❝ सम्मान का असली मोल ❞

 



सुबह का समय था। सूरज की किरणें धीरे-धीरे खिड़की के परदों से झाँक रही थीं।

नेहा ने अभी-अभी रसोई का काम निपटाया ही था कि सास सुधा जी की आवाज़ आई —


“नेहा, ज़रा इधर आना, बात करनी है।”


नेहा फौरन अपने हाथ पोंछती हुई आ गई, “जी मम्मी जी?”


सुधा जी बोलीं, “अरे तुम्हारी मम्मी का फोन आया था। कह रही थीं कि वो अपने भाई के घर शादी में आई हैं, और अब हमारे घर मिलने आना चाहती हैं। बोलीं, ‘अचानक से मिल लूँ अपनी बेटी से।’”


फिर सास ने लंबी साँस लेकर कहा,

“अब कोई ऐसे अचानक भी आता है क्या? बिना बताए?

चलो, अब जल्दी तैयार हो जाओ और घर थोड़ा सहेज लो। बाहरवाले क्या सोचेंगे कि हम बहू को जैसे-तैसे रखते हैं।”


नेहा ने मुस्कुराते हुए सिर हिलाया और कमरे की ओर चली गई। थोड़ी देर बाद वह रसोई में गई और फ्रिज खोलकर देखने लगी कि घर में क्या-क्या है।


सुधा जी वहीं आ गईं और बोलीं —

“अरे ये क्या कर रही हो बहू?”


नेहा बोली — “मम्मी जी, मम्मी-पापा आ रहे हैं, तो सोचा कुछ अच्छा बना लूँ। उनके लिए आलू की सब्ज़ी और पूरी बना देती हूँ।”


सुधा जी भौंहें चढ़ाते हुए बोलीं —

“क्या ज़रूरत है इतना सब करने की?

दोपहर की जो दाल बची है उसमें थोड़ा पानी डाल देना, और वो रात की सब्ज़ी है ना, उसमें नमक डालकर गरम कर लेना।

बस चावल पका लो, हो गया। कोई भोज थोड़े करने आ रहे हैं!”


नेहा के हाथ वहीं रुक गए।

वो चुप रह गई, पर उसके मन में कई सवाल उठ गए।

“जब सास की सहेली आती हैं तो पूरा खाना बनवाती हैं… फिर आज मेरे माँ-पापा के लिए ये फर्क क्यों?”


उसने हिम्मत जुटाकर धीरे से कहा —

“मम्मी जी, लेकिन ऐसे बची हुई दाल और सब्ज़ी… मम्मी-पापा क्या सोचेंगे?”


सुधा जी ने झुंझलाकर कहा —

“बस बहुत सवाल करती हो। पानी डाल दो, गरम कर दो। किसी को क्या पता चलेगा!”


इतना कहकर वो बाहर चली गईं और किसी पड़ोसन से बात करने लगीं।


नेहा चुपचाप खड़ी रही, फिर उसने खुद से कहा —

“नहीं, आज मैं अपनी मम्मी-पापा के सामने अपने घर की इज़्ज़त कम नहीं होने दूँगी।”


वह तुरंत आटा निकालने लगी, सब्ज़ियाँ काटीं, दाल भिगोई और काम में लग गई।

करीब एक घंटे बाद रसोई में से मसालों की खुशबू पूरे घर में फैल गई।


सुधा जी जब अंदर आईं तो जैसे गुस्से से फट पड़ीं —

“बहू! ये क्या कर डाला? इतना सब खाना क्यों बना लिया?

मैंने कहा था ना, बचा हुआ गरम कर दो!”


नेहा शांत स्वर में बोली —

“मम्मी जी, अगर मैं उन्हें बचा हुआ खाना देती तो वो सोचते कि उनकी बेटी के ससुराल में खाने की कमी है।

आप तो हर किसी को हमारे घर की शान बताती हैं — तो क्या आज अपनी बेटी के माता-पिता को वो ‘शान’ न दिखाऊँ?”


सुधा जी कुछ पल के लिए खामोश रहीं।

फिर बोलीं —

“बिना बताए आने वालों के लिए कौन छप्पन भोग बनाता है? और वैसे भी तुम्हारे माईके वाले हमारे सामने झुककर ही रहेंगे।”


नेहा ने हल्के मुस्कान के साथ कहा —

“तो मम्मी जी, जब आपकी बहन या आपकी बेटी अचानक आ जाए तो क्या मैं उन्हें भी यही बची हुई दाल दे दूँ?”


सुधा जी का चेहरा लाल पड़ गया।

वो कुछ कहने ही वाली थीं कि नेहा ने आगे कहा —

“मम्मी जी, अगर आज मैं अपनी माँ-बाप के लिए बचा हुआ खाना दूँगी, तो कल आपकी बेटी के लिए भी वही परंपरा निभाऊँगी।

आप ही कहती हैं ना — ‘घर की मर्यादा सबके लिए बराबर होनी चाहिए।’”


अब सास के पास कोई जवाब नहीं था।

वो गुस्से में वहाँ से चली गईं, पर मन में नेहा की बात गूंज रही थी।


थोड़ी देर बाद जब नेहा के माँ-पापा घर पहुँचे, तो टेबल पर गरमागरम खाना सजा था —

कढ़ी, चावल, पूरी, पनीर की सब्ज़ी, और साथ में रसगुल्ले।


नेहा की माँ बोलीं —

“अरे बेटा, इतना सब क्यों बनाया? हम तो बस मिलने आए थे!”


नेहा मुस्कुराई,

“अरे मम्मी, हमारे घर में कोई भी आए, सबकी मेहमाननवाज़ी एक जैसी होती है, है ना मम्मी जी?”


सुधा जी थोड़ी झेंपते हुए बोलीं —

“हाँ हाँ, बिल्कुल! हमारे घर में सब मेहमान बराबर हैं।”


वातावरण एकदम हल्का और सुखद हो गया।

सबने साथ बैठकर खाना खाया।

सुधा जी के चेहरे पर नकली मुस्कान थी, लेकिन अंदर ही अंदर वो सोच रही थीं —

“अगर बहू आज इतनी समझदारी न दिखाती, तो वाकई मेरी इज़्ज़त चली जाती।”


शाम को जब नेहा के माँ-पापा चले गए, उन्होंने ढेर सारे फल और मिठाई दी।

नेहा ने प्यार से मिठाई सास को थमाई और बोली —

“मम्मी जी, आपने कहा था कि मम्मी-पापा खर्च बचाने के लिए आए हैं… देखिए, उन्होंने तो खर्चा बढ़ा दिया!”


सुधा जी ने कुछ नहीं कहा, बस हल्की मुस्कान दी।

उन्हें आज पहली बार समझ आया —

“सम्मान किसी रिश्ते की मजबूरी नहीं, उसकी नींव होता है।”




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