❝ खाना किसका पसंद है? ❞
संध्या सुबह से ही रसोई में लगी हुई थी। सब्जी चढ़ी थी, दाल पक रही थी और पराठों के लिए आटा गूंथा हुआ था। तभी सासु माँ, सविता जी, आकर बोलीं,
“देख संध्या, ज़रा जल्दी हाथ चला। आज बेटा अमित का ऑफिस में लंच बॉक्स मैं खुद पैक करूंगी। पिछले हफ्ते तेरी बनाई सब्जी देखकर बोला था कि दाल में जान नहीं थी।”
संध्या मुस्कुरा दी, मगर अंदर ही अंदर उसका मन खिन्न हो गया। हर बार कुछ न कुछ शिकायत रहती थी — “नमक ज़्यादा”, “तेल कम”, “रंग फीका”, “स्वाद नहीं”…
वो जानती थी कि उसकी सासु माँ को बेटे की प्लेट में केवल वही सब्जी पसंद आती है जो वो खुद बनाती हैं।
थोड़ी देर बाद सविता जी ने सब्जी चखी और बोलीं,
“हम्म… इसमें तो बिल्कुल वही पुराना स्वाद है — फीका! बेटा अमित तो इसे देखेगा भी नहीं। तू रहने दे, मैं बना देती हूँ।”
संध्या ने चुपचाप गैस बंद की और किनारे हट गई।
मन ही मन बोली, “लगता है इस घर में सिर्फ मम्मी जी का स्वाद ही चलता है, हमारा नहीं।”
अमित ऑफिस चला गया, तो सास-ससुर और देवर सब खाने के लिए बैठे। सविता जी ने सबको अपने हाथ की बनाई पनीर की सब्जी परोसी।
ससुर जी बोले, “वाह भागवान, क्या स्वाद है! तुम्हारे हाथ की बनी चीज़ में तो जादू है।”
संध्या बस मुस्कुराई और पानी के गिलास भरने लगी।
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शाम को जब अमित लौटा, तो संध्या ने पूछा,
“खाना कैसा लगा?”
अमित ने कहा, “अरे बहुत बढ़िया, मम्मी के हाथ का था न, तो मज़ा आ गया। तुम्हारी सब्जी थोड़ी हल्की रहती है, स्वाद नहीं आता।”
संध्या ने धीरे से कहा,
“शायद इसलिए कि मैं कम तेल और कम मिर्च में बनाती हूँ, ताकि सेहत ठीक रहे।”
अमित हँसकर बोला,
“अरे सेहत बाद में देखेंगे, पहले स्वाद तो हो!”
संध्या कुछ नहीं बोली, लेकिन उसकी आँखों में नमी आ गई।
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अगले दिन रविवार था। सब लोग घर पर थे। सविता जी सुबह पूजा करने चली गईं, तो संध्या ने सोचा —
“आज कुछ नया बनाती हूँ, ताकि सबको अच्छा लगे।”
वो लगन से रसोई में जुट गई — छोले, पूड़ी, रायता, और साथ में खीर।
जब खाना तैयार हुआ, तो खुशबू पूरे घर में फैल गई। ससुर जी बोले,
“आज तो बहुत अच्छी महक आ रही है, क्या बना है बहू?”
संध्या मुस्कुराई, “छोले-पूरी बनाई है।”
सबने खाना शुरू किया। पहले तो सब चुपचाप खाते रहे, फिर अचानक देवर बोला,
“वाह भाभी, आज तो कमाल कर दिया! छोले तो लाजवाब हैं।”
ससुर जी ने भी कहा,
“हां, आज तो तेरे हाथ में स्वाद आ गया लगता है!”
इतने में सविता जी वापस आईं। उन्होंने प्लेट में छोले लिए, चखे, और बोलीं,
“हम्म… ठीक हैं, पर मसाला थोड़ा ज़्यादा है। मेरे पेट में जलन हो जाएगी।”
घर में फिर सन्नाटा छा गया। सब समझ गए कि मम्मी जी को बस अपने हाथ का खाना ही अच्छा लगता है।
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रात को अमित ने कहा,
“मम्मी बोल रही थीं कि कल से वो ही सुबह का खाना बनाएंगी।”
संध्या ने धीरे से जवाब दिया,
“ठीक है अमित, पर फिर मैं सिर्फ रोटियाँ बना लूंगी। वैसे भी, जिस खाने को कोई खाने से पहले ही नापसंद कर दे, वो बनाने का क्या फायदा।”
अमित ने उसे देखा, कुछ कहना चाहा, मगर चुप रह गया।
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अगले कुछ दिनों तक सविता जी ही खाना बनाती रहीं।
धीरे-धीरे उन्हें एहसास होने लगा कि दिन में दो बार खाना बनाना, बाकी काम देखना, और घर संभालना आसान नहीं है।
एक दिन वो थककर बोलीं,
“संध्या, ज़रा देखना तो, गैस पर दाल उबल रही है, मैं थोड़ी देर लेट जाती हूँ।”
संध्या मुस्कुराकर बोली, “जी मम्मी।”
उसने धीरे से दाल में घी और हींग का तड़का लगाया।
रात को जब सबने खाना खाया, तो अमित ने कहा,
“मम्मी, आज तो दाल बहुत बढ़िया है! आपके हाथ की तो होगी ना?”
सविता जी ने एक पल को सोचा, फिर बोलीं,
“नहीं बेटा, आज संध्या ने बनाई है।”
अमित हैरान रह गया।
सविता जी ने मुस्कुराते हुए कहा,
“लगता है असली स्वाद तो प्यार का होता है, हाथ का नहीं।”
संध्या की आँखें भर आईं, लेकिन इस बार खुशी के आँसू थे।
वो समझ चुकी थी —
कभी-कभी सच्ची जीत चुप्पी में होती है, और समय खुद इंसाफ करता है।
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सीख:
हर घर में स्वाद, आदत और अहंकार के बीच छोटी-छोटी खींचतान होती है। लेकिन
जब दिल से किया गया काम सामने आता है, तो एक दिन वही सबसे ज़्यादा पसंद किया जाने लगता है।

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