❝ ममता का रिश्ता ❞

 


सुबह के सात बजे होंगे। नीलम ने बच्चों को स्कूल की बस में बिठाया, रवि के लिए टिफिन पैक किया और दरवाजे तक विदा करने गई।

“रवि, रास्ते में थोड़ा ध्यान से जाना, आज कोहरा कुछ ज्यादा है,” उसने कहा।


रवि मुस्कुराए, “हाँ भई, तुम्हारी डाँट के डर से अब तो सीधी सड़क भी टेढ़ी नहीं लगती।”

दोनों हँस पड़े।


घर लौटकर नीलम ने हाथ-मुँह धोया, फिर बालकनी में बैठकर चाय का कप उठाया ही था कि फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर दीदी अंजना का नाम चमक रहा था।


“हैलो दीदी... इतनी सुबह?”

दूसरी तरफ से अंजना की धीमी पर घबराई आवाज आई —

“नीलम... माया भाभी की तबियत बहुत बिगड़ गई है। पिछले कई दिनों से अस्पताल में हैं। अब डॉक्टर कह रहे हैं कि हालत नाज़ुक है। वो... वो तुझसे मिलना चाहती हैं। अगर हो सके तो आज ही चली आना।”


नीलम के हाथ से कप छूट गया।

“क्या कह रही हो दीदी! भाभी बीमार हैं और मुझे अभी पता चल रहा है?”

“भाभी ने मना किया था बताने से... कहती थीं कि तू परेशान हो जाएगी।”


नीलम ने गहरी साँस ली, “मैं आज ही आती हूँ दीदी, शाम की ट्रेन पकड़ लूंगी।”

इतना कहकर उसने फोन रख दिया।


घर के हर कोने में अब बेचैनी घुल गई थी। उसने जल्दी-जल्दी बैग निकाला, बच्चों के कपड़े और अगले दो दिन का खाना तैयार किया।

कामवाली को बुलाकर बोली, “रीना, मैं दो दिन के लिए बाहर जा रही हूँ। बच्चों का खाना फ्रिज में रखा है, समय पर गरम कर देना।”

रीना ने पूछा, “सब ठीक तो है दीदी?”

नीलम बस इतना कह पाई — “भाभी बीमार हैं…”


रवि को फोन लगाया।

“रवि... माया भाभी बहुत बीमार हैं, शायद किडनी की समस्या है। मैं आज ही जा रही हूँ।”

रवि शांत स्वर में बोले, “तुम बिल्कुल चिंता मत करो, यहाँ सब मैं संभाल लूंगा। बस पहुँचकर फोन कर देना।”


शाम की ट्रेन जैसे ही चली, नीलम खिड़की के पास बैठी बाहर देखती रही। खेत, पेड़, गाँव — सब धुंधले से दिख रहे थे, लेकिन उसके मन में साफ़-साफ़ दिख रहा था अतीत का हर वो पल जब माया भाभी ने उसे माँ की तरह संभाला था।



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बचपन की यादें...


नीलम बहुत छोटी थी जब एक सड़क हादसे में उसके माता-पिता का देहांत हो गया था। उसे बस इतना याद था कि सब लोग रो रहे थे और वो कोने में बैठी डर के मारे कुछ समझ नहीं पा रही थी।


फिर एक दिन घर में बड़ा झगड़ा हुआ था —

किसी ने कहा, “अब इस बच्ची को अनाथालय भेज देना ही ठीक है। कौन पालेगा इसे?”

और तभी माया भाभी ने आवाज उठाई —

“कोई नहीं भेजेगा इसे कहीं! ये बच्ची हमारे घर की है, हमारे दिल की है। अब से ये मेरी बेटी है।”


सब लोग चुप हो गए थे। भाभी सच में कई दिनों तक खाना नहीं खाई थीं, जब तक सबने मान नहीं लिया।

नीलम को गोद में लेकर कहा करतीं,

“अब तू मेरी बिटिया है, समझी? जैसे दीदी, वैसे तू।”


वो बात नीलम के दिल में हमेशा के लिए बस गई थी।



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नीलम बड़ी हुई तो स्कूल, कॉलेज सब भाभी ने ही करवाया। फीस जमा करने से लेकर किताबें खरीदने तक — हर काम वो खुद करतीं।

जब कभी कोई पूछता, “भाभी, ये आपकी बेटी है?”

तो वो हँसकर कहतीं, “हाँ, मेरी सबसे प्यारी बेटी।”


नीलम की शादी भी उसी लड़के से करवाई थी जिसे वो पसंद करती थी।

भाभी बोली थीं, “बेटी की खुशी सबसे ज़रूरी होती है, चाहे वो सगी हो या नहीं।”


शादी के बाद भी हर त्योहार पर नीलम के लिए मिठाई, साड़ी और बच्चों के लिए खिलौने भेजतीं।

नीलम के बच्चे उन्हें “नानी” बुलाते थे।

रिश्ता तो चाचा-भतीजी का था, लेकिन अपनापन हर सीमा पार कर गया था।



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ट्रेन तीन घंटे बाद स्टेशन पहुँची। नीलम ने भैया को फोन किया,

“भैया, आप किसी को मत भेजिए, मैं खुद कैब लेकर अस्पताल आ रही हूँ।”


अस्पताल के दरवाजे तक पहुँचते-पहुँचते उसका दिल धक-धक कर रहा था।

कमरे में दाखिल होते ही उसने देखा — माया भाभी बहुत कमजोर लग रही थीं। चेहरा पीला, आँखों के नीचे काले घेरे, पर जैसे ही उन्होंने नीलम को देखा, हल्की मुस्कान आई और आँखों से आँसू बह निकले।


“आ गई मेरी बिटिया…” उन्होंने धीमे से कहा।


नीलम झट से पास जाकर उनका हाथ थाम लिया।

“भाभी, ये क्या हाल बना लिया आपने? भैया ने बताया क्यों नहीं?”

भाभी ने बस उसकी हथेली दबाई, “बिटिया, तुझे परेशान नहीं करना चाहती थी।”


नीलम ने गुस्से और दुःख में भैया की ओर देखा,

“भैया, आपने क्यों छिपाया मुझसे? क्या मैं अपनी माँ की बेटी नहीं हूँ?”

भैया की आँखें भर आईं, “डॉक्टर बोले हैं कि किडनी फेल हो गई है, और ब्लड ग्रुप किसी से मैच नहीं हो रहा। भाभी ने कहा था कि नीलम को मत बताना, उसकी गृहस्थी में परेशानी मत डालो।”


नीलम रोते हुए बोली,

“अगर मैं सगी बेटी होती तो क्या तब भी नहीं बताते? भैया, आप भूल गए — भाभी ने मुझे जन्म नहीं दिया, पर जीवन ज़रूर दिया है।”



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बलिदान का निर्णय...


रात भर नीलम अस्पताल में भाभी के सिरहाने बैठी रही। उनके हर साँस की आवाज उसे भीतर तक तोड़ रही थी।

सुबह उसने फैसला ले लिया।


डॉक्टर के पास जाकर बोली,

“डॉक्टर साहब, मैं अपना टेस्ट करवाना चाहती हूँ। शायद मेरा ब्लड मैच हो जाए।”

डॉक्टर ने उसे देखा, “आपको पता है किडनी डोनेट करना आसान नहीं है?”

नीलम ने दृढ़ स्वर में कहा, “मेरे लिए तो आसान है। क्योंकि ये शरीर उन्हीं के दिए संस्कारों से बना है।”


टेस्ट हुआ, और दोपहर में रिपोर्ट आई — ब्लड ग्रुप मैच हो गया था।


भैया हैरान रह गए।

“नीलम! तू... तू अपनी किडनी देना चाहती है?”

“हाँ भैया,” नीलम मुस्कुराई, “अब वक्त है कि मैं अपनी माँ को वापस जीवन दूँ।”


भाभी को जब पता चला, उन्होंने सिर हिला दिया,

“नहीं बिटिया, मैं तेरा कुछ नहीं लूँगी।”

नीलम ने उनके पास झुककर कहा,

“जब आपने मुझे जीवन दिया था, तब तो आपने नहीं पूछा था कि मैं तैयार हूँ या नहीं। अब मेरी बारी है माँ... मुझे बेटी होने का हक़ मत छीनिए।”


भाभी चुप हो गईं, और उनकी आँखों से दो आँसू गिर पड़े।



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नया जीवन..


ऑपरेशन सफल रहा। कुछ दिन बाद भाभी धीरे-धीरे ठीक होने लगीं।

भैया हर पल नीलम का हाथ पकड़कर कहते,

“बिटिया, तूने जो किया वो कोई सगी भी नहीं कर सकती।”

नीलम मुस्कुरा देती, “भैया, सगी तो भाभी भी नहीं थीं, पर उन्होंने माँ से बढ़कर प्यार दिया।”


एक शाम, जब सब ठीक था, भाभी ने उसे पास बुलाया।

“नीलम, तूने अपनी माँ को वापस लौटा दिया। तेरा एहसान मैं कैसे चुकाऊँ?”

नीलम ने भरे गले से कहा,

“माँ, बेटी और माँ के बीच कोई एहसान नहीं होता, बस एक रिश्ता होता है — ममता का रिश्ता।”


भाभी ने उसे सीने से लगा लिया।

कमरे में बस एक सन्नाटा था — जिसमें आभार, प्रेम और अपनापन घुला हुआ था।



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कुछ महीनों बाद सब सामान्य हो गया। नीलम वापस अपने शहर लौट आई, लेकिन अब हर हफ्ते फोन करके भाभी का हाल लेती।

कभी भाभी कहतीं, “अब तू अपने बच्चों पर ध्यान दे,”

तो नीलम मुस्कुराती, “माँ, अब तो आप ही मेरा बच्चा बन गई हैं।”


रवि ने एक दिन कहा,

“नीलम, मैंने बहुत रिश्ते देखे हैं, पर तेरे और माया भाभी के बीच जो बंधन है, वो सिर्फ भगवान ही बना सकता है।”

नीलम ने कहा,

“हाँ रवि, कुछ रिश्ते खून से नहीं — दिल से पैदा होते हैं।”



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संदेश


रिश्तों का मूल्य खून के रिश्ते से नहीं, भावना से तय होता है।

कभी-कभी जो हमें जन्म नहीं देता, वही हमें जीवन देना सिखा देता है।

माया भाभी और नीलम की कहानी यही बताती है —

ममता से बना रिश्ता सबसे सच्चा होता है।


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