“समानता की आवाज़”

 



सुबह के सात बजे थे। घर के आंगन में तवा गरम हो रहा था और गैस पर चाय की केतली सीटी दे रही थी।

रमा जल्दी-जल्दी सबको नाश्ता तैयार कर रही थी — सास-ससुर के लिए परांठे, पति सूरज के लिए टिफ़िन, और दो बच्चों के लिए स्कूल का डब्बा।


उसी समय उसकी छोटी देवरानी सिम्मी मोबाइल पर किसी वीडियो में व्यस्त थी।

रमा ने कहा, “सिम्मी, ज़रा बच्चों की बोतल में पानी भर दो।”

सिम्मी बोली, “भाभी, अभी तो हाथ गीले हैं, थोड़ी देर में कर दूँगी।”

रमा ने हल्की सी मुस्कान दबाई, “ठीक है, मैं ही कर देती हूँ।”


इतना कहकर उसने सब काम निपटाया और फिर बच्चों को स्कूल भेजा।

सासु माँ, विमला देवी, पास में बैठी हुई बोलीं,

“रमा, तुम तो बड़ी तेज हो, सब काम पलक झपकते हो जाता है तुम्हारे हाथ से।”


रमा मुस्कराई, पर उसके मन में कुछ और ही चल रहा था —

“अगर मैं तेज हूँ, तो इसका मतलब ये तो नहीं कि घर का सारा बोझ मुझ पर ही डाल दो।”


कुछ देर बाद सूरज ऑफिस चला गया और ससुर जी अख़बार लेकर बरामदे में बैठ गए।

रमा ने सिम्मी से कहा,

“चलो बहन, आज साथ में अलमारी और रसोई की सफ़ाई कर लेते हैं, बहुत दिनों से टाल रहे हैं।”

सिम्मी बोली, “भाभी, मुझे आज मम्मी के घर जाना है, कल कर लेंगे।”

रमा चुप रही।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ था।

सिम्मी हर बार कोई न कोई बहाना बना देती थी और काम फिर रमा के सिर पर आ जाता था।


शाम को जब सब लोग खाना खा रहे थे, रमा ने धीरे से पति सूरज से कहा,

“सुनो, एक बात कहूँ?”

सूरज बोला, “हाँ, बोलो।”

“माँजी से कहो ना, थोड़ा काम बँटवा दें। मुझे भी बच्चों के साथ समय चाहिए। दिन भर के काम में थक जाती हूँ।”


सूरज बोला, “तुम्हें जो कहना है, माँ से खुद कहो। मैं इन बातों में नहीं पड़ता।”

रमा ने मन ही मन सोचा — “सारे काम मुझसे करवाते हैं, और बात कहने पर कहते हैं, खुद बोलो!”


अगले दिन रमा ने हिम्मत जुटाई और सीधी सासु माँ से बात करने चली गई।

“माँजी, ज़रा एक बात कहनी थी।”

विमला देवी बोलीं, “हाँ-हाँ, कहो बहु।”


“माँजी, घर में दो बहुएँ हैं, तो अगर काम बँट जाए तो सब ठीक रहेगा।

अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, उन्हें पढ़ाने-पढ़ने में मेरा समय लगता है।”


विमला देवी ने कहा, “अरे बहु, तू तो पुरानी है, सब काम जानती है।

सिम्मी अभी नई है, उसे घर के ढर्रे की आदत नहीं।

धीरे-धीरे सीख जाएगी, तू ही थोड़ा संभाल ले।”


रमा बोली, “माँजी, मैं तो पिछले चार साल से संभाल ही रही हूँ, पर कब तक अकेली करती रहूँ?

अगर शुरुआत से सिम्मी को सिखाया नहीं गया तो वो सीखेगी कब?”


विमला देवी बोलीं, “बहु, तुम छोटी बात का बतंगड़ बना रही हो।

घर के काम में बाँट-वाँट की बातें मुझे पसंद नहीं।

घर एक होता है, बँटवारा नहीं।”


रमा ने धीरे से कहा, “मैं घर नहीं बाँट रही, बस जिम्मेदारी बाँटने की बात कर रही हूँ।”


इतना कहकर रमा चुप हो गई, लेकिन उसके मन में अब गुस्सा और थकान दोनों बढ़ने लगे थे।


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कुछ दिन ऐसे ही बीत गए।

एक दिन ससुर जी को तेज़ बुखार हो गया।

रमा ने पूरी रात जागकर उनकी सेवा की — दवा दी, खाना बनाया, कपड़ा बदला।

सिम्मी अपने कमरे में सोती रही।


अगली सुबह ससुर जी बोले,

“रमा, बहु, तेरे जैसे लोग ही घर की असली नींव होते हैं।”


विमला देवी सुन रही थीं, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।

सिर्फ इतना बोलीं, “सिम्मी, तू भी कुछ ध्यान दे लिया कर।”

सिम्मी बोली, “माँजी, भाभी को तो आदत है न, वो सब संभाल लेती हैं।”



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दिन गुज़रते गए।

रमा के बच्चे स्कूल में पीछे रहने लगे क्योंकि उसे उन्हें समय नहीं मिल पाता था।

एक दिन स्कूल से नोटिस आया — “बच्चों की पढ़ाई में माता-पिता का सहयोग ज़रूरी है।”


रमा का दिल टूट गया।

वो शाम को सबके सामने बोली,

“माँजी, अब या तो आप काम बाँट दीजिए, या फिर मैं बच्चों की पढ़ाई के लिए घर से ट्यूशन बुला लूँगी, क्योंकि मैं अकेली नहीं कर पा रही हूँ।”


विमला देवी ने पहले तो फिर वही पुराना जवाब दिया —

“तू बड़ी है, तुझे तो आदत है।”


पर इस बार ससुर जी ने सख्त लहजे में कहा,

“भाग्यवान, अब बस भी करो।

बड़ी बहु की हालत देखो, सारा बोझ उस पर डाल दिया है।

अगर तुमने काम नहीं बाँटा, तो कल को ये बहु थककर टूट जाएगी।”


विमला देवी ने कुछ देर सोचा, फिर बोलीं,

“ठीक है, मैं कल सुबह बैठकर दोनों बहुओं के काम बाँट दूँगी।”



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अगले दिन सुबह सब एक जगह बैठे।

विमला देवी ने कहा,

“रमा, तुम रसोई और बच्चों का नाश्ता-सब संभालो।

सिम्मी, तुम घर की सफ़ाई और कपड़ों की ज़िम्मेदारी लो।

शाम का चाय-पानी दोनों मिलकर करेंगी।”


रमा के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई,

और सिम्मी भी पहली बार बोली,

“भाभी, चलिए साथ काम करेंगे।”


रमा बोली, “देखो सिम्मी, अगर हम दोनों साथ मिलकर काम करेंगे तो सब आसानी से होगा।

घर तभी चलता है जब सबका दिल साफ़ हो।”


विमला देवी ने भी धीरे से कहा,

“मुझे अब समझ आया कि घर बँटवारे से नहीं, न्याय से चलता है।”


ससुर जी मुस्कराए और बोले,

“अब तो हमारा घर सच में एक परिवार जैसा लग रहा है।”



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सीख:

कभी-कभी “बड़ी बहु” होना त्याग नहीं, बल्कि परीक्षा

 बन जाती है।

लेकिन अगर आवाज़ उठाई जाए सम्मान और सच्चाई के साथ,

तो रिश्ते टूटते नहीं — बल्कि और मज़बूत हो जाते हैं।

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