❝ माँ का चश्मा ❞
सुबह के आठ बज चुके थे।
रसोई से बर्तनों की खनखनाहट और गैस पर चढ़े तवे की सोंधी खुशबू पूरे घर में फैल रही थी।
"माँ, चाय कहाँ रखी है?" — रीना ने तेज़ आवाज़ में कहा।
अंदर कमरे से एक धीमी, कांपती सी आवाज़ आई —
"टेबल पर ही रखी है बिटिया, दवाई के पास।"
रीना थककर बोली,
"माँ, आप कुछ भी सही जगह नहीं रखतीं। कल भी दही फ्रिज में नहीं, डाइनिंग पर ही छोड़ दिया था।"
माँ मुस्कुरा दीं —
"बेटा, आँखों का चश्मा टूटा है, सब धुंधला दिखता है, अब तो बस टटोल-टटोल के काम करती हूँ।"
रीना ने चाय कप में डालते हुए कहा,
"तो बनवा लो नया चश्मा। कितने दिन हो गए बोलते हुए!"
"हां, सोचा तो था, लेकिन तुम्हारा ऑफिस, बच्चों की ट्यूशन… सो टल गया बेटा।"
माँ धीरे से बोलीं।
घर में तीन पीढ़ियाँ थीं —
माँ, रीना और उसके दो बच्चे — आरव और पायल।
पति विनोद बाहर शहर में जॉब करते थे। महीने में एक बार ही आते।
रीना नौकरी भी करती थी और घर भी संभालती थी।
दिन के सारे कामों में वह इतनी उलझी रहती कि माँ की बातें अब उसे “बोझ” लगने लगी थीं।
एक दिन…
सुबह-सुबह माँ पूजा कर रही थीं।
आरव स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था। तभी वह चिल्लाया —
"दादी! मेरा टिफिन कहाँ है?"
"बेटा, मैंने डिब्बा तो तैयार रखा था, पर अब धुंधला-सा दिख रहा है… देख न, वहाँ प्लेटों के पास होगा।"
"दादी! आपको कुछ भी ठीक से नहीं दिखता, सब गड़बड़ करती हैं!" — आरव गुस्से में बोला।
रीना ने भी सुन लिया।
वह रसोई से निकली और बोली,
"माँ, आपसे अब कुछ होता नहीं। मैं देखती हूँ।"
माँ चुप रहीं।
उनकी आंखों में पानी भर आया।
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दोपहर में...
रीना ऑफिस चली गई थी।
माँ अकेली कमरे में बैठी थीं।
टेबल पर टूटा हुआ चश्मा रखा था।
धीरे-धीरे उन्होंने सुई में धागा डालने की कोशिश की — पर आंखें साथ नहीं दे रहीं थीं।
तभी डोरबेल बजी।
डाकिया था। उसने एक लिफाफा दिया।
“रीना श्रीवास्तव के नाम…”
माँ ने कहा, “बेटी ऑफिस गई है, मैं उसकी माँ हूँ, दे दो बेटा।”
लिफाफे पर लिखा था — “सेवानिवृत्ति सम्मान समारोह”
रीना को उसकी कंपनी से बेस्ट एम्प्लॉयी का अवॉर्ड मिलने वाला था।
माँ खुश हो गईं।
उन्होंने सोचा — “आज तो रीना को सरप्राइज़ दूँगी।”
शाम को…
रीना थकी-हारी घर लौटी।
माँ ने मुस्कुराकर कहा —
“बेटी, आज तुम्हें एक चौंकाने वाली खबर दूँ?”
रीना बोली — “क्या माँ? अभी तो बहुत काम है, बताइए जल्दी।”
“बेटी, तुम्हें अवॉर्ड मिल रहा है! देखा न, मेरे आशीर्वाद का असर।”
माँ के चेहरे पर सच्ची खुशी थी।
रीना ने हल्की मुस्कान दी —
“ओह, वो मेल ऑफिस में सबको आया था माँ, कोई बड़ी बात नहीं।”
और फिर रसोई की ओर बढ़ गई।
माँ का चेहरा एकदम बुझ गया।
उनके हाथ का चश्मा नीचे गिरा — और शीशा पूरी तरह टूट गया।
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अगली सुबह…
रीना जल्दी ऑफिस जाने की तैयारी में थी।
माँ धीरे-धीरे कमरे से बाहर आईं।
उनके हाथ में कपड़े का छोटा-सा थैला था।
“बिटिया, मैं थोड़ी देर बाहर जा रही हूँ।”
रीना ने बिना देखे कहा, “ठीक है माँ, दरवाज़ा बंद करके जाना।”
माँ रिक्शा लेकर पास के बाज़ार चली गईं।
पुराने चश्मे की दुकान पर जाकर बोलीं —
“बाबूजी, मेरे बेटे के लिए नहीं, अपने लिए नया चश्मा बनवाना है।”
वृद्ध दुकानदार मुस्कुराया,
“अम्मा, नंबर पता है?”
माँ हँस दीं — “नहीं, पर दिल का नंबर तो अभी भी सही है।”
वहां आँखें चेक करवाईं, नया चश्मा बनवाया, और जाते वक्त दुकानदार ने कहा,
“आप बहुत प्यारी अम्मा हैं, आज तो पूरा दिन अच्छा जाएगा।”
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उसी शाम…
रीना ऑफिस से लौटी तो देखा —
टेबल पर नई चाय की प्याली रखी है, साथ में एक छोटा-सा डिब्बा और कार्ड।
कार्ड पर लिखा था —
"बेटी, अब मैं सब साफ देख सकती हूँ।
तेरे चेहरे की थकान भी और तेरी मेहनत की चमक भी।
माँ सिर्फ आंखों से नहीं, दिल से भी देखती है।
तेरी — माँ।"
रीना के हाथ कांप उठे।
उसने माँ के कमरे की ओर देखा — माँ खिड़की के पास बैठी थीं, चेहरे पर नई साड़ी, आँखों पर नया चश्मा, और होंठों पर वही पुरानी प्यारी मुस्कान।
रीना दौड़कर उनके पास गई, उनके पैरों में सिर रख दिया —
“माँ, माफ करना… मैं बस भूल गई थी कि आप ही मेरी असली ताकत हैं।”
माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा —
“बिटिया, माँ को माफ़ी नहीं, बस थोड़ा-सा प्यार चाहिए।”
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उस दिन के बाद घर में बहुत कुछ बदल गया।
अब रीना रोज़ माँ के साथ बैठकर चाय पी
ती,
आरव और पायल दादी की कहानियाँ सुनते,
और माँ?
वो अब सब कुछ साफ़ देख सकती थीं —
सिर्फ चश्मे से नहीं, बल्कि अपने बच्चों की आँखों से भी।

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