❝ वो जो चुप रहती थी ❞

 



रसोई में चूल्हे की धीमी आँच पर दूध उबल रहा था।

बाहर बरामदे में सूखे पत्ते हवा से हिल रहे थे।

नीलिमा बर्तन धोते-धोते जैसे खो सी गई थी।

पानी की धार उसके हाथों पर गिर रही थी, पर ध्यान कहीं और था।


“बहू, ज़रा चाय बना दे।”

सासू माँ की आवाज़ आई।

“हाँ मम्मी जी…” उसने धीरे से कहा, पर स्वर में थकान थी।


तीन साल पहले जब वह इस घर में आई थी, सब कितना अलग था।

नई-नई शादी, नए सपने, सबकी उम्मीदें —

पर अब दिन बस कामों की सूची बनकर रह गया था।


सुबह 5 बजे उठना, सबके लिए नाश्ता बनाना, फिर दफ्तर की भागदौड़।

शाम को लौटकर फिर वही — सबके लिए खाना, कपड़े, सफाई।

कभी किसी ने नहीं पूछा, “थक गई क्या?”


पर दोष किसी का नहीं था —

वो खुद भी बोलती कहाँ थी?


शायद बचपन से ही सिखा दिया गया था —

“अच्छी लड़की वो होती है जो चुप रहे, विरोध न करे।”



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एक दिन दफ्तर से लौटते वक्त उसने देखा —

सड़क किनारे उसकी उम्र की एक लड़की चाय बेच रही थी।

हाथ में चोट का निशान, पर चेहरे पर चमक।

वो ग्राहकों से हँसते हुए बात कर रही थी।


नीलिमा को अजीब-सा लगा —

“इतना कुछ झेलकर भी ये हँस कैसे रही है?”

और मैं... जिसके पास सब है — फिर भी खालीपन क्यों?



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घर लौटी तो बेटा आरव उसकी गोद में चढ़ गया —

“माँ, आज स्कूल में टीचर ने कहा कि जो बोलता नहीं, वो डरता है।”

नीलिमा चौंक सी गई।।

क्या वो डरती है?


उसी रात उसने आईने में खुद को देखा —

वो चेहरा जो मुस्कुराना भूल गया था।

वो आँखें जो बरसों से कुछ कहना चाहती थीं।



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अगले दिन उसने चाय बनाते-बनाते सासू माँ से कहा —

“मम्मी जी, रविवार को पापा के घर जाना चाहती हूँ।”

“इतने दिनों बाद?”

“हाँ… बहुत दिनों से उनसे बात नहीं हुई।”

सासू माँ कुछ कहतीं, उससे पहले ही उसने मुस्कराकर कहा —

“कभी-कभी बेटियाँ भी अपने माँ-बाप का सहारा बनना चाहती हैं।”



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पापा के घर पहुँची तो माँ बरामदे में तुलसी को पानी दे रही थीं।

“अरे नीलू! तू अचानक?”

“माँ, बस मन किया कि आपको देख लूँ।”

माँ मुस्कराईं, पर आँखों में नमी थी।


चाय के कप के साथ उसने माँ से वो सब कहा जो बरसों से मन में था —

“माँ, मैं खुश हूँ… पर कभी-कभी लगता है, खुद से दूर होती जा रही हूँ।”

माँ ने बस इतना कहा —

“खुश रहना है तो खुद के लिए भी थोड़ा जीना सीख ले बेटा।”



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उस दिन के बाद से नीलिमा ने छोटे-छोटे बदलाव करने शुरू किए।

सुबह चाय बनाते वक्त वो खिड़की खोल देती —

धूप अंदर आने लगी।

आरव को स्कूल छोड़ने जाते समय रास्ते में गुलाब तोड़ लाती —

खुद के बालों में लगाती।

सप्ताह में एक दिन खुद के लिए समय रखती —

कभी किताब, कभी सुई-बुनाई, कभी बस संगीत।


धीरे-धीरे घर भी बदलने लगा।

सासू माँ ने कहा —

“बहू, अब तेरे चेहरे पर पहले जैसी थकान नहीं रहती।”

वो मुस्कराई — “क्योंकि अब मैं बोलना सीख गई हूँ।”



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एक शाम आरव बोला —

“माँ, आज टीचर ने कहा कि जो खुद से प्यार करता है, वही दूसरों से सच में प्यार कर सकता है।”

नीलिमा ने उसे गले लगा लिया —

“बिलकुल सही कहा तुम्हारी टीचर ने।”



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अब जब भी दूध उबलता है, वो ध्यान से देखती है —

कहीं छलक न जाए।

क्योंकि उसे पता है, ज़िंदगी भी उसी दूध जैसी है —

अगर ध्यान न दो तो बह जाती है।

पर अगर समय पर आँच कम कर दो —

तो मिठास बनकर रहती है।



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अंत में नीलिमा ने अपनी डायरी में लिखा 


> “पहले मैं सोचती थी, चुप रहना ही समझदारी है।

अब समझी हूँ —

चुप्पी नहीं, संवाद ही रिश्तों को ज़िंदा रखता है।”



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