❝ रंग से ऊपर रिश्ता ❞
सुशीला देवी अपने मोहल्ले में बहुत सम्मानित महिला थीं। उनके पति की मौत के बाद उन्होंने अकेले ही अपने बेटे विनोद को पढ़ाया, लिखाया और काबिल बनाया।
विनोद शहर की एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर था।
उस दिन सुशीला जी सुबह-सुबह मंदिर से लौटकर आई थीं। घर में पूजा का माहौल था। उन्होंने सोचा — आज विनोद की नौकरी में प्रमोशन हुआ है, तो शाम को घर पर थोड़ा छोटा सा जश्न कर लेंगे।
वो मन ही मन बहुत खुश थीं कि तभी दरवाजे की घंटी बजती है।
“कौन आया होगा इतनी सुबह?” — वो बुदबुदाईं और दरवाजा खोलने चली गईं।
जैसे ही दरवाजा खुला, सामने विनोद खड़ा था, उसके साथ एक साँवली, पर बहुत सुंदर और सादगी भरी लड़की थी।
विनोद ने उस लड़की का हाथ थाम रखा था।
सुशीला जी ने हैरानी से पूछा —
“विनोद… ये लड़की कौन है? और तुने इसका हाथ क्यों पकड़ा है? कहीं… ये तेरी गर्लफ्रेंड तो नहीं?”
विनोद ने थोड़ी हिम्मत जुटाई, फिर कहा —
“माँ, ये रुपाली है। और ये मेरी गर्लफ्रेंड नहीं, मेरी पत्नी है। हम दोनों ने आज ही मंदिर में सात फेरे लिए हैं।”
सुशीला जी के चेहरे का रंग उड़ गया।
“क्या कहा तुने?” — उन्होंने ऊँची आवाज़ में पूछा, “तुने बिना मुझे बताए शादी कर ली? और वो भी… इस लड़की से?”
विनोद शांत स्वर में बोला,
“माँ, मैं जानता हूँ आप नाराज़ होंगी, लेकिन मैं रुपाली से सच में प्यार करता हूँ। ये बहुत अच्छी है — दिल की साफ, शिक्षित और संस्कारी।”
रुपाली ने आगे बढ़कर सुशीला जी के पैर छूने चाहे, पर सुशीला जी एकदम पीछे हट गईं।
“खबरदार!” उन्होंने गुस्से में कहा, “अपने इन काले हाथों से मेरे पैर मत छूना।
भले ही तु मेरे बेटे की बीवी बन गई है, पर मेरे घर की बहू नहीं बन सकती।”
विनोद और रुपाली दोनों अवाक रह गए।
सुशीला जी ने बिना कुछ और कहे अंदर चली गईं और कमरे का दरवाजा बंद कर लिया।
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अगले दिन...
रुपाली सुबह जल्दी उठकर घर के सारे काम करने लगी — नाश्ता बनाया, सफाई की, और सुशीला जी के कमरे के बाहर चाय रख दी।
पर सुशीला जी ने दरवाजा ही नहीं खोला।
दिन बीतते गए, पर सुशीला जी का रवैया नहीं बदला।
वो रुपाली से बात तक नहीं करतीं।
एक दिन मोहल्ले की पड़ोसन, शांता ताई, घर आईं।
उन्होंने रुपाली को देखा और कहा —
“अरे बहू, कितनी मेहनती है! और तेरा रंग भले ही साँवला हो, पर तेरे मन का रंग बहुत उजला है।”
सुशीला जी ये सुनकर चुप रहीं, पर मन में हलचल सी होने लगी।
शाम को उन्होंने देखा कि रुपाली उनके कमरे के बाहर बैठी आँसू पोंछ रही थी।
वो बोली, “माँ जी, मैं जानती हूँ कि आपने अपने बेटे को अकेले पाला है, मैं आपके गुस्से को समझती हूँ।
पर मैं सिर्फ एक मौका चाहती हूँ कि मैं आपको दिखा सकूँ — मैं आपके बेटे से उतना ही प्यार करती हूँ जितना आप करती हैं।”
सुशीला जी कुछ नहीं बोलीं।
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कुछ हफ्ते बाद...
एक दिन सुशीला जी अचानक बीमार पड़ गईं।
विनोद ऑफिस में था।
रुपाली ने ही उन्हें अस्पताल पहुँचाया, दवाई लाकर दी, और दिन-रात उनकी सेवा की।
जब सुशीला जी को होश आया, तो देखा रुपाली उनके पास बैठी थी — आँखों में नींद नहीं, लेकिन चेहरे पर चिंता थी।
वो बोलीं —
“बहू… तुने मेरी इतनी सेवा क्यों की? मैंने तो तुझे कभी अपनाया ही नहीं।”
रुपाली मुस्कुराई —
“क्योंकि आप मेरी माँ हैं। माँ नाराज़ हो सकती हैं, पर हम उनके बच्चे हैं… उन्हें छोड़ नहीं सकते।”
सुशीला जी की आँखें भर आईं। उन्होंने रुपाली का हाथ पकड़ लिया और कहा —
“मुझे माफ कर दे, बहू। मैंने तेरा रंग देखा, तेरा दिल नहीं।”
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कुछ महीनों बाद...
घर में फिर से खुशियाँ लौट आईं।
सुशीला जी अब हर किसी से गर्व से कहतीं —
“मेरी बहू रुपाली है — जितनी खूबसूरत उसके कर्म हैं, उतना ही सुंदर उसका मन।”
रुपाली भी उन्हें “माँ जी” नहीं बल्कि “माँ” कहकर बुलाने लगी थी।
और सच में, उस घर का रंग रुपाली के प्रेम और सुशीला जी के स्वीकार से उज्ज्वल हो गया था।
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धीरे-धीरे घर में खुशियाँ लौट आई थीं।
सुशीला जी अब रुपाली से बहुत प्यार करने लगी थीं।
वो जब भी किसी से मिलतीं, बड़े गर्व से कहतीं —
“मेरी बहू रुपाली सिर्फ रंग से नहीं, दिल से भी सबसे खूबसूरत है।”
विनोद भी बहुत खुश था। उसे लगता था — जैसे उसका घर अब सच में घर बन गया हो।
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लेकिन बाहर की दुनिया इतनी आसान नहीं थी।
एक दिन मोहल्ले की कुछ औरतें आईं और कहने लगीं —
“अरी सुशीला, तेरे बेटे ने तो अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर ली!
इतनी पढ़ाई कराई, और शादी की तो एक काली लड़की से!”
एक दूसरी बोली —
“हमारे घर की बहुएँ तो गोरी-चिट्टी, मेकअप में रानी लगती हैं, और तेरे घर में देख, काली माटी बैठी है।”
सुशीला जी के चेहरे पर गुस्सा आ गया, पर उन्होंने शांति से जवाब दिया —
“मेरी बहू रुपाली चाहे जैसी भी दिखे, पर उसका मन सोने का है।
और जो मन से खूबसूरत होता है, वही असली रानी होता है।”
औरतें चुप हो गईं।
रुपाली ने ये सब अंदर से सुना, पर कुछ नहीं कहा।
उसने ठान लिया — वो अपने कर्मों से सबको जवाब देगी।
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कुछ ही दिनों बाद मोहल्ले में सफाई और शिक्षा अभियान शुरू हुआ।
रुपाली ने स्कूल के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।
वो गरीब और मजदूरों के बच्चों को हर शाम फ्री में पढ़ाती।
धीरे-धीरे उसकी मेहनत और नेकी की चर्चा पूरे इलाके में होने लगी।
लोग कहते —
“वो सुशीला जी की बहू है ना? बड़ी नेकदिल और पढ़ी-लिखी है।”
एक दिन नगर के अधिकारी आए और बोले —
“हम आपकी सामाजिक सेवा से बहुत प्रभावित हैं, रुपाली जी। आप हमारे इलाके की सम्मानित नागरिक हैं।”
उसी दिन रुपाली को ‘सम्मान पत्र’ मिला।
सुशीला जी की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने भीड़ के सामने रुपाली को गले लगा लिया और कहा —
“आज मुझे पहली बार लगता है कि विनोद ने ज़िन्दगी का सबसे अच्छा फैसला लिया।”
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रात को जब सब सो गए, तो सुशीला जी ने रुपाली का हाथ पकड़कर कहा —
“बहू, पहले मैं तेरे रंग को देखती थी, तेरे मन को नहीं।
पर अब समझ गई हूँ, सच्चा रंग इंसान के चेहरे पर नहीं, उसके दिल में होता है।”
रुपाली मुस्कुराई —
“माँ, अगर आपके दिल में प्यार का रंग न होता, तो मैं आज ये सम्मान कभी न पा पाती।”
सुशीला जी ने कहा —
“अब जब भी कोई कहेगा कि रंग काला है, तो मैं कहूँगी — हाँ, पर दिल उजाला है।”
तीनों — सुशीला, विनोद और रुपाली — हँस पड़े।
घर में उस रात सिर्फ हँसी नहीं, अपनापन भी गूँज रहा था।
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> संदेश:
इंसान का रंग नहीं, उसका चरित्र मायने रखता है।
जो मन से उज्जवल है, वही सबसे सुंदर है।

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