❝ एक नन्ही सी आशा ❞

 

A closeup 8K photo of an Indian couple — a pregnant woman and her husband — standing near a window, expressing emotion, realization, and hope for their unborn daughter.


रात को हल्की ठंडी हवा चल रही थी। शहर के एक छोटे से मोहल्ले में, सीमा और रवि अपने घर के आँगन में खड़े थे। सीमा के पेट में सवा चार महीने का बच्चा था। दोनों के चेहरे पर चिंता भी थी और उम्मीद भी।


रवि ने धीरे से कहा, “सीमा, कल डॉक्टर के पास चलें? बस सामान्य चेकअप करवा लेती हूँ।”

सीमा ने चौंककर पूछा, “डॉक्टर? पर हम तो कल ही गए थे। कुछ गड़बड़ तो नहीं है ना?”

रवि ने हँसते हुए कहा, “नहीं-नहीं, कुछ नहीं। बस मैं जानना चाहता हूँ कि सब ठीक है।” सीमा थोड़ी अनमनी सी मुस्कुराई और मान गई।


अगले दिन क्लिनिक में जब रैपोर्ट्स निकले, तो डॉक्टर ने मुस्कुराकर कहा, “सब ठीक है, और क्या चाहिए?” रवि के मन में एक पुराना डर फिर से उभरा। वह कुछ पल चुप रहा। फिर बोला, “डॉक्टर साहब, क्या जेंडर भी बता सकते हैं?”

डॉक्टर ने सख्ती से कहा, “यह गैरकानूनी है। जिनसे प्यार है, उन दोनों की सहमति और चुने हुए समय पर ही बच्चे के बारे में सोचना चाहिए। जेंडर का पता करने का कोई मतलब नहीं।”

रवि की आँखों में थोड़ी निराशा दिखी। सीमा ने उसकी तरफ देखा और स्पर्श से उसका हाथ थामा।


मोहल्ले में रवि के परिवार की सोच थोड़ी पुरानी थी। रवि के पिता, मनोज, हमेशा कहते थे, “पहला बच्चा लड़का होना चाहिए, तभी घर की शान बनी रहती है।” मां, सुनीता, अक्सर सही-असही सलाह देती रहती थीं। रवि ने भी बचपन में यही सुना था, यही सीखा था। पर सीमा के साथ रहने के बाद उसकी सोच में धीरे-धीरे बदलाव आने लगा था। सीमा की सच्ची बातों ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया था।


कुछ दिनों बाद जब पता चला कि सीमा के पेट में बच्ची है, तो मनोज और सुनीता को गुस्सा आया। मनोज ने कहा, “अब क्या करेंगे? हमारे घर की परंपरा टूट जाएगी।” सुनीता ने चुपचाप सिर हिलाया। रवि का चेहरा पीला पड़ गया। सीमा ने साहस से उनसे कहा, “यह बच्ची है। मैं इसे प्यार से पालूंगी। यह हमारा परिवार है।”


पर परिवार धीरे-धीरे दबाव बनाने लगा। रिश्तेदारों और मोहल्ले वालों की बातें भी रवि के कानों में आने लगीं—“पहला बेटा क्यों नहीं हुआ?”, “अब आगे क्या करेंगे?” रवि का मन उलझने लगा। वह अपने पिता को समझाने की जितनी कोशिश करता, उतना ही असहाय महसूस करता। सीमा हर दिन अपने भीतर लड़ाई लड़ती—अपने गर्भ में पल रहे जीवन के साथ और समाज की पुरानी सोच के साथ।


एक शाम सीमा ने मोहल्ले की चाय की दुकान पर बैठ कर अपने पुराने स्कूल की दोस्त रेखा को फोन किया। रेखा ने सुना तो तुरंत आई। रेखा आज एक सामाजिक कार्यकर्ता बन चुकी थी। उसने कहा, “सीमा, तुम्हें अकेला नहीं लड़ना है। मैं और कुछ औरतें और साथ में खड़ी होंगी।” सीमा की आँखों में उम्मीद चमकी।


एक रात, जब मनोज ने जोर देकर कहा कि गर्भपात करा दो, रवि का दिल टूटता-पिघलता हुआ बोला, “मैं अपने बच्चे को नहीं मार सकता।” यह सुनकर मनोज का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने गुस्से में मेज़ पर रखा गिलास ज़ोर से पटक दिया और बोला —

“अगर इस घर में मेरे नियम नहीं चलेंगे, तो अब मुझे कुछ कहना ही बेकार है!”

यह कहकर वह अपने कमरे में चला गया। रवि और सीमा ने मिलकर फैसला लिया कि वह अपने बच्चे की जान बचाएँगे—हर हाल में।


समाज की लड़ाई आसान नहीं थी। सुनीता ने अपने पति से कहा, “हमारे परिवार की इज्जत क्या होगी?” मनोज ने कहा, “लोग क्या कहेंगे?” पर रवि ने देखा कि सीमा की आँखों में जो प्यार और आत्मविश्वास है, उसे कोई ताकत टुटने नहीं दे रही। उसने अपने अंदर की नये रवैये को जगाने की ठानी।


एक महीने बाद सीमा ने अस्पताल में प्रसव कर के एक छोटी सी प्यारी बच्ची को जन्म दिया। अस्पताल का कमरा खुशियों से भर गया। रवि की आँखों में आँसू थे—खुशी के। सीमा ने नन्ही के चेहरे को देखा और कहा, “यह मेरी बेटी है, मेरी जिम्मेदारी है।”


पर घर में समस्या खत्म नहीं हुई। मनोज को अपने बेटे की कमी अभी भी परेशान कर रही थी। उसने कई तरह की बातों से रवि और सीमा को दबाने की कोशिश की। मगर रहने के लिए ही नहीं, उनके रिश्ते के लिए भी सीमा और रवि ने फैसला किया—वे इस बेटी के साथ रहें और उसे सम्मान से पाले।


समय के साथ रवि ने अपने बड़ों की पुरानी सोच को चुनौती देना शुरू किया। उसने अपने पिता से कहा, “पापा, क्या आप हमें अपने तरीके से जीने देंगे? क्या आपके लिए दामन पर ‘लड़का’ छापा होना ज़रूरी है? हमारी बेटी आपकी और हमारी आन-बान-शान है।” यह सुनकर मनोज को गहरा आघात लगा। उसने अपने जीवन भर की धारणाओं को खंडित होते देखा।


इसी बीच रेखा और उसकी टीम ने मोहल्ले के लोगों के बीच जागरूकता शिविर लगाए। उन्होंने स्कूलों में जाकर बच्चों को बताया कि लड़का या लड़की—दोनों एक जैसे हैं। एक लड़की भी किसी से कम नहीं होती। कुछ महीनों में मोहल्ले की सोच धीरे-धीरे बदलने लगी।


मनोज ने भी अपनी गलती समझनी शुरू कर दी। एक दिन उसने नन्ही के कंधे पर हाथ रखा और बोला, “बेटी, तुम्हारा स्वागत है। मुझे माफ कर दो।” सीमा ने मुस्कुरा कर कहा, “पापा, अब हमारे घर को कोई और भेदभाव नहीं चाहिए। हमें नए जमाने के साथ चलना होगा।”


रवि और सीमा ने मिलकर अपनी बेटी का नाम रखा—आशा। आशा का मतलब ही उम्मीद था। आशा जब बड़ी हुई तो वह स्कूल गई। उसने खूब पढ़ाई की और अपने माता-पिता का नाम रोशन किया। आशा ने खेल-कूद में हिस्सा लिया, नाटकों में भाग लिया और लोगों को यह दिखाया कि एक लड़की कितनी मजबूत हो सकती है।


समय के साथ मोहल्ले वालों के विचारों में बदलाव आने लगा। वे अब अपने बच्चों को समान अधिकार देने लगे। छोटी-छोटी बातें बदलीं—लड़कियों को भी स्कूल भेजा जाने लगा, बेटियों के जन्म पर उतनी ही ख़ुशी जताई जाने लगी, और घमंड कम होता गया।


कहानी का असली मोड़ तब आया जब मनोज ने अपनी गलती सबके सामने स्वीकार की। उसने सार्वजनिक रूप से कहा, “मैंने अपनी संतान के बारे में गलत सोच रखी। अब मैं सबको बताना चाहता हूँ कि बेटियाँ उतनी ही कीमती हैं जितने बेटे। मेरा अनुभव यह है कि इंसान की असली पहचान उसके काम और प्यार से बनती है, न कि उसके स्त्री या पुरुष होने से।” यह बात सुनकर कई और परिवारों ने भी अपने पुराने विचारों पर सवाल उठाया।


सीमा और रवि की जो जंग एक छोटे घर में शुरू हुई थी, वह आने वाले समय में एक छोटी-सी क्रांति बन गई। उनकी बेटी आशा ही एक दिन छोटी-छोटी बातों को बदलने वाली नहीं रही—वह बड़े फैसलों से भी लोगों को प्रभावित करने लगी।


कहानी का अंत एक त्योहार वाली शाम में होता है। मोहल्ले में सब लोग इकठ्ठा हैं। बच्चे खेल रहे हैं, महिलाएँ हँस रही हैं, पुरूष बातें कर रहे हैं। मनोज अपनी पोती आशा को गोद में लेकर कहता है, “देखो, यह हमारी नई पीढ़ी है—निर्भय, स्वतंत्र और सम्मानित।” सीमा और रवि के चेहरे खुशी से चमक रहे हैं।


और आख़िर में सीमा कहती है, “हमने सिर्फ अपनी बेटी को बचाया ही नहीं, बल्कि एक पुरानी सोच को भी चुनौती दी। बदलाव धीरे-धीरे आता है, पर ठहरता नहीं।”


संदेश: बेटियाँ जन्म से ही किसी से भी कम नहीं होतीं। समाज तभी बदलता है जब हम अपने-अपने घरों में सही सोच अपनाएँ। बदलाव छोटा हो सकता है पर उसका असर गहरा होता है—आख़िरकार एक नन्ही आशा किसी भी अँधेरे को रोशन कर सकती है।

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