स्नेहभरी मुस्कान।
आर्या वहीं रुक गई।
उसके होंठ कांपने लगे, आँखें नम हो गईं।
कदम आगे नहीं बढ़े।
ताऊजी ने धीरे से कहा,
“बेटी, आओ... तुम्हारे पापा इंतज़ार कर रहे हैं। अब तो उनसे कोई नाराज़गी नहीं होनी चाहिए।”
आर्या ने काँपते हुए हाथों से अगरबत्ती जलाई,
और पहली बार पापा की तस्वीर के सामने सिर झुका दिया।
उसकी आँखों से आँसू टपककर चादर पर गिरने लगे।
वो बहुत देर तक वहीं बैठी रही।
न कोई बोला, न कोई कुछ समझा।
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तेरहवीं के दिन ताऊजी ने आर्या को एक पुराना लिफाफा दिया।
उस पर लिखा था —
“मेरी बिटिया आर्या के नाम”
आर्या के हाथ काँप गए।
ताऊजी ने कहा,
“ये तुम्हारे पापा ने अपने आख़िरी दिनों में लिखा था। बोले थे, ‘मेरी बेटी जब आए, तो उसे देना।’”
आर्या ने लिफाफा खोला।
अंदर एक खत था, और साथ में एक छोटा सा कागज़ —
जिस पर एक बचपन की ड्राइंग थी।
उसमें लिखा था —
“आई लव यू पापा, आप मेरे हीरो हैं।”
और फिर उसने खत पढ़ना शुरू किया...
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खत में लिखा था...
> मेरी प्यारी आर्या,
जब तुम ये खत पढ़ रही होगी, तब मैं शायद कहीं और चला गया होऊँगा —
वहाँ, जहाँ पिता अपनी औलादों की गलतियों पर भी मुस्कुराते हैं।
मुझे पता है, तुम मुझसे नाराज़ थी। और शायद ठीक भी थी।
लेकिन एक पिता को भी कभी-कभी वो करना पड़ता है, जो दिल नहीं चाहता — पर ज़िम्मेदारी चाहती है।
याद है, जब तुम पाँच साल की थी और तुम्हें बुखार आया था?
तुम पूरी रात मेरी गोद में सोई थी, और मैं बस यही सोचता रहा था —
“ईश्वर, अगर उसे कुछ हुआ, तो मुझे भी साथ ले जाना।”
जब तुम्हारी माँ हमें छोड़कर चली गई थी,
मैं टूट गया था, पर तुम्हारे आँसू देखकर खुद को संभाला।
मैं चाहता था, तुम कभी अकेलापन महसूस न करो —
इसलिए खुद को माँ भी बनाया, बाप भी।
तुम्हारी पहली साइकिल याद है? तुम गिर गई थी और तुम्हारे घुटने छिल गए थे।
तुम रो रही थी, और मैंने कहा था — “देखो, पापा ने भी घुटना छिलाया।”
झूठ कहा था मैंने, ताकि तुम मुस्कुरा दो।
तुम्हारी हर हँसी, मेरी दवा थी।
लेकिन जब तुमने कहा कि वो लड़का तुम्हें मुझसे ज़्यादा समझता है,
तो उस दिन मैं पहली बार बीमार हुआ था —
बिना बुखार के, बिना दवा के।
बस एक दर्द था... पिता का।
मैंने उस लड़के के बारे में बहुत कुछ पता किया था।
लोग कहते थे, वह भरोसे के काबिल नहीं है।
पर जब तुम उसके साथ गई, तो मैंने ईश्वर से कहा —
“अगर वो मेरी बेटी को खुश रखे, तो मैं उसकी हर गलती माफ कर दूँगा।”
पर शायद किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।
जब मुझे पता चला कि तुम दो बच्चों के साथ अकेली हो,
मैंने ताऊजी से कहा —
“उसे मत बताना, पर उसकी मदद करते रहना।”
रेस्टोरेंट खोलने के लिए जो पैसे मिले थे न,
वो मैंने ही दिलवाए थे, आर्या।
बस इसलिए कि तुम्हें कभी लगे नहीं कि तुम किसी पर बोझ हो।
मेरे पास अब ज़्यादा वक्त नहीं है,
इसलिए ये खत अधूरा छोड़ रहा हूँ।
अगर कभी दिल से माफ कर सको, तो करना।
तुमने शायद मुझे समझने में देर कर दी —
और मैंने तुम्हें जाने में जल्दबाज़ी कर दी।
शायद इसी को ज़िंदगी कहते हैं —
जब हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन कह नहीं पाते।
हमेशा तुम्हारा,
— तुम्हारा पापा।
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खत के आख़िरी शब्दों पर आर्या की आँखों से आँसू टपकते रहे।
हर शब्द ने जैसे उसके दिल में कील ठोक दी हो।
वो बार-बार कह रही थी —
“पापा, माफ कर दो... माफ कर दो मुझे...”
उसने वही ड्राइंग उठाई —
जिस पर लिखा था “आई लव यू पापा”,
और उसे अपने सीने से लगा लिया।
उस रात आर्या देर तक अपने पापा के कमरे में बैठी रही।
उसी झूले पर, जहाँ रवि शर्मा बैठा करते थे।
झूला हिल रहा था... जैसे हवा में कोई अदृश्य हाथ उसे धीरे-धीरे झुला रहा हो।
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अगले अध्याय में —
पता चलेगा कि उस आख़िरी
खत ने आर्या की ज़िंदगी कैसे बदल दी।
क्या उसने अपने बच्चों को वो कहानी बताई?
या वो चुप रह गई... उसी सन्नाटे में जो उसके पिता छोड़ गए थे।
अध्याय 4:
“सुकून की तलाश”
रात गहरा चुकी थी।
चारों तरफ़ शांति थी — बस दीवार घड़ी की टिक-टिक और हवा की हल्की सरसराहट।
आर्या उसी पुराने झूले पर बैठी थी, जहाँ उसके पापा अख़बार पढ़ा करते थे।
हाथ में था वो खत, जो अब आँसुओं से भीगा हुआ था।
हर पंक्ति जैसे किसी नुकीले काँच की तरह उसकी यादों को काट रही थी।
वो खुद से फुसफुसा रही थी —
“पापा, अगर मैं एक बार रुक जाती... बस एक बार आपसे बात कर लेती...”
पर वक्त किसी को दूसरा मौका नहीं देता।
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सुबह का सन्नाटा..
अगली सुबह सूरज की हल्की किरणें खिड़की से भीतर आईं।
ताऊजी ने दरवाज़ा खटखटाया —
“बेटी, पूजा का समय हो गया है। चलो।”
आर्या ने धीरे से सिर हिलाया और बोली,
“ताऊजी... पापा ने सच में मुझे कभी छोड़ा ही नहीं था, ना?”
ताऊजी मुस्कुराए,
“नहीं बिटिया, वो तुम्हारे हर कदम के पीछे थे।
बस तुम्हें दिखाना नहीं चाहते थे कि वो टूट चुके हैं।
पिता की एक कमजोरी होती है —
वो अपने आँसू अपने बच्चों से छिपा लेते हैं।”
आर्या ने सिर झुका लिया।
वो अपने पापा की तस्वीर के सामने बैठी और कहा,
“पापा, अब मैं भी माँ हूँ...
मैं समझ सकती हूँ कि औलाद के दर्द से बड़ा कोई दर्द नहीं होता।”
---
तेरहवीं के बाद आर्या अपने बच्चों के साथ शहर वापस चली गई।
उसने अपने रेस्टोरेंट के नाम के नीचे एक नई पट्टी लगवाई —
“आर्या’s Dine — In Loving Memory of My Father, Ravi Sharma.”
लोग पूछते,
“ये नाम क्यों जोड़ा?”
वो बस मुस्कुरा देती,
“क्योंकि जो कुछ मैं हूँ, वो उन्हीं की वजह से हूँ।”
वो हर सुबह रेस्टोरेंट खोलने से पहले एक दीपक जलाती और कहती,
“ये आपके लिए है, पापा।”
धीरे-धीरे उसका व्यवसाय बढ़ने लगा।
लोग कहते —
“आर्या जी, आपकी मेहनत काबिल-ए-तारीफ़ है।”
लेकिन उसे मालूम था, मेहनत उसकी है,
पर दुआ पापा की है।
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एक रात उसका बेटा आरव आया और बोला,
“मम्मा, नाना जी कैसे थे?”
आर्या चुप हो गई।
फिर धीरे से बोली,
“वो बहुत सख्त थे, लेकिन बहुत अच्छे भी।
कभी-कभी जो हमें रोकते हैं, वही हमें सबसे ज़्यादा चाहते हैं।”
मीरा ने पूछा,
“तो आप उनसे क्यों नहीं मिलती थीं?”
आर्या ने गहरी सांस ली।
“क्योंकि मैं बचपने में ये समझ नहीं पाई कि सख्ती भी प्यार का दूसरा नाम होती है।”
फिर उसने दोनों बच्चों को सीने से लगाया।
उसके आँसू उनके बालों में खो गए।
“तुम दोनों मुझसे जो चाहो कहो, लेकिन कभी मुझसे दूर मत जाना।”
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अधूरी चिट्ठी..
उस रात, जब बच्चे सो गए,
आर्या ने अपने पापा का खत फिर से पढ़ा।
आख़िरी पंक्ति पर उसकी नज़र ठहर गई —
> “ये खत अधूरा छोड़ रहा हूँ...”
वो सोच में डूब गई —
“पापा का खत अधूरा था... शायद मेरी माफ़ी भी अधूरी है।”
उसने अपनी डायरी निकाली और लिखना शुरू किया:
> “पापा, अब मैं समझती हूँ कि आपकी हर सख्ती के पीछे कितनी मोहब्बत थी।
मैंने सोचा था आप मुझे रोक रहे हैं,
लेकिन असल में आप मुझे गिरने से बचा रहे थे।
आपने कहा था, एक दिन मैं समझूंगी —
हाँ पापा, अब समझ गई हूँ।
बस अफसोस इतना है कि अब आप सुन नहीं सकते।”
उसने वो पन्ना खत के साथ रख दिया।
दो पीढ़ियों के अधूरे शब्द अब एक ही लिफाफे में थे।
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यादों की बारिश...
कई हफ्तों बाद, शहर में जोरदार बारिश हुई।
आर्या रेस्टोरेंट बंद कर घर लौट रही थी।
हवा में वही महक थी —
मिट्टी की, पुरानी यादों की, और उस झूले की जिस पर पापा बैठा करते थे।
वो रुक गई,
आसमान की ओर देखा,
और मुस्कुराई —
“देखिए पापा, आज भी बारिश में आपकी याद आती है।”
उसे लगा जैसे बारिश की हर बूँद कह रही हो —
“माफ़ कर दिया बेटा...”
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लेकिन सुकून?..
दिन बीतते गए।
रेस्टोरेंट चलता रहा, बच्चे बड़े होते गए।
लेकिन आर्या के भीतर एक सन्नाटा था —
जैसे वो अब भी किसी जवाब का इंतज़ार कर रही हो।
हर साल पापा की बरसी पर वो वही खत पढ़ती।
हर बार रोती, हर बार मुस्कुराती,
और हर बार सोचती —
“क्या वो मुझे सच में माफ कर पाए होंगे?”
कोई जवाब नहीं आता।
बस हवा चलती,
और झूला धीरे-धीरे हिलता —
जैसे कोई कह रहा हो,
“प्यार कभी खत्म नहीं होता, बस रूप बदल लेता है।”
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अगले और आख़िरी अध्याय में —
हम देखेंगे कि कैसे आर्या अपने बच्चों को वो अधूरा खत सौंपती है,
और उस पल कहानी अपने सबसे दर्दनाक लेकिन सच्चे अंत पर पहुँचती है।
अध्याय 5:
“अधूरा खत, पूरा प्यार”
(दुखद अंत)
बीस साल बाद...
समय तेज़ी से बीत गया।
रेस्टोरेंट अब शहर का नामी स्थान बन चुका था — “आर्या’s Dine”
अब उसे चलाती थी आर्या की बेटी, मीरा शर्मा।
दीवार पर अब भी वही लकड़ी का फ्रेम टंगा था —
जिसमें आर्या और उसके पिता रवि शर्मा की पुरानी तस्वीर थी।
फोटो के नीचे लिखा था:
> “कुछ रिश्ते उम्र से नहीं, यादों से जिंदा रहते हैं।”
मीरा ने उस तस्वीर पर रोज़ की तरह फूल चढ़ाए,
और माँ के कमरे में आई।
कमरा अब खाली था —
क्योंकि आर्या को गुज़रे हुए तीन दिन हो चुके थे।
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🕯️ अधूरी डायरी...
मीरा ने माँ की पुरानी डायरी उठाई।
उसमें पन्नों के बीच वही लिफाफा रखा था —
जिसमें नानाजी का लिखा “आख़िरी खत” और
माँ का जवाब था।
मीरा ने काँपते हाथों से लिफाफा खोला।
पहले पढ़ा —
> “पापा, अब मैं समझती हूँ...
आपकी सख्ती मेरा कवच थी,
आपकी डांट मेरी हिफ़ाज़त थी...”
मीरा की आँखों में आँसू आ गए।
उसने आगे पढ़ा —
> “आप कहते थे, प्यार दिखाना नहीं चाहिए, निभाना चाहिए।
मैंने देर से सीखा, पर अब अपने बच्चों को वही सिखा रही हूँ।
अगर ईश्वर ने मुझे एक और जन्म दिया,
तो फिर से आपकी वही ज़िद्दी, नादान बेटी बनना चाहूंगी।
— आपकी आर्या।”
मीरा ने धीरे से फुसफुसाया,
“मम्मा... आपने नानाजी को माफ़ किया,
पर खुद को कभी नहीं।”
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आरव कमरे में आया।
“मीरा, चलो — पंडित जी इंतज़ार कर रहे हैं।”
मीरा ने कहा, “बस दो मिनट।”
उसने अलमारी खोली —
वहीं, जहाँ रवि शर्मा अपने पुराने खत रखा करते थे।
नीचे के खांचे में एक छोटा लकड़ी का डिब्बा था।
डिब्बे के अंदर एक पुरानी साइकिल की चाबी थी,
एक फोटो — जिसमें आर्या और रवि शर्मा (नानाजी) झूले पर हँस रहे थे,
और एक नोट —
> “आर्या की साइकिल की चाबी — ताकि जब वो फिर से लौटे, तो उसे डर न लगे।”
मीरा ने वो नोट सीने से लगाया।
“नानाजी... आप सच में कभी गए ही नहीं थे, ना?”
---
अंतिम विदाई...
उस शाम जब आर्या की अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की जा रही थीं,
मीरा ने दोनों खत —
नानाजी का और मम्मा का —
एक साथ जलते दीपक के साथ नदी में बहा दिए।
धीरे-धीरे दोनों चिट्ठियाँ भीगकर दूर चली गईं।
लहरों में घुलते हुए जैसे मिल गईं —
जैसे सालों की दूरियाँ मिट गई हों।
हवा में हल्की बारिश की बूंदें पड़ीं।
मीरा ने आसमान की ओर देखा और कहा,
“अब तो सुकून मिला होगा ना आप दोनों को?”
उसने महसूस किया —
मानो हवा में दो परछाइयाँ मुस्कुरा रही हों।
एक पापा की... और एक बेटी की।
---
कुछ दिन बाद...
रेस्टोरेंट में एक नया फ्रेम लगाया गया।
उस पर लिखा था —
> “प्यार कभी खत्म नहीं होता।
बस एक जगह से दूसरी जगह चला जाता है।”
नीचे लगी थी दो पुरानी ड्रॉइंग —
पहली वो जो आर्या ने बचपन में बनाई थी:
“आई लव यू पापा।”
और दूसरी — मीरा की नई बनाई हुई:
“आई लव यू मम्मा।”
दो पीढ़ियाँ, दो खत, दो प्रेम —
जो अब एक-दूसरे में घुल चुके थे।
---
अंत
रात को रेस्टोरेंट बंद करते वक्त
मीरा ने आख़िरी बार दरवाज़े की लाइट बंद की,
पीछे मुड़कर देखा —
दीवार पर लगी तस्वीर में
जैसे नानाजी और ममा दोनों मुस्कुरा रहे थे।
उसने धीरे से कहा,
“अब तो अधूरा कुछ नहीं रहा...”
हवा चली, झूला हिला,
और चाँदनी में जैसे किसी ने कहा —
> “हाँ बेटा... अब सब पूरा हो गया।”
💔 समाप्त।





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