❝ अपनों का मोल ❞
सुबह की ठंडी हवा में सुनीता आँगन में झाड़ू लगा रही थी। तभी उसकी सास, सावित्री देवी, बरामदे से बोलीं —
“बहु, ज़रा चाय बना देना, सिर में दर्द हो रहा है।”
सुनीता ने झाड़ू एक तरफ रख दी और बोली,
“अभी लाई मम्मी जी, पाँच मिनट रुक जाइए।”
चाय बनाते हुए उसके मन में बहुत सी बातें चल रही थीं। उसे याद आया, जब वो इस घर में नई-नई आई थी, तो सब कितने प्यार से बात करते थे। मगर अब हालात बदल गए थे। पति राजेश तो सुबह ऑफिस चला जाता, रात को थका हुआ लौटता, और सास-ससुर का सारा ध्यान अब छोटे बेटे अमन और उसकी पत्नी रेखा पर था।
रेखा पढ़ी-लिखी, कामकाजी और चालाक थी। वो हमेशा ऐसे बात करती कि सबको लगे कि वो कितनी समझदार है, मगर असल में वो अपना मतलब निकालना जानती थी।
सुनीता को लगता कि वो चाहे कितना भी करे, किसी को नज़र नहीं आता।
एक दिन सावित्री देवी ने कहा —
“देखो बहु, इस बार दिवाली की पूरी तैयारी तुम्हें करनी होगी। रेखा तो ऑफिस जाती है, उसे वक्त नहीं मिलेगा।”
सुनीता बोली —
“ठीक है मम्मी जी, मैं संभाल लूंगी।”
वो मुस्कुरा तो दी, लेकिन मन ही मन सोचने लगी —
“जब पैसे खर्च करने की बात आएगी, तो रेखा का नाम ले लेंगी, और काम की बात आएगी तो मैं!”
फिर भी उसने बिना कुछ कहे सब शुरू कर दिया।
घर की दीवारें पोंछी, परदे धोए, मिठाई के लिए सामान लाया। दिन-रात एक कर दिया।
दिवाली के दिन पूरा घर चमक रहा था। सबने तारीफ की —
“वाह, क्या सफाई की है! क्या सजावट है!”
रेखा बोली —
“मम्मी जी, मैंने तो बस थोड़ा-सा बताया था, बाकी सुनीता भाभी ने तो कमाल कर दिया।”
सावित्री देवी मुस्कुरा दीं, लेकिन उन्होंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।
दिवाली बीत गई। कुछ दिन बाद, अचानक सावित्री देवी बीमार पड़ गईं। डॉक्टर ने कहा —
“उन्हें आराम और देखभाल की ज़रूरत है।”
रेखा ने तुरंत कहा —
“मम्मी जी, मुझे ऑफिस जाना होता है, मैं तो नहीं संभाल पाऊँगी।”
सुनीता ने बिना कुछ कहे, अपनी सास की सेवा शुरू कर दी।
दवाई देना, खाना बनाना, रात में उठकर देखना — सब उसने ही किया।
एक दिन रात को सावित्री देवी ने देखा कि सुनीता उनके सिर पर तेल लगा रही है। वो बोलीं —
“बेटा, तू तो बिना कुछ कहे सब कर देती है। कभी शिकायत नहीं करती।”
सुनीता मुस्कुराई —
“मम्मी जी, आपने मुझे बेटी बनाया है, तो फर्ज़ भी मेरा ही है।”
सावित्री देवी की आँखें भर आईं।
धीरे-धीरे वो ठीक हो गईं। कुछ दिनों बाद परिवार में सभी को वकील से मिलने बुलाया गया। राजेश और अमन दोनों को लगा शायद ज़मीन या घर के कागज़ों की बात होगी।
वकील ने कागज़ खोलकर पढ़ा —
“सावित्री देवी ने अपनी वसीयत में लिखा है कि इस घर का आधा हिस्सा सुनीता के नाम रहेगा, और आधा उनके दोनों बेटों में बराबर बंटेगा।”
रेखा चौंक गई —
“मम्मी जी, आपने ये क्या किया? भाभी तो घर पर रहती हैं, कुछ कमाती भी नहीं!”
सावित्री देवी ने शांत स्वर में कहा —
“रेखा, पैसा कमाना बड़ी बात नहीं है, पर किसी का दिल जीतना बड़ी बात है। सुनीता ने बिना कुछ कहे हमारी सेवा की, हमारे लिए वक्त निकाला। यही असली संपत्ति है।”
सुनीता की आँखों में आँसू आ गए।
राजेश ने अपनी माँ का हाथ पकड़ा —
“माँ, आपने बिल्कुल सही किया। अब हमें भी समझ आ गया कि कौन अपने हैं।”
रेखा झेंप गई और सिर झुका लिया।
उस दिन के बाद घर का माहौल बदल गया।
रेखा ने भी धीरे-धीरे अपने व्यवहार में सुधार किया।
सुनीता अब सिर्फ “घर की बहु” नहीं, बल्कि “घर की शान” बन गई।
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कहानी की सीख:
जो बिना स्वार्थ के दूसरों की सेवा करता है,
उसे हमेशा सम्मान और प्यार मिलता है।
पैसा और दिखावा कभी दिल नहीं जीत सकते,
पर सच्चाई और अपनापन ज़रूर जीत लेता है।

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