❝ अनुपमा की समझदारी ❞
"अरे चुप हो जा, बहू आ गई है, उसके सामने ये सब बात करने की क्या ज़रूरत है?"
शकुन्तला देवी ने अपनी छोटी बहन सरोज से धीरे-धीरे कहा।
बहू अनुपमा दरवाज़े से भीतर आई तो दोनों बहनों ने अपनी बातें अधूरी छोड़ दीं।
"प्रणाम मम्मीजी, नमस्ते मौसीजी!"
अनुपमा मुस्कुराई और दोनों के पास आकर बैठ गई।
"बहु, कैसी हो? सब ठीक चल रहा है?"
सरोज ने पूछा।
"हाँ मौसीजी, सब ठीक है। बस, रवि कुछ परेशान है, ऑफिस का काम ज़्यादा हो गया है।"
अनुपमा ने शांत स्वर में कहा।
शकुन्तला देवी ने बीच में ही बात काटी —
"अरे, परेशान तो वो रहेगा ही। जब उसका तो भाग्य ही उल्टा है। शादी के बाद से कोई काम टिकता ही नहीं। कभी एक ऑफिस, कभी दूसरा। मैं तो कहती हूँ, बहू के कदम शुभ होते हैं तो घर में बरकत होती है।"
अनुपमा चुप रही। वो जानती थी, सास की बातों का जवाब देने से और बहस बढ़ेगी।
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रवि की शादी को तीन साल हो चुके थे।
पहले-पहले सब ठीक था। वो एक मोबाइल कंपनी में काम करता था और ठीक-ठाक पैसा कमाता था। लेकिन शादी के छह महीने बाद ही कंपनी बंद हो गई।
नई नौकरी मिली, पर तीन महीने में वहाँ से भी निकाल दिया गया।
"तू हमेशा बहू का साथ देती है। अपने बेटे को क्यों नहीं समझाती कि थोड़ी मेहनत कर ले?"
सरोज ने हँसते हुए कहा।
"अरे बहन, अब क्या समझाऊँ? आजकल के लड़के सुनते कहाँ हैं। बहू तो नौकरी करती है, उसी के पैसे से घर चल रहा है।"
शकुन्तला देवी ने झल्लाकर कहा।
अनुपमा ने सुना, पर कुछ नहीं कहा।
वो जानती थी कि उसकी कमाई पर ही घर चल रहा है — किराया, बिजली का बिल, और रोज़ का खर्चा सब उसी से निकलता था।
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एक शाम रवि घर लौटा तो बहुत गुस्से में था।
"अब नहीं होगा मुझसे ये सब! बॉस रोज़ डाँटता है, सहकर्मी मज़ाक उड़ाते हैं!"
वो चिल्लाते हुए बोला।
"तो अब क्या करोगे?"
अनुपमा ने धीरे से पूछा।
"नौकरी छोड़ दूँगा, कुछ दिन आराम करूँगा। फिर देखूँगा आगे क्या करना है।"
"आराम?"
अनुपमा ने शांत लेकिन दृढ़ आवाज़ में कहा,
"रवि, हमारे पास अब बचत भी ज़्यादा नहीं है। अगर तुम नौकरी छोड़ दोगे तो किराया, राशन, और बाकी खर्च कैसे चलेगा?"
"मतलब अब तुम मुझे सीखाओगी? तुम्हें क्या पता, बाहर कितना प्रेशर होता है!"
रवि ने गुस्से से कहा।
"मैं समझती हूँ, रवि। पर भागने से कुछ नहीं होगा। अगर हर जगह परेशानी है तो इसका मतलब है कि हमें अपनी सोच बदलनी होगी, न कि नौकरी बार-बार।"
अनुपमा ने धीरे से कहा।
शकुन्तला देवी, जो पास में बैठी थीं, बोलीं —
"देखा बहन, यही तो मैं कहती हूँ। थोड़े पैसे क्या कमा लिए, अब मेरे बेटे को समझाने लगी है। घर में उसकी बातों का कोई मोल नहीं रहा!"
"मम्मीजी, मैं रवि को नीचा नहीं दिखा रही। मैं चाहती हूँ कि वो अपने पाँव पर मज़बूती से खड़ा हो जाए। आखिर घर उन्ही का है।"
अनुपमा ने नम्रता से कहा और अंदर चली गई।
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रात में रवि बहुत देर तक छत पर बैठा रहा।
उसे अनुपमा की बातें याद आ रही थीं।
वो सोचने लगा — सच तो वही कह रही थी। हर जगह भागने से कोई रास्ता नहीं निकलता।
अगले दिन उसने तय किया कि नौकरी नहीं छोड़ेगा।
उसने अपने बॉस से बात की, और अपने काम को सुधारने की कोशिश शुरू की।
धीरे-धीरे उसका प्रदर्शन अच्छा होने लगा।
तीन महीने बाद वही रवि, जिसे सब "नालायक" कह रहे थे,
टीम लीडर बन गया।
अब उसकी सैलरी भी बढ़ गई थी।
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एक दिन शकुन्तला देवी ने मुस्कुराते हुए कहा,
"बहू, तुझे तो मैं गलत समझती थी। तूने तो मेरे बेटे की ज़िंदगी बना दी।"
अनुपमा ने झुककर उनके पैर छुए,
"मम्मीजी, मैंने कुछ नहीं किया। बस साथ निभाया। असली मेहनत तो रवि ने की है।"
रवि ने मुस्कुराते हुए कहा,
"नहीं अनुपमा, अगर तू मुझे हिम्मत न देती तो मैं शायद हार मान लेता।"
शकुन्तला देवी की आँखों में आँसू आ गए।
उन्हें पहली बार महसूस हुआ —
घर की बरकत बहू के पैरों से नहीं, उसकी समझ और सहनशीलता से आती है।
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💠 संदेश:
> रिश्तों में ताना-बाजी नहीं, भरोसा ज़रूरी होता है।
और घर की असली बरकत किसी के भाग्य से नहीं, सबके मिल-जुल कर मेहनत करने से आती है।

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