❝ अपनापन का अहसास ❞
शर्मा जी का घर शहर के पुराने मोहल्ले में था।
बड़ा परिवार था — शर्मा जी, उनकी पत्नी सविता देवी, तीन बेटे और तीनों की पत्नियाँ।
घर में बच्चों की किलकारियों से हमेशा रौनक बनी रहती थी।
बड़े बेटे रवि की शादी को दस साल हो चुके थे। उनकी पत्नी सीमा बहुत समझदार थी।
मध्यम बेटे अमित की पत्नी कविता भी सबके साथ घुली-मिली थी।
तीसरे बेटे करण की शादी को अभी मुश्किल से छह महीने ही हुए थे।
उसकी पत्नी निधि थी — पढ़ी-लिखी, स्मार्ट और थोड़ा आधुनिक सोच वाली।
शादी के शुरुआती दिनों में सब बहुत खुश थे। निधि सबके साथ हँसती-बोलती, घर के कामों में मदद करती।
पर धीरे-धीरे उसके व्यवहार में बदलाव दिखने लगा।
वो कहती —
“माँ, मैं अपने कपड़े खुद वॉशिंग मशीन में धो लूँगी, आप सबको परेशान नहीं करना चाहती।”
सविता देवी मुस्कुरा देतीं —
“बेटा, परेशान कौन है? ये तो हमारा घर है, सब मिलकर काम करते हैं।”
लेकिन निधि धीरे-धीरे अपने काम अलग करने लगी।
रसोई में अपना डब्बा, अपना तेल, अपनी चाय — सब कुछ अलग।
कहती, “माँ, मुझे एलर्जी है इन ब्रांड्स से, मैं अपने सामान से ही बनाऊँगी।”
शुरुआत में सबने कुछ नहीं कहा, सोचा — नई है, धीरे-धीरे ढल जाएगी।
लेकिन करण की माँ सविता देवी का दिल कहीं न कहीं दुखता था।
घर में हमेशा एकता रही थी, अब दीवारें सी खिंचने लगीं।
एक दिन सविता देवी ने देखा कि निधि के कमरे में नया माइक्रोवेव रखा है।
उन्होंने पूछा, “अरे बेटा, ये कब आया?”
निधि मुस्कुराई, “माँ, ये तो मम्मी ने गिफ्ट किया है।”
सविता देवी कुछ नहीं बोलीं।
बड़ी बहू सीमा ने धीरे से कहा, “माँ, रहने दो, नई बहू है, समय के साथ सब समझ जाएगी।”
पर अमित की पत्नी कविता बोली, “माँ, लेकिन अगर सब अपने-अपने हिसाब से चलेंगे तो फिर परिवार कैसे रहेगा?”
घर में अब माहौल थोड़ा अलग था।
करण भी कभी-कभी तनाव में दिखता —
“निधि, हर चीज अलग करने से सबको बुरा लगता है।”
“तो क्या मैं अपनी मर्जी से भी कुछ नहीं कर सकती?” निधि झुंझला जाती।
एक दिन दोपहर में सब लोग हॉल में बैठे थे।
बेल बजी — एक आदमी नया फ्रिज लेकर आया।
बिल पर लिखा था — निधि शर्मा।
सविता देवी ने आश्चर्य से पूछा, “ये क्या है?”
निधि बोली, “माँ, मम्मी-पापा ने दिया है। वो बोले थे, नई बहू के लिए गिफ्ट है।”
अब सविता देवी चुप नहीं रहीं।
उन्होंने सबके सामने शांति से कहा —
“बेटा, देखो, ये घर विश्वास और एकता पर टिका है।
अगर तुम अपने सारे सामान अलग रखोगी, तो ये घर दो हिस्सों में बँट जाएगा।
ऐसा मत करो। अगर तुम्हें अपनी सुविधा चाहिए, तो तुम दोनों ऊपर वाले कमरे में रह लो, अपना अलग इंतजाम कर लो।
पर नीचे का घर एक है, यहाँ सब मिलकर खाते हैं, हँसते हैं, रहते हैं।”
निधि को माँ की बात सुनकर थोड़ी ठेस लगी, पर साथ ही दिल में कुछ सोचने को भी मजबूर कर दिया।
करण ने भी माँ का पक्ष लिया —
“माँ ठीक कहती हैं, हमें परिवार को बाँटने की बजाय जोड़ना चाहिए।”
उस दिन निधि बहुत देर तक चुप रही।
रात को उसने खुद जाकर सविता देवी से कहा —
“माँ, माफ कीजिए, मैं शायद यहाँ के माहौल को समझ नहीं पाई।
मुझे लगा कि अगर मैं अपने काम खुद करूँगी तो सब खुश होंगे, पर मैं तो सबको दूर करती जा रही थी।”
सविता देवी ने मुस्कुराकर कहा,
“बेटा, परिवार तब ही बनता है जब सब साथ रहें, एक-दूसरे की खुशी-दुख में भाग लें।
अलग-अलग चीज़ों से घर नहीं, मन से घर बनता है।”
उस दिन के बाद निधि ने सबके साथ बैठकर खाना खाना शुरू किया।
अपनी मशीन और फ्रिज सबके उपयोग में दे दिए।
धीरे-धीरे घर में फिर वही पुरानी हँसी लौट आई।
कुछ महीनों बाद जब निधि ने बेटे को जन्म दिया,
तो सबसे पहले सविता देवी ने कहा —
“देखो, परिवार जब साथ होता है, तो खुशियाँ भी दोगुनी हो जाती हैं।”
अब निधि को हर बात
में माँ की कही सीख याद रहती —
“अपनापन चीज़ों से नहीं, व्यवहार से आता है।”

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