❝ मां का सम्मान ❞
सुबह का समय था।
सविता देवी रसोई में काम कर रही थीं।
कमरे में से बेटे राहुल की आवाज़ आई —
“मां... एक कप चाय मिलेगी?”
सविता ने मुस्कुराते हुए कहा —
“हाँ बेटा, बस अभी लाई।”
लेकिन उसी समय उनकी बड़ी बहू ने जोर से कहा —
“मम्मी जी! आप पहले नाश्ता बना दीजिए, फिर चाय पिएंगे। राहुल तो बाहर से पी लेगा।”
सविता धीरे से बोलीं —
“अरे, बस पांच मिनट लगेंगे बेटा, मैं बना देती हूँ।”
रसोई में खड़ी सविता के माथे पर पसीना था, उम्र का असर साफ दिख रहा था, पर फिर भी वे सुबह से रात तक पूरे घर का काम करती थीं — बिना थके, बिना शिकायत के।
राहुल, जो अभी-अभी अपनी एम.टेक. की पढ़ाई पूरी करके लौटा था, मां को देखता रह गया।
वह समझ नहीं पा रहा था कि यह वही मां हैं, जो बचपन में उसके लिए हर खुशी जुटाती थीं — और आज वही मां पूरे घर में जैसे किसी “कामवाली” की तरह दिनभर लगी रहती हैं।
राहुल की यादों में बचपन घूमने लगा।
जब वह छोटा था, पिता सुरेश जी रेलवे में अफसर थे, घर में खूब खुशहाली थी।
बड़ी बहू रेनू और उनके पति अमित भी उसी घर में रहते थे।
सब एक साथ खाना खाते, त्योहारों पर खूब रौनक होती थी।
सविता हमेशा कहती थीं —
“बेटा, घर तभी घर कहलाता है, जब सब साथ रहें।”
लेकिन कुछ सालों बाद सुरेश जी का हार्ट अटैक से निधन हो गया।
बस, तभी से सबकुछ बदल गया।
रेनू बहू ने धीरे-धीरे घर की बागडोर अपने हाथ में ले ली।
अमित ने भी आंखें मूंद लीं।
सविता अब पूरे घर का सारा काम करने लगीं —
झाड़ू, पोछा, बर्तन, सब्ज़ी, बच्चों की देखभाल —
और बदले में मिलती थी केवल ताने।
राहुल जब पढ़ाई के बाद घर लौटा, उसने मां को इस हालत में देखा —
तो उसका दिल टूट गया।
वह बोला, “मां... आपने किसी को रोका नहीं?”
सविता मुस्कुराईं —
“बेटा, जो घर में रहते हैं, उन्हीं से शिकायत कैसी? सब अपने हैं।”
राहुल बोला —
“अपने ऐसे होते हैं क्या मां? जो आपको नौकरानी की तरह रखते हैं?”
मां बोलीं —
“सबकी अपनी जिम्मेदारी है बेटा... तेरा बड़ा भाई और उसकी पत्नी घर संभाल रहे हैं, मैं तो बस मदद कर देती हूँ।”
राहुल की आंखों में आंसू आ गए।
वह सोच में पड़ गया — “मदद?”
यह तो पूरी जिम्मेदारी मां निभा रही हैं।
रात को सब लोग डाइनिंग टेबल पर बैठे थे।
राहुल ने कहा —
“मेरी जॉब लग गई है, दिल्ली में।”
सभी खुश हुए, लेकिन तभी उसने आगे कहा —
“मैं मां को अपने साथ ले जाऊंगा।”
घर में सन्नाटा छा गया।
रेनू बोली —
“क्या मतलब? मम्मी जी तो यहीं रहेंगी, उन्हें आराम है यहां।”
राहुल का स्वर सख्त था —
“आराम? सुबह से शाम तक काम करवाकर कौन-सा आराम दे रहे हैं आप लोग?”
अमित कुछ बोल नहीं पाए।
राहुल ने कहा —
“मां अब और तकलीफ नहीं उठाएंगी।
अब उन्हें वह सम्मान मिलेगा, जिसकी वो हकदार हैं।”
सविता बोलीं —
“बेटा, तेरे भैया-भाभी क्या सोचेंगे? घर का काम कौन करेगा?”
राहुल ने प्यार से कहा —
“मां, आप दूसरों की सोच की वजह से अपनी जिंदगी मत गंवाइए।
अब आपकी बारी है चैन से जीने की।”
मां की आंखों से आंसू बह निकले।
वह बोलीं —
“तेरे पापा होते तो बहुत खुश होते।”
अगले दिन राहुल और सविता स्टेशन पहुंचे।
रेनू और अमित भी आए, पर कुछ बोल न सके।
सविता ने बस इतना कहा —
“बेटा, अपना ध्यान रखना, और एक-दूसरे का भी।”
राहुल ने टिकट पकड़ा और मां का हाथ थाम लिया —
“अब कोई आपको नौकरानी नहीं कहेगा मां।
अब आप केवल ‘मेरी मां’ कहलाएंगी।”
ट्रेन चली, और सविता की आंखों में राहत की चमक थी।
दिल्ली में राहुल ने छोटा-सा फ्लैट लिया।
मां के लिए एक आरामदायक कुर्सी, भगवान की छोटी-सी मूर्ति और खिड़की के पास पौधे लगा दिए।
अब सविता रोज सुबह पूजा करतीं, और फिर बेटे के ऑफिस जाने से पहले उसके लिए परांठे बनातीं।
राहुल हमेशा कहता —
“मां, अब यह घर पूरा हुआ है।”
कहानी का संदेश:
> “मां का सम्मान ही सबसे बड़ी पूजा है।
जो अपने माता-पिता को सम्मान देता है,
भगवान खुद उसके जीवन में सुख और सफलता भेजता है।”
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