❝ अपनेपन की गर्माहट ❞
रमेश जी की उम्र अब सत्तर के करीब थी।पत्नी के गुजर जाने के बाद वो अपने छोटे से घर में अकेले रहते थे।बड़ा बेटा अजय मुंबई में बैंक में मैनेजर था, जबकि छोटा बेटा विजय शहर में ही स्कूल टीचर था।
अजय साल में दो या तीन बार ही घर आता, लेकिन फोन रोज़ कर लेता —
“पापा, दवाई ली न?”
“हाँ बेटा,” रमेश जी जवाब देते, लेकिन उस “हाँ” में अकेलेपन की थकान छिपी होती।
विजय हर दिन स्कूल से लौटते वक्त पिता से मिलने चला आता।
“पापा, आज स्कूल में बच्चों का स्पोर्ट्स डे था, खूब मज़ा आया।”
रमेश जी मुस्कुरा देते — “अच्छा बेटा, तू भी तो मेरे साथ थोड़ा पार्क चल, टहल आएंगे।”
और दोनों बाप-बेटे हाथ में चाय लिए बरामदे में बैठकर बातें करते रहते।
विजय की पत्नी, नीना, बहुत समझदार थी। वह हर हफ्ते कुछ न कुछ रमेश जी के लिए बना देती — कभी बेसन के लड्डू, कभी मूंग की दाल का हलवा।
वो हमेशा कहती, “पिताजी, अब आपको कुछ नहीं करना, बस आराम से रहना है।”
रमेश जी को लगता, जैसे वो फिर से अपने घर के मुखिया नहीं, बल्कि घर के बच्चे बन गए हों।
समय यूँ ही गुजरता रहा। एक दिन अजय का फोन आया —
“पापा, आप अकेले रहते हो, मेरे पास मुंबई आ जाओ। यहाँ सब सुविधा है — अपना कमरा, मेड, डॉक्टर, सब कुछ।”
रमेश जी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा —
“ठीक है बेटा, एक बार देख आता हूँ।”
मुंबई पहुँचते ही अजय और उसकी पत्नी रीता ने बड़े प्यार से स्वागत किया।
रीता बोली, “पापा, आपका रूम तैयार है, मेड सुबह से शाम तक रहेगी। कुछ चाहिए तो बताइए।”
रमेश जी ने सिर हिलाया और कमरे में चले गए।
पहले दिन तो अच्छा लगा — बड़ा घर, एयरकंडीशन रूम, टी.वी., किताबें, सब कुछ।
पर दूसरे ही दिन से सन्नाटा लगने लगा।
सुबह 8 बजे अजय-रीता ऑफिस चले जाते, और रमेश जी पूरे दिन मेड के साथ रह जाते।
मेड कभी मोबाइल देखती, कभी काम करती।
दोपहर को खाना रख देती, और कहती — “पापा, खा लेना। मैं बाद में आऊँगी।”
शाम को भी वही दिनचर्या — टीवी ऑन, लेकिन बातें करने वाला कोई नहीं।
एक दिन रमेश जी ने रीता से कहा —
“बेटा, तुम्हें दाल में थोड़ा नमक कम लग रहा है।”
रीता बोली — “ओह, सॉरी पापा! मैं ऑर्डर करवा देती हूँ।”
रमेश जी मुस्कुरा दिए, पर मन ही मन बोले —
“अरे बेटी, मुझे खाना नहीं, अपनापन चाहिए था।”
एक हफ्ते बाद रमेश जी ने कहा —
“अजय, मैं घर वापस जा रहा हूँ।”
अजय चौंक गया — “क्यों पापा? यहाँ किसी चीज़ की कमी तो नहीं?”
रमेश जी ने शांत स्वर में कहा —
“बेटा, यहाँ सब कुछ है — ए.सी., मेड, सुविधा... लेकिन साथ नहीं है।
विजय और नीना भले छोटे घर में रहते हैं, पर रोज़ पूछते हैं — ‘पापा, चाय लाऊँ?’ ‘आज मंदिर चलें?’ ‘कहाँ दर्द है?’
वो साथ मुझे जिंदा रखता है। यहाँ सब कुछ है, पर जीने का मन नहीं है।”
अजय की आँखें भर आईं। उसे एहसास हुआ कि उसने अपने पिता को हर सुख दिया,
पर अपना वक्त नहीं दे पाया।
कुछ दिन बाद ही, अजय वीकेंड पर हर बार झाँसी जाने लगा।
वो देखता, कैसे विजय, नीना और पिताजी हँसी-ठिठोली में दिन बिताते हैं।
एक दिन उसने पिताजी से कहा —
“पापा, अब मैं भी हर महीने कुछ दिन आपके साथ रहूँगा।”
रमेश जी मुस्कुरा दिए —
“बस बेटा, यही तो चाहिए था — थोड़ी सी बातें, थोड़ी सी चाय, और थोड़ा सा साथ।”
कहानी का संदेश:
> “बुज़ुर्गों को सुख-सुविधाएँ नहीं, अपनों का समय और स्नेह चाहिए होता है।
जो साथ देता है, वही सच्चा बेटा कहलाता है।”
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