❝ माया की थकान ❞

 



माया सुबह से ही घर के कामों में लगी हुई थी।

पहले बच्चों को स्कूल के लिए तैयार किया, फिर पति अमित का टिफ़िन बनाया।

सासू माँ की दवाई और नाश्ता तैयार करके रसोई की सफ़ाई में जुट गई।


थोड़ी देर बाद सासू माँ ने पुकारा,

“माया, ज़रा मेरे कमरे का बल्ब भी बदल देना, आँखें कमजोर हैं, ठीक से दिखता नहीं।”

माया ने थकी हुई आवाज़ में कहा,

“जी माँजी, करती हूँ।”


उसी समय बेटे रोहन की आवाज़ आई,

“मम्मी, मेरी टाई नहीं मिल रही!”

बेटी रिया ने भी कहा,

“मम्मी, मेरे मोज़े कहाँ हैं?”


माया ने मुस्कराने की कोशिश करते हुए सबको संभाला।

अमित बोले, “तुम हमेशा आखिरी वक्त में भागमभाग क्यों करती हो? थोड़ा पहले से काम कर लिया करो।”

माया ने कुछ नहीं कहा, बस हल्की मुस्कान दे दी।



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जब सब चले गए, माया ने खुद के लिए एक कप चाय बनाई,

पर जैसे ही बैठी, मेड ने कहा —

“दीदी, आज मुझे जल्दी जाना है, मेरे बेटे की तबीयत खराब है।”


माया ने सिर हिलाया,

“ठीक है, तुम जाओ, मैं बाकी काम कर लूँगी।”


घर में फिर वही रसोई की आवाजें गूंजने लगीं — प्रेशर कुकर की सीटी, तवे की छन-छन, पानी की मोटर का शोर।

दिन बीतते-बीतते माया का सिर दर्द से भारी हो गया।

वो सोचने लगी — “कभी अपने लिए भी वक्त मिलेगा क्या?”



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शाम को अमित लौटे।

बच्चे खेलने में व्यस्त थे, सासू माँ टीवी देख रही थीं।

अमित ने आते ही पूछा,

“खाना तैयार है?”


माया बोली, “बस थोड़ा सा बाकी है, गैस पर रखा है।”

अमित बोले, “इतनी देर क्यों लगाई? ऑफिस से थका आया हूँ।”

माया ने चुपचाप परोस दिया।


खाना खाते वक्त अमित ने कहा,

“आज की दाल बहुत गाढ़ी है, थोड़ा ध्यान रखा करो।”

सासू माँ बोलीं, “हाँ, पहले जैसी बात नहीं रही अब तुम्हारे खाने में।”


माया ने कुछ नहीं कहा, पर आँखों में नमी तैर गई।



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रात को बच्चों के सोने के बाद अमित ने मोबाइल पर न्यूज़ देखते हुए कहा,

“कल मेरा मीटिंग है, सुबह का नाश्ता और टिफिन समय पर तैयार रहना चाहिए।”


माया ने बस “ठीक है” कहा और करवट बदल ली।

नींद तो जैसे आँखों से दूर भाग गई थी।

सिरहाने रखी दवा की शीशी को देखा — डॉक्टर ने कहा था “आराम ज़रूरी है”,

पर घर के कामों में आराम कहाँ?



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अगले दिन माया का सिर तेज़ दर्द से फट रहा था।

फिर भी उठी, बच्चों का टिफिन बनाया, चाय चढ़ाई।

पर जैसे ही कप उठाने लगी, हाथ काँपा और गर्म चाय उसके हाथ पर गिर गई।

जोर की जलन हुई।


“अरे मम्मी!” रिया चिल्लाई,

“आपको तो छाला पड़ गया!”


अमित भागते हुए आया,

“क्या हुआ?”

माया ने कहा,

“कुछ नहीं, बस थोड़ी चाय गिर गई।”


अमित बोला,

“देखो माया, तुम खुद को संभाल नहीं पाती, हर वक्त जल्दबाजी में रहती हो।”


माया की आँखों में अब आँसू थे, बोली,

“हर दिन सबके लिए भागती हूँ, किसी ने एक बार भी नहीं पूछा कि मैं कैसी हूँ?

घर में हर चीज़ ठीक चले, ये मेरी जिम्मेदारी है,

पर मेरा भी शरीर है, मुझे भी थकान होती है…”


सासू माँ दरवाज़े पर खड़ी सुन रही थीं।

धीरे से आगे आईं,

“बहू, सच कहूँ तो तूने कभी शिकायत नहीं की,

और हम सब तेरी आदत के इतने आदी हो गए कि तेरी तकलीफ़ देखी ही नहीं।”


अमित ने माया का हाथ थामा,

“सॉरी माया… सच में हमने कभी सोचा ही नहीं कि तुम भी इंसान हो, मशीन नहीं।”


माया के होंठों पर हल्की मुस्कान आई,

“बस इतना समझ जाओ कि घर तभी चलता है जब सब मिलकर संभालें,

एक अकेली औरत के कंधे कितने दिन सह पाएँगे?”


बच्चे भी पास आ गए,

“मम्मी, आज आप आराम करो, खाना हम मंगवा लेंगे।”


सासू माँ ने कहा,

“मैं भी रसोई संभाल लूँगी, तू बस लेट जा।”


माया ने आँखें मूँद लीं…

सालों बाद शायद पहली बार उसे आराम का हक़ मिला था।


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सीख:

घर तभी चलता है जब हर सदस्य “अपना हिस्सा” निभाए।

औरत कोई मशीन नहीं, एक इंसान है — उसे भी थकान, दर्द और सुकून का हक़ है।

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