❝ अपना-पराया ❞
रीमा और आकाश की शादी को बस डेढ़ साल ही हुआ था। दोनों दिल्ली में रहते थे। आकाश एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और रीमा घर संभालती थी।
शादी के कुछ महीने बाद ही आकाश के पापा को हार्ट की तकलीफ हुई, डॉक्टर ने कहा — “उन्हें अब अकेला नहीं छोड़ा जा सकता।”
बस फिर क्या था, आकाश ने तुरंत ट्रांसफर की अर्जी लगाई और लखनऊ लौट आया ताकि माता-पिता के पास रह सके।
घर दो मंज़िला था — ऊपर पापा-मम्मी और नीचे अब आकाश-रीमा रहने लगे।
पहले कुछ दिन बहुत अच्छे बीते, सब एक साथ खाना खाते, बातें करते, मम्मी रीमा को तरह-तरह के व्यंजन सिखाती।
रीमा को लगा जैसे वह किसी फिल्मी घर में आ गई हो — जहाँ सास-माँ जैसी और ससुर-पापा जैसे!
पर वक्त जैसे-जैसे बीतता गया, चीजें बदलने लगीं।
मम्मी जी को सुबह 6 बजे उठने की आदत थी, जबकि रीमा को थोड़ा देर तक सोना पसंद था।
“बहू, घर की औरतों को सूरज से पहले उठना चाहिए, ये तो तुम्हें कोई नहीं सिखाया?”
रीमा मुस्कुराकर “जी मम्मी जी” कह देती।
आकाश 8 बजे तक ऑफिस चला जाता और पापा जी अखबार लेकर बैठ जाते।
मम्मी जी बार-बार आवाज लगातीं —
“बहू, दाल में नमक कम है!”
“बहू, ये रोटी तो कच्ची है!”
“बहू, चाय ठंडी क्यों हो गई?”
रीमा हर बार कुछ ना कुछ सुधारने लगती, लेकिन मम्मी जी को संतोष नहीं होता।
एक दिन तो बात हद से बढ़ गई।
रीमा ने सोचा कि शाम को पुलाव बना दूं, क्योंकि आकाश को बहुत पसंद था।
पर जैसे ही मम्मी जी ने देखा —
“रात में चावल! हमें नहीं खाना ये सब। दाल-रोटी चाहिए। तुम्हें कुछ आता भी है या बस दिखावे की रसोई चलती है?”
रीमा चुप रह गई, पर उसके दिल को बहुत दुख पहुँचा।
धीरे-धीरे रीमा के हर काम में कमी निकालना मम्मी जी की आदत बन गई थी।
कभी कहतीं — “इतने में सब्ज़ी नहीं आती थी जब हम लेते थे।”
कभी — “हमारे ज़माने में तो घर चमकता था, तुमसे तो कुछ नहीं होता।”
रीमा को अपनी गलती समझ नहीं आती थी।
वह सुबह से रात तक काम करती — खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े प्रेस करना।
फिर भी मम्मी जी कहतीं — “बहू को काम नहीं आता।”
एक दिन रीमा के कॉलेज की दोस्त ने फोन किया —
“कल मेरा बर्थडे है, ज़रूर आना रीमा।”
रीमा ने सोचा, चलो थोड़ा मन बदल जाएगा, उसने मम्मी जी से पूछा —
“मम्मी जी, कल शाम दो घंटे के लिए बाहर चली जाऊं?”
मम्मी जी बोलीं —
“हां-हां, जाओ, बहू का काम ही क्या, बस घूमना-फिरना।”
रीमा ने कुछ नहीं कहा। अगले दिन शाम को वह गई और 8:30 बजे लौट आई।
घर आते ही मम्मी जी और पापा जी दोनों नाराज़ चेहरों से बैठे थे।
“अब आ गई बहू? हमें तो भूखे ही रहना पड़ा।”
रीमा बोली — “मम्मी जी, मैंने सुबह बता दिया था, आप खाना मंगा लेतीं।”
“अरे, हमारे ज़माने में बहुएं घर छोड़कर नहीं घूमती थीं!”
तभी आकाश ऑफिस से आया।
माहौल देखकर बोला — “क्या हुआ?”
पापा जी बोले —
“तुम्हारी बीवी को बस अपने शौक की पड़ी है, हमें खाना भी नहीं खिलाया।”
आकाश ने रीमा की तरफ देखा — “सच?”
रीमा की आंखों में आंसू आ गए, “मैं सुबह कह कर गई थी, आप मंगा लेते तो!”
आकाश चुप रहा, पर उस रात देर तक सोचता रहा।
क्या वाकई गलती रीमा की थी या माहौल ही कुछ ऐसा हो गया था कि हर बात में टकराव हो?
अगले दिन उसने तय किया कि अब अलग रहना ही ठीक है।
शाम को सबके सामने बोला —
“पापा, मम्मी, मैं चाहता हूं कि हम पास-पास रहें लेकिन थोड़ा अलग रहें। ऊपर का पोर्शन आपका, नीचे हम किराए पर ले लेंगे।”
मम्मी जी तिलमिला गईं —
“क्यों? क्या हम बोझ हैं तुम्हारे ऊपर?”
आकाश बोला — “नहीं मम्मी, पर अब रोज़ का तनाव किसी के लिए अच्छा नहीं है। रीमा भी इंसान है, उसकी भी कुछ सीमाएं हैं।”
मम्मी जी रोने लगीं, पापा जी भी चुपचाप बैठे रहे।
आकाश ने कहा —
“मां, जब मैं छोटा था तो आपने मेरी हर बात मानी, अब मेरी एक बात मान लीजिए।
हम पास ही रहेंगे, रोज़ मिलने आएंगे, पर थोड़ी दूरी से शायद रिश्ता और मजबूत रहेगा।”
कुछ हफ्तों बाद जब वे नीचे वाले किराए के घर में शिफ्ट हुए,
मम्मी जी को भी महसूस हुआ कि शायद बहू की परेशानी गलत नहीं थी।
रीमा अब रोज़ ऊपर जाकर मम्मी पापा का हाल पूछती, उनके लिए दवाई और फल ले आती।
धीरे-धीरे रिश्ते में फिर मिठास लौट आई।
एक दिन मम्मी जी बोलीं —
“बहू, तुम सही कहती थी, कभी-कभी थोड़ा अलग रहना ही अपनापन बनाए रखता है।”
रीमा मुस्कुरा दी, और बोली —
“मम्मी जी, मैं आपसे दूर नहीं, बस थोड़ा अपनेपन की जगह तलाशने निकली थी।”
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सीख:
कभी-कभी एक ही छत के नीचे रहना प्यार नहीं, मजबूरी बन जाता है।
थोड़ी दूरी अपनापन घटाती नहीं, बल्कि रिश्तों को सांस लेने का मौका देती है। ❤️

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