❝ सीमा का फैसला ❞





 सीमा की उम्र पचास के करीब थी। उसने ज़िंदगी में बहुत कुछ देखा था — मेहनत, संघर्ष, भरोसा, और धोखा भी।

वह एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका थी। पढ़ाने का काम उसे बहुत पसंद था। बच्चों के बीच वह अपने सारे दुःख भूल जाती थी।


पति का देहांत दस साल पहले हो चुका था। एक बेटा था — राजीव, जो शहर में नौकरी करता था।

सीमा के पास गांव में एक छोटा-सा घर और खेत का थोड़ा हिस्सा था, जो उसके पति की याद में उसने कभी बेचना नहीं चाहा।


राजीव अब बड़ा हो गया था और शहर में नौकरी करता था।

एक दिन उसने कहा  —


> "माँ, आप अब गाँव में अकेली क्यों रह रही हैं? शहर चलिए, हम साथ रहेंगे।"




सीमा खुश हो गई। उसे लगा — बेटा अब जिम्मेदारी समझने लगा है। वह घर का सामान बाँधने लगी, लेकिन गाँव छोड़ने से पहले सब कुछ बेटे के नाम कर दिया, ताकि वह निश्चिंत हो जाए।


शहर पहुँचकर शुरू के कुछ महीने बहुत अच्छे बीते। राजीव की पत्नी प्रिया भी सीमा की खूब सेवा करती थी।

वह रोज़ उनके लिए चाय बनाती, बातें करती, और माँजी-माँजी कहकर सबका दिल जीत लेती थी।


पर धीरे-धीरे हालात बदलने लगे।

अब प्रिया को सीमा की हर बात में दखल लगने लगी।

“माँ जी, आप ज़रा ये पुरानी आदतें छोड़िए, अब सब नया जमाना है।”

सीमा चुप रह जाती, सोचती — बहू अभी नई है, सब समझ जाएगी।


लेकिन राजीव पर धीरे-धीरे पत्नी का असर बढ़ता गया।

वह अब माँ की बजाय पत्नी की बातों में ज़्यादा आने लगा।


एक दिन प्रिया ने बातों-बातों में कहा —


> “माँ जी, ये घर अब मेरा है, आपको तो बस आराम करना चाहिए। काम-धंधे की चिंता क्यों करती हैं?”




सीमा मुस्कुरा दी, पर मन में कुछ खटक गया।

उसे याद आया कि उसने तो घर पहले ही बेटे के नाम कर दिया था।

अब उसका कोई हक़ नहीं था — सब बेटे की मर्ज़ी पर था।


धीरे-धीरे बात इतनी बढ़ी कि प्रिया ने साफ़ कह दिया —


> “माँ जी, अब हम चाहते हैं कि आप कुछ दिन गाँव चली जाएँ। यहाँ जगह कम है, बच्चे भी बड़े हो रहे हैं।”




सीमा को यह सुनकर गहरा झटका लगा।

वह उसी बेटे के लिए सब कुछ छोड़ आई थी — और अब वही बेटा कह रहा था कि “माँ, थोड़े दिन के लिए चली जाइए।”


सीमा ने कुछ नहीं कहा।

उसने बस इतना पूछा —


> “बेटा, यहाँ रहते-रहते मैं तुम्हारे बच्चों को अपना दिल दे बैठी… अब मैं कहाँ जाऊँ?”




राजीव चुप रहा।

प्रिया ने कहा — “माँ जी, गाँव का घर तो अभी भी आपका है। वहाँ नौकर रख देंगे, चिंता मत कीजिए।”


सीमा ने आँसू पोंछे, बैग उठाया, और बिना कुछ बोले निकल पड़ी।


गाँव पहुँची तो घर में सन्नाटा था।

दीवारें उसे पहचानती थीं, आँगन में लगे तुलसी के पौधे भी जैसे पूछ रहे हों — “कहाँ चली गई थीं तू?”


वह कई दिन तक कुछ नहीं बोली। बस रोज़ तुलसी को पानी देती, और भगवान से कहती —


> “हे प्रभु, रिश्तों का असली मूल्य वही जानता है, जिसने सब कुछ खोया हो।”




धीरे-धीरे सीमा ने फिर से जीना शुरू किया।

उसने गाँव की लड़कियों को मुफ़्त में पढ़ाना शुरू किया।

किसी को लिखना सिखाती, किसी को बोलना।


समय बीतता गया।

राजीव के यहाँ एक दिन अचानक बहुत बड़ी मुसीबत आ गई — कंपनी डूब गई, कर्ज़ चढ़ गया।

उसे याद आया कि गाँव का घर अब उसके नाम है — वही एक सहारा बचा है।


वह माँ के पास आया, आँसू बहाते हुए बोला —


> “माँ, मुझसे गलती हो गई। मुझे माफ़ कर दो। अगर आप मदद न करें तो मैं सब कुछ खो दूँगा।”




सीमा ने उसे देखा।

दिल तो पिघल गया, पर इस बार उसने बस इतना कहा —


> “बेटा, ज़मीन-जायदाद से बड़ी चीज़ होती है मानवता।

जिस दिन तू रिश्तों की कीमत समझेगा, उसी दिन सब लौट आएगा।”




उसने बेटे को कुछ पैसे दिए, लेकिन घर अपने पास रखा।

बोली — “यह घर अब मेरे बच्चों का स्कूल है। यहाँ अब मैं सपने उगाती हूँ।”


राजीव ने सिर झुका लिया।

उसे समझ आ गया था कि जिस माँ को उसने छोड़ा था, वही असली सहारा थी।



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सीख:


> कभी भी संपत्ति, पैसा या अधिकार के लालच में रिश्तों को कमजोर मत करो।

माँ-बाप का विश्वास टूटे तो उसे दोबारा जोड़ना आसान नहीं होता।

और याद रखो — वक़्त का पलड़ा पलटने में देर नहीं लगती।




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