❝ शर्मा आंटी और मैं ❞

 



मैं रीना हूँ — एक साधारण गृहिणी। मेरी शादी को आज लगभग 15 साल हो चुके हैं। जब मैं पहली बार इस कॉलोनी में रहने आई थी, तब सब कुछ मेरे लिए नया था — नया घर, नए पड़ोसी, और एक नई ज़िंदगी।


मेरे बगल में जो घर था, उसमें रहती थीं शर्मा आंटी। उम्र लगभग साठ के आस-पास होगी। हल्के सफेद बाल, माथे पर छोटी सी बिंदी, और चेहरे पर हमेशा एक प्यारी मुस्कान। पहली बार जब मैं उनसे मिली, तो उन्होंने अपने हाथ में रखा छोटा सा फूलों का गुलदस्ता मुझे दिया और बोलीं —

“नई बहू आई है, भगवान तुम्हें बहुत खुश रखे बेटा।”


उनका यह अपनापन मुझे तुरंत अच्छा लगा।


धीरे-धीरे हमारी पहचान गहरी होती गई। मैं रोज़ बालकनी में खड़ी होकर पौधों में पानी डालती थी और वो अपने गमले से गुलाब के फूल तोड़ती थीं। हम दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा देतीं — और यही मुस्कुराहट हमारी दोस्ती की शुरुआत बन गई।


एक दिन उन्होंने मुझसे कहा —

“रीना, तुम तो पढ़ी-लिखी हो न? मुझे मोबाइल चलाना सिखा दो। पोते से बात करनी होती है, पर समझ नहीं आता कैसे वीडियो कॉल करें।”


मैंने हँसते हुए कहा — “बस इतनी सी बात! आंटी, अब तो आप एकदम स्मार्ट हो जाओगी।”


फिर मैंने उन्हें धीरे-धीरे मोबाइल चलाना सिखाया — कॉल करना, फोटो भेजना, और वीडियो कॉल करना। कुछ ही दिनों में वो खुद से बात करने लगीं। जब पहली बार उन्होंने अपने पोते से वीडियो कॉल पर बात की, तो उनकी आँखों में जो खुशी थी, वह शब्दों में नहीं बताई जा सकती।


वो बोलीं — “रीना, तू तो मेरी बेटी जैसी है। तूने मुझे फिर से दुनिया से जोड़ दिया।”


उस दिन मुझे सच में लगा कि किसी की मदद करने के लिए बहुत बड़ा काम नहीं करना पड़ता, बस थोड़ा-सा समय देना होता है।


साल बीतते गए। मेरी व्यस्तता बढ़ती गई — बच्चे बड़े होने लगे, स्कूल, ट्यूशन, घर के काम। आंटी से मुलाकातें कम हो गईं, लेकिन रिश्ता वैसा ही बना रहा। वो जब भी मिलतीं, मेरे बच्चों को देखकर कहतीं —

“अरे, ये तो अब पूरे जवान हो गए! कब इतने बड़े हो गए बेटा?”


पर पिछले एक साल से मैंने उन्हें बहुत बदलते देखा। पहले जो हमेशा मुस्कुराती थीं, अब वो अक्सर चुप रहतीं। उनके पति का देहांत हो गया था, और बेटा नौकरी के सिलसिले में विदेश चला गया था। बहू भी अपने ऑफिस में इतनी व्यस्त रहती कि शायद ही उनसे बात करती।


एक दिन शाम को मैं सब्ज़ी लेने निकली थी, तो देखा आंटी अपने दरवाज़े पर अकेली बैठी थीं। चेहरा उतरा हुआ, आँखें सूजी हुईं। मैंने पूछा —

“क्या हुआ आंटी? तबीयत ठीक नहीं है?”


वो बोलीं —

“रीना, अब किससे बात करूँ? बेटा तो दूर है, बहू के पास वक़्त नहीं। घर में इतनी शांति कि अब डर लगने लगा है। कभी-कभी मन करता है कि किसी से बस थोड़ी देर बात हो जाए।”


उनकी बातें सुनकर मेरा दिल भर आया। मैंने कहा —

“आंटी, मैं हूँ न। आप जब चाहे मेरे पास आ जाइए। चाय मैं बनाऊँगी, बातें आप करें।”


उस दिन से वो रोज़ शाम को मेरे घर आने लगीं। कभी पुराने दिनों की बातें करतीं, कभी अपने पति को याद करतीं। और मैं बस सुनती रहती — क्योंकि कभी-कभी किसी को बस एक सुनने वाला चाहिए होता है।


कुछ दिन पहले उन्होंने कहा —

“रीना, भगवान करे तेरे बुढ़ापे में तू कभी अकेली न रहे। ये उम्र बहुत कठिन होती है बेटा। सब कुछ होते हुए भी खालीपन बहुत सालता है।”


मैंने उनका हाथ पकड़कर कहा —

“आंटी, आप अकेली नहीं हैं। मैं हूँ, और हमेशा रहूँगी।”


अब वो हर रविवार को मेरे साथ मंदिर जाती हैं। कभी मेरे बच्चों के साथ लूडो खेलती हैं, तो कभी मेरे पति से अपने पुराने स्कूल के किस्से सुनाती हैं।


कभी-कभी मैं सोचती हूँ —

आज की पीढ़ी में सब कुछ है — पैसा, सुविधा, तकनीक — पर समय नहीं। शायद आने वाले कल में, जब हम बूढ़े होंगे, तो क्या हमारे बच्चे हमारे लिए उतना समय निकाल पाएँगे, जितना हम अपने बुजुर्गों को दे पाते हैं?


मुझे नहीं पता। पर मैं इतना जानती हूँ कि किसी का एक दिन, एक घंटा, या बस कुछ पल किसी की ज़िंदगी में मुस्कान ला सकता है।


इसलिए मैं कोशिश करती हूँ कि जब भी कोई “शर्मा आंटी” जैसी अकेली आत्मा दिखे, तो उसे यह एहसास दिला दूँ कि वह अकेली नहीं है।


---


संदेश:

👉 बुढ़ापा हर किसी के जीवन का एक हिस्सा है, लेकिन अगर हम थोड़ी सी दया, थोड़ा सा समय और थोड़ा सा

 स्नेह बाँट दें — तो किसी का बुढ़ापा सुनहरा बन सकता है।


No comments

Note: Only a member of this blog may post a comment.

Powered by Blogger.