❝ मंजरी की चुप्पी ❞

 



बस से उतरते ही धूल का एक बादल सा उड़ा।

गर्मी और भीड़ ने जैसे स्वागत की जगह थकान दी।

मंजरी ने अपने पाँच साल के बेटे आरव का हाथ कसकर पकड़ लिया।

“चलो बेटा, जल्दी करो… सब घर में होंगे।”


राहुल आगे-आगे चल रहा था —

सिर झुकाए, जैसे किसी मजबूरी से चला हो।

गाँव में उसके छोटे भाई वरुण की शादी थी।

मंजरी इस घर में आई थी तो सबने चुप्पी से उसका स्वागत किया था,

और आज भी वही चुप्पी थी — बस चेहरे और उम्रें बदल गई थीं।


घर के आंगन में आवाजें गूँज रही थीं — ढोलक, हँसी, और गप्पें।

पर जैसे ही मंजरी ने दहलीज़ पार की, कुछ औरतों की नजरें उसी पर टिक गईं।


“वो ही है न राहुल की दूसरी बीवी?”

“हाँ, वही। सुना है बड़ी सहनशील है। लेकिन कौन जानता है अंदर क्या है…”


मंजरी ने बस हल्की मुस्कान दी और सिर झुका लिया।

उसके अंदर जैसे एक दीवार बन चुकी थी — सुनती सब थी, पर जताती कुछ नहीं थी।



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अम्मा बरामदे में बैठी थीं। उनके चेहरे पर झुर्रियों में बीते सालों की थकान थी।

आरव को देखते ही उनकी आँखें भीग गईं।

“मेरा नाती… बिल्कुल अपने बाप जैसा।”


मंजरी ने झुककर पैर छुए,

“अम्मा, कैसी हैं?”

पर अम्मा ने बस सिर हिलाया।

प्यार की जगह एक ठंडापन था — शायद वही जो पहली बीवी संध्या की याद से बचा रह गया था।


राहुल की पहली पत्नी संध्या, अम्मा की आँखों का तारा थी।

उसकी मौत ने घर की खुशियाँ ही नहीं, अम्मा की मुस्कान भी छीन ली थी।


मंजरी जानती थी —

वो चाहे जितनी कोशिश कर ले, अम्मा की नजर में “संध्या की जगह” कभी नहीं ले सकती।



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घर में चारों तरफ़ मेहमान थे।

मंजरी को खाना बनाने से लेकर मेहमानों के ठहरने तक सब देखना पड़ता था।

राहुल बस जरूरत पड़ने पर दो शब्द बोलता —

“ये काम हो गया?” या “आरव को देखा तुमने?”


बाकी वक्त वो जैसे कहीं और होता।


रात के सन्नाटे में मंजरी खिड़की से बाहर देखती —

वो सोचती, क्या सचमुच यही उसका जीवन है?

पति जो पास रहकर भी दूर है,

और सास जो उसे स्वीकार नहीं कर पाई।


आरव ही उसकी दुनिया था।

वो बच्चा जो पहले उसे ‘आंटी’ कहता था, अब उसे ‘मम्मा’ बुलाने लगा था।

हर बार ये शब्द उसके मन के ज़ख्म पर जैसे मरहम रख देता।



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अतीत की छाया...


शादी के बाद के कुछ साल मंजरी ने बस चुपचाप काटे।

वो राहुल के व्यवहार में ठंडापन महसूस करती, पर सवाल नहीं करती।

एक बार हिम्मत जुटाकर बोली,

“राहुल, मैंने क्या गलती की है? क्यों इतने दूर हैं मुझसे?”


राहुल ने अखबार से नजर उठाई,

“मंजरी, मैंने तुमसे शादी एक जिम्मेदारी के तहत की थी।

संध्या के जाने के बाद आरव को किसी की जरूरत थी। बस… यही रिश्ता है हमारे बीच।”


वो शब्द मंजरी के दिल में धंस गए।

पर उसने रोया नहीं।

बस भीतर कहीं ये शब्द ठहर गया —

“मैं प्यार की नहीं, ज़रूरत की वजह से इस घर में हूँ।”



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अम्मा को पड़ोस की औरतें भड़काने लगीं।

“बहू बहुत ज़्यादा लगाव दिखा रही है बच्चे से। देख लेना, जब इसका खुद का बच्चा होगा, तो यही आरव को दूर कर देगी।”


अम्मा के मन में संदेह का बीज पड़ गया।

पर मंजरी ने कभी कोई शिकायत नहीं की।

वो बस मुस्कुराती और आरव के सिर पर हाथ फेर देती।


एक दिन अम्मा ने पूछ ही लिया,

“मंजरी, तू मां बनने की सोचती नहीं? इस घर का वारिस तो चाहिए न?”


मंजरी ने दृढ़ स्वर में कहा,

“अम्मा, इस घर का वारिस तो पहले से है — आरव।”


उस दिन के बाद अम्मा की नजर में मंजरी के लिए कुछ पिघल गया।

वो पहली बार बोलीं,

“संध्या भी तेरे जैसी होती तो…”

और आगे का शब्द पूरा किए बिना चुप हो गईं।



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वरुण  की शादी...


समय बीता।

आज घर में वरुण की शादी थी —

वही वरुण, जो कभी मंजरी से कटी-कटी बातें करता था,

अब थोड़ा समझदार हो चुका था।


दुल्हन सुमेधा का चेहरा मासूम था।

जब उसने झुककर मंजरी के पैर छुए,

तो कहा, “दीदी, सब कह रहे हैं कि आप इस घर की सबसे बड़ी ताकत हैं।”


मंजरी चौंकी,

कई सालों में पहली बार किसी ने उसकी अहमियत स्वीकार की थी।

राहुल ने भी सब सुन लिया।

उसने बस एक बार मंजरी की ओर देखा —

वो नजर कुछ कह गई, जो होंठ नहीं कह पाए।



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धूप में बरसात...


रात में सब थककर सो गए थे।

मंजरी कमरे में लौटी।

आरव उसकी गोद में सिर रखकर सो चुका था।


राहुल पास आया, बोला,

“मंजरी…”

वो चुप रही।


राहुल ने उसका हाथ पकड़ा —

“मुझे नहीं पता मैं इतने साल तुम्हारे साथ क्यों कठोर रहा।

शायद इसलिए कि मैं खुद को संध्या से बाहर नहीं निकाल पाया।

पर आज, जब सबने तुम्हारी तारीफ की… तो लगा, तुम ही वो कड़ी हो जो इस घर को जोड़ती है।”


मंजरी ने धीमे से कहा,

“मैंने कभी कुछ नहीं माँगा, राहुल।

बस इतना चाहा कि तुम मुझे अजनबी की तरह मत देखो।”


राहुल ने उसकी आँखों में देखा —

“अब से नहीं देखूँगा।”

उसने मंजरी को बाँहों में भर लिया।

बरसों से जमा ठंडापन उस आलिंगन में पिघल गया।



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 सुबह की रोशनी...


अगली सुबह सूरज की किरणें कमरे में आईं।

आरव अब बड़ा हो गया था — कॉलेज जाने वाला।

अम्मा मंदिर में बैठी रामायण पढ़ रही थीं।

घर में सुमेधा हँसते हुए दौड़ती फिर रही थी।


मंजरी रसोई में थी —

हाथ में चाय का प्याला और चेहरे पर वही सुकून,

जो सिर्फ कबूल किए जाने के बाद आता है।


राहुल बाहर से आया और पीछे से धीरे से बोला,

“मंजरी, चाय मेरे लिए भी?”

मंजरी मुस्कुराई, “आज खुद बना लीजिए।”

राहुल हँस पड़ा — घर की हवा में अब ठंडापन नहीं, अपनापन था।



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मंजरी की चुप्पी की जीत...


शाम को वरुण और सुमेधा शहर लौट रहे थे।

अम्मा ने मंजरी को गले लगाया।

“बहू, तूने बहुत सहा है। पर अब तू इस घर की नहीं, मेरे दिल की बेटी है।”


मंजरी की आँखें भर आईं।

उसे याद आया — वही घर, जहाँ कभी हर निगाह में सवाल था,

आज वही घर उसकी मुस्कान से जगमगा रहा था।


राहुल ने धीरे से कहा,

“मंजरी, तुम्हारी चुप्पी ने इस घर को संभाला।

अगर तूने शोर मचाया होता, तो शायद हम सब बिखर जाते।”


मंजरी ने सिर्फ इतना कहा —

“कभी-कभी चुप्पी भी सबसे गहरी 

दुआ होती है।”



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संदेश:


हर औरत की चुप्पी उसके डर की नहीं,

बल्कि उसकी संवेदना और सहनशीलता की आवाज होती है।

मंजरी ने साबित किया —

रिश्ते शब्दों से नहीं, भावना और संयम से जुड़ते हैं।

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