❝ आशीर्वाद का मूल्य ❞
सुबह के सात बजे थे। रसोई से बर्तन खटकने की आवाज़ आ रही थी।
सुनीता धीरे-धीरे रसोई में जा रही थी — उम्र के साठ साल पार कर चुकी थीं, फिर भी रोज़ समय पर उठतीं, घर के छोटे-मोटे काम में हाथ बंटा देतीं।
बेटा रोहित और बहू नेहा दोनों ऑफिस जाते थे, और उनका छोटा बेटा आदित्य स्कूल।
नेहा ने तेज़ आवाज़ में कहा —
“मां जी, प्लीज़ रसोई में मत आइए, गड़बड़ हो जाती है, मैं कर लूंगी।”
सुनीता चुप हो गईं।
मन ही मन सोचा — “मैं तो बस चाय बना रही थी…”
पर कुछ बोली नहीं।
घर बड़ा था, पर अब दिलों में जगह छोटी लगने लगी थी।
नेहा दिन-ब-दिन चिड़चिड़ी होती जा रही थी। कभी बिजली का बिल ज़्यादा आ जाए, तो सास पर ताना, कभी दूध गिर जाए तो बोली — “मां जी, ज़रा ध्यान तो रखिए।”
रोहित जानता था कि उसकी मां बहुत सहनशील है, पर वह अक्सर चुप रह जाता।
उसे डर था कि अगर कुछ कह दिया तो घर में कलह बढ़ेगा।
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एक दिन सुनीता ने धीरे से कहा —
“बेटा, अगर तुम बुरा न मानो तो मैं अपने मायके दो-तीन हफ्ते के लिए चली जाऊं?”
रोहित थोड़ा असमंजस में था — “अरे मां, वहां कौन है अब?”
“पुराने रिश्तेदार हैं, गांव की हवा बदल जाएगी।”
नेहा को तो जैसे यही चाहिए था, बोली — “हां हां, ज़रूर जाइए मां जी, आपको भी थोड़ा आराम मिलेगा।”
सुनीता समझ गईं कि यह विदा नहीं, बहाना था उनसे छुटकारा पाने का।
पर कुछ बोली नहीं।
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अगले दिन सुबह-सुबह ट्रेन थी।
रोहित मां को स्टेशन छोड़ने आया।
मां ने आशीर्वाद में हाथ उठाया और बोली —
“खुश रहो बेटा, अपना और आदित्य का ध्यान रखना।”
रोहित कुछ कह नहीं पाया।
बस इतना ही कहा — “जल्दी वापस आ जाना मां…”
और ट्रेन धीरे-धीरे चल पड़ी।
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गांव पहुंचकर सुनीता ने राहत की सांस ली।
पुराना घर, पुरानी यादें — सब जैसे आंखों के सामने ताज़ा हो गईं।
गांव की पड़ोसी कमला आंटी ने आते ही गले लगाया —
“अरे सुनीता, तू तो बिलकुल बदल गई है, कितना शांत चेहरा हो गया है तेरा।”
सुनीता मुस्कुराई, बोली — “कमला, अब मन भी तो थक गया है।”
वहीं गांव के स्कूल में पुराने बच्चों से भी मुलाकात हुई, जो अब बड़े हो गए थे — किसी की दुकान थी, कोई टीचर बन गया था।
सबने कहा — “अरे सुनीता टीचर आई हैं!”
सारे बच्चे इकट्ठे हो गए, और उनके चेहरे पर सच्चा सम्मान देखकर सुनीता के आंखों में चमक लौट आई।
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उधर शहर में नेहा को सब कुछ अकेले संभालना भारी पड़ने लगा।
सुबह बच्चे को तैयार करना, ऑफिस जाना, खाना बनाना — सब कुछ सिर पर।
कभी रोहित से बहस, कभी खुद पर गुस्सा।
धीरे-धीरे उसे एहसास होने लगा कि मां की मौजूदगी कितनी जरूरी थी।
एक शाम जब आदित्य बोला —
“मम्मी, दादी के हाथ की खीर याद आ रही है…”
तो नेहा की आंखें भर आईं।
वह रोहित के पास जाकर बोली —
“चलो ना, मां को ले आते हैं। गलती मेरी थी।”
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अगले हफ्ते दोनों गांव पहुंचे।
सुनीता आंगन में तुलसी में पानी दे रही थीं।
जैसे ही बहू को देखा, पहले तो चौंक गईं, फिर मुस्कुराईं।
नेहा उनके पैर छूकर बोली —
“मां जी, माफ कर दीजिए। आपने मुझे मां का अर्थ सिखाया। मैं आपकी जगह खुद को रखकर सोच ही नहीं पाई। अब मैं चाहती हूं कि आप हमारे साथ चलें।”
सुनीता की आंखों से आंसू बह निकले।
उन्होंने नेहा के सिर पर हाथ रखा —
“बेटी, गलती तो उसी से होती है जो अपना होता है।”
रोहित बोला —
“मां, अब आप वापस चलो, बिना आपके यह घर अधूरा है।”
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सुनीता ने फिर से वही घर देखा — पर अब हवा अलग थी।
नेहा हर सुबह उनके साथ चाय पीती, बात करती, सलाह लेती।
आदित्य अब पहले से ज़्यादा खुश रहता।
एक दिन सुनीता ने हंसते हुए कहा —
“देख नेहा, मैं अब हर चीज़ में हाथ नहीं डालूंगी, पर तुम्हारे साथ रहना अच्छा लगता है।”
नेहा बोली — “मां जी, बस अब चाय आपके हाथ की ही बनेगी।”
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🌷 और उस दिन सुनीता ने महसूस किया — जब अपमान का जवाब संयम और प्रेम से दिया जाए, तो एक दिन सम्मान खुद लौटकर आता है।
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सीख:
परिवार में सबसे
बड़ा धन “सम्मान और अपनापन” है।
कभी देर से ही सही, लेकिन अगर पश्चाताप सच्चा हो, तो रिश्ते फिर से खिल उठते हैं।

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