❝ माँ का घर ❞

 




गांव के एक शांत कोने में एक छोटा-सा घर था, जिसकी दीवारों में आज भी पुराने दिनों की यादों की खुशबू बसी हुई थी।


उस घर में रहती थीं सुशीला देवी और उनके पति गोपाल जी।


दोनों ने अपनी पूरी जिंदगी मेहनत में गुजार दी।

गोपाल जी स्कूल के अध्यापक थे और सुशीला देवी घर संभालती थीं।

दोनों बेटों — राकेश और संदीप — को अच्छे स्कूलों में पढ़ाया, बड़े शहर भेजा, ताकि उनका भविष्य उज्जवल हो।


वक्त बीता, दोनों बेटे बड़े हुए, नौकरियों पर लगे और शादी हो गई।

अब वे शहर में अपने परिवार के साथ रहते थे।

माँ-बाप गांव में अकेले रह गए।



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एक दिन...


सुशीला देवी आँगन में बैठी थीं।

सामने तुलसी के पौधे में पानी डालते हुए बोलीं —

“गोपाल जी, लगता है इस बार होली पर दोनों बेटे आएंगे। पिछली बार कहा था कि अगली छुट्टी में जरूर आएंगे।”


गोपाल जी मुस्कुरा कर बोले,

“हाँ भाग्यवान, जब वक़्त मिलेगा, तब आ जाएंगे। अब उनके भी अपने घर-परिवार हैं।”


सुशीला देवी बोलीं,

“अपने घर हैं, पर क्या हम उनके अपने नहीं रहे अब?”


गोपाल जी कुछ नहीं बोले।

बस आसमान की तरफ देखने लगे।

शायद उनके मन में भी यही सवाल घूम रहा था।



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दो महीने बाद...


राकेश का फोन आया —

“माँ, इस बार छुट्टियों में आना थोड़ा मुश्किल है, ऑफिस का बहुत काम है।”


संदीप ने भी वही बहाना बना दिया —

“माँ, बच्चों की परीक्षा है, इस बार नहीं आ पाऊँगा।”


सुशीला देवी ने कहा,

“कोई बात नहीं बेटा, अपना ध्यान रखना। जब वक्त मिले तब आ जाना।”

मगर फोन रखते ही उनकी आँखें भर आईं।



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गांव का त्योहार आया...


गांव में चारों तरफ चहल-पहल थी।

लोगों के बच्चे, पोते-पोतियाँ, सब आ गए थे।

हर घर में हंसी थी, पर गोपाल जी के घर में सन्नाटा।


सुशीला देवी के मन में दर्द उठ रहा था।

“गोपाल जी, सबके बच्चे आए हैं, बस हमारे नहीं। क्या हमने ही कुछ गलत किया?”


गोपाल जी बोले,

“नहीं भाग्यवान, हमने अपना फर्ज निभाया। अब बस यही वक्त की मजबूरी है।”



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एक दिन डाकिया आया..


डाकिया ने एक लिफाफा दिया —

अंदर एक पत्र था और साथ में बैंक का चेक।


राकेश ने लिखा था,

“माँ, ये थोड़ा पैसा रख लेना, किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो काम आ जाएगा।”


सुशीला देवी ने चेक देखा, फिर कहा,

“गोपाल जी, देखिए, उन्होंने हमें अब प्यार नहीं, पैसा भेजना शुरू कर दिया है।”


उनकी आवाज़ भर्र गई।

गोपाल जी बोले,

“भाग्यवान, जब दिल से रिश्ता टूट जाता है, तो बस दिखावा ही रह जाती है।”



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कुछ दिन बाद गोपाल जी की तबीयत बिगड़ गई।

गांव का डॉक्टर बोला,

“शहर के अस्पताल ले जाइए, यहाँ इलाज मुश्किल है।”


सुशीला देवी ने दोनों बेटों को फोन किया,

पर किसी ने फोन नहीं उठाया।


तीन दिन बाद गोपाल जी दुनिया छोड़ गए।



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तीन दिन बाद बेटे आए...


राकेश और संदीप दोनों अपनी पत्नियों के साथ पहुंचे।

शहर के कपड़े, चश्मे, मोबाइल — सब कुछ चमक रहा था,

बस चेहरे पर शर्म की झलक नहीं थी।


राकेश बोला,

“माँ, आपको हमें पहले बता देना चाहिए था।”


सुशीला देवी ने बस इतना कहा,

“तुम्हें बताने की ज़रूरत नहीं लगी,

क्योंकि जब तुम्हें पिता की हालत देखने की फुर्सत नहीं थी,

तो अब तुम्हारे आने का क्या मतलब?”


दोनों बेटे चुप खड़े रह गए।



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समय बीता...


अब सुशीला देवी अकेली रह गई थीं।

मगर उन्होंने तय कर लिया था —

“अब मैं किसी पर निर्भर नहीं रहूंगी।”


उन्होंने अपने घर में एक छोटा सा कढ़ाई-बुनाई का काम शुरू किया।

गांव की औरतें उनके पास सीखने आने लगीं।

धीरे-धीरे उनका काम चल पड़ा।


वो हँसने लगीं, खिलखिलाने लगीं।

घर फिर से जीवंत हो गया।



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एक दिन दोनों बेटे फिर लौटे..


इस बार उनके मन में कुछ और था।

राकेश बोला,

“माँ, शहर में हम नया बिज़नेस शुरू करना चाहते हैं।

आपका ये घर बेच दें तो थोड़ा पैसा मिल जाएगा।”


सुशीला देवी मुस्कुरा दीं।

“बेटा, जब तुम्हारे पिता ज़िंदा थे, तब तुमने उनके लिए एक पल नहीं निकाला।

अब जब वो नहीं हैं, तब तुम इस घर को बेचकर अपना भविष्य बनाना चाहते हो?”


संदीप बोला,

“माँ, आपको हमारे भविष्य की चिंता नहीं?”


सुशीला देवी ने कहा,

“जिस भविष्य में हमारे लिए जगह ही नहीं है,

उसकी चिंता मैं क्यों करूँ?”


फिर उन्होंने अलमारी से एक कागज़ निकाला —

“ये रहा तुम्हारे पिता की वसीयत।

इस घर को मैंने अब ‘माँ सुशीला सेवा केंद्र’ के नाम कर दिया है।

यह घर अब उन बुजुर्गों के लिए होगा,

जिन्हें उनके बच्चे छोड़ देते हैं।”


दोनों बेटे निशब्द हो गए।

और सुशीला देवी

 पहली बार मुस्कुराईं —

एक मज़बूत माँ की तरह।



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संदेश:


> “माँ-बाप का दिल मंदिर होता है —

अगर उसे तोड़ दोगे,

तो ज़िंदगी भर कहीं शांति नहीं मिलेगी।”

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