❝ आश्रम की अम्मा ❞
गोरखपुर के छोटे से गांव “बरहज” में एक पुराना महिला आश्रम था — “शांति निवास आश्रम”।
यहाँ करीब बीस बुज़ुर्ग महिलाएँ रहती थीं, जिनका न कोई घर था, न परिवार।
सभी का एक ही सहारा थीं — सीता अम्मा।
सीता अम्मा की उम्र अब करीब सत्तर साल थी,
पर चेहरे पर आज भी वैसी ही चमक थी, जैसी किसी माँ के चेहरे पर अपने बच्चों को देखकर होती है।
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सीता अम्मा की कहानी...
कभी वह इसी गांव के सरकारी स्कूल में अध्यापिका थीं।
पति नहीं रहे, और संतान भी नहीं हुई।
पर बच्चों से इतना प्रेम कि उन्होंने पूरा जीवन शिक्षा और सेवा में लगा दिया।
सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने अपने घर की जगह इस आश्रम को ही अपना घर बना लिया।
दिन भर वह बाकी महिलाओं को योग, भजन और कभी-कभी सिलाई सिखातीं।
कहतीं — “कर्म करते रहो, शिकायत मत करो, ईश्वर सब देख रहा है।”
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नई लड़की “राधा”
एक दिन आश्रम के गेट पर एक बीस-बाईस साल की लड़की बेसुध हालत में मिली।
उसके कपड़े मैले थे, चेहरा सूजा हुआ, और आँखों में गहरी उदासी थी।
सीता अम्मा ने बिना कुछ पूछे उसे अंदर बुला लिया।
पहले नहलाया, खाना खिलाया, फिर बोलीं —
“बिटिया, नाम क्या है तुम्हारा?”
लड़की रोते हुए बोली — “राधा…”
बस इतना ही कहा और चुप हो गई।
अम्मा ने और कुछ नहीं पूछा।
बस सिर पर हाथ रखकर कहा — “अब डर मत, तू यहाँ सुरक्षित है।”
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राधा अब आश्रम में रहने लगी।
सुबह पूजा करती, फिर रसोई में अम्मा की मदद करती।
अम्मा ने उसे सिलाई और पढ़ना-लिखना सिखाना शुरू किया।
कुछ ही महीनों में वह मुस्कुराने लगी थी।
एक दिन उसने अम्मा से कहा —
“अम्मा, मैं आगे पढ़ना चाहती हूँ।”
अम्मा ने खुशी से कहा —
“शाबाश बिटिया, यही तो मैं चाहती थी। मैं तेरे साथ हूँ।”
सीता अम्मा ने अपनी पेंशन से उसकी किताबें खरीदीं और पास के कॉलेज में दाखिला करा दिया।
आश्रम की सभी महिलाएँ उस दिन बहुत खुश थीं।
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कुछ महीने बाद राधा ने एक रात अम्मा से कहा —
“अम्मा, मैं बताना चाहती हूँ… मैं घर से भागी नहीं थी, मुझे बेचा गया था।”
अम्मा चौंक गईं, पर तुरंत राधा का हाथ पकड़ लिया।
“मत डर बिटिया, अब तू मेरी बेटी है। तेरे साथ जो हुआ, वह तेरी गलती नहीं थी।”
राधा अम्मा के गले लगकर खूब रोई।
उस दिन के बाद अम्मा ने राधा के लिए वही किया जो कोई माँ अपनी बेटी के लिए करती है।
दो साल बाद राधा ने नर्सिंग कोर्स पास कर लिया।
अब वह शहर के अस्पताल में काम करने लगी थी।
हर हफ्ते वह आश्रम आती, और अम्मा के पैरों में बैठकर बोली —
“अम्मा, आपकी वजह से ही आज मैं खड़ी हूँ।”
पर समय का खेल देखिए —
एक दिन अम्मा को अचानक सीने में दर्द हुआ।
राधा ने ही उन्हें अस्पताल पहुँचाया।
डॉक्टर ने कहा — “दिल कमजोर है, अब आराम जरूरी है।”
पर अम्मा ने कहा —
“मेरा आराम तो तभी होगा जब यह आश्रम चलता रहेगा।”
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अंतिम इच्छा..
एक दिन अम्मा ने राधा को बुलाया और कहा —
“बिटिया, अगर मैं न रहूँ तो तू इस आश्रम की देखभाल करना।
यहाँ की औरतें मेरी आत्मा का हिस्सा हैं।”
राधा की आँखें भर आईं —
“अम्मा, ऐसी बात मत कहो। मैं हमेशा आपके साथ रहूँगी।”
पर कुछ हफ्तों बाद, सुबह की आरती के समय,
अम्मा मुस्कुराते हुए सबके बीच ही शांत हो गईं।
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अम्मा की विरासत...
उनके कमरे में सिर्फ एक नोट मिला —
> “राधा, बेटा — अब तू सबकी अम्मा है।
प्यार बाँटते रहना, यही सबसे बड़ा धर्म है।”
राधा ने वह नोट सीने से लगाकर कहा —
“हाँ अम्मा, मैं वचन देती हूँ।”
आज भी “शांति निवास आश्रम” में हर सुबह राधा बच्चों को पढ़ाती है,
बुज़ुर्ग महिलाओं की देखभाल करती है और कहती है —
“सीता अम्मा कहीं नहीं गईं, वो यहीं हैं… हमारे दिलों में।”
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कहानी का सार:
कभी-कभी इंसान अपने खून के रिश्ते से नहीं, अपने कर्म और प्रेम से रिश्ते बनाता है।
सीता अम्मा जैसी औरतें दिखाती हैं कि माँ बनने के लिए जन्म देना ज़रूरी नहीं, दिल में ममता होना ज़रूरी है।

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