❝ मां का सहारा ❞

 


पिताजी को गुज़रे हुए अब पूरे दो महीने हो चुके थे। घर जैसे अब भी उनके बिना अधूरा लग रहा था। पहले जो घर हंसी और चाय की खुशबू से भरा रहता था, अब वहां हर चीज़ खामोश लगती थी। मां दिनभर पूजा के कमरे में बैठी रहतीं, किसी से ज़्यादा बात नहीं करतीं।


मैं, मेरी पत्नी नेहा और हमारी छोटी बेटी काव्या — हम तीनों अब मां के साथ ही रह रहे थे। शुरू में तो मैंने सोचा था कि मां धीरे-धीरे संभल जाएंगी, लेकिन उनकी चुप्पी बढ़ती जा रही थी। हर दिन उन्हें और ज़्यादा खोया हुआ देखना मेरे लिए बहुत मुश्किल था।


नेहा भी कुछ नहीं कहती थी, बस चुपचाप अपना काम करती। वह जानती थी कि मां उससे कभी बहुत करीब नहीं रहीं। शादी को छह साल हो चुके थे, लेकिन उनके बीच कभी खुलापन नहीं आया। मां हमेशा थोड़ी सख्त रहीं और नेहा, जो बहुत संकोची स्वभाव की थी, उनसे बातचीत करने में झिझकती।


लेकिन जब से पिताजी गए थे, नेहा में बदलाव आने लगा।

वह रोज़ सुबह चाय बनाकर मां के कमरे में जाती, धीरे से कहती —

"मां, ज़रा ये चाय पी लीजिए, ठंडी हो जाएगी।"

मां बस "रख दो" कहकर फिर अपने विचारों में खो जातीं।


पहले-पहल तो मैं भी सोचता था कि नेहा क्यों कोशिश कर रही है — आखिर मां अब भी कोई जवाब नहीं देतीं। लेकिन नेहा ने हार नहीं मानी। वह मां के लिए उनके पसंदीदा खाने बनाने लगी — लौकी का रायता, बेसन की कढ़ी, और कभी-कभी चूड़ा-दही, जो मां पिताजी के साथ नाश्ते में खाया करती थीं।


धीरे-धीरे नेहा ने मां से बातें करने के छोटे-छोटे बहाने खोज लिए।

“मां, वो पुरानी साड़ी वाली अलमारी में रख दूं क्या?”

“मां, ये तुलसी के पौधे में पानी डाल दूं?”

“मां, पिताजी के फोटो पर नया फूल रख दूं?”


पहले मां सिर हिला देतीं, फिर कुछ दिन बाद खुद बोलने लगीं —

“हाँ नेहा, आज तुलसी में पानी डालना मत भूलना।”


यही छोटे-छोटे संवाद अब मां और नेहा के बीच पुल बनने लगे।


एक दिन शाम को जब मैं दुकान से लौटा, तो देखा मां और नेहा दोनों आंगन में बैठी थीं। नेहा ने उनके बालों में तेल लगाया हुआ था, और मां कुछ कह रही थीं — हल्की मुस्कान के साथ। मैंने सालों बाद मां के चेहरे पर वो मुस्कान देखी थी।


नेहा ने मुझे देखा तो आंखों से ही इशारा किया — “धीरे बोलो, मां हंस रही हैं।”

मुझे नहीं पता क्यों, उस पल मेरा गला भर आया।


काव्या भी अब दादी से खेलने लगी थी।

“दादी, स्कूल में मुझे स्टार मिला!”

मां हंस पड़ीं — “अच्छा! तो अब हमारी बिटिया पढ़ाई में भी आगे निकली।”


घर जैसे फिर से जी उठ रहा था।


कुछ दिन बाद मेरी बहन पूजा अपने पति और बच्चों के साथ आई। मां उसे देखकर बहुत खुश हुईं।

पूजा ने मुझसे कहा,

“भैया, भाभी ने मुझे खुद फोन किया था आने के लिए। कितनी बार बोला कि मां अकेली हैं, थोड़ा वक्त निकालो। पहले तो मैं सोच भी नहीं सकती थी कि भाभी ऐसे कहेंगी।”


फिर उसने मुस्कुराते हुए कहा —

“भाई, मुझे तो लगता था कि भाभी मुझे पसंद नहीं करतीं, पर असल में मैंने ही उन्हें कभी समझा नहीं। मुझसे ज़्यादा उन्होंने मां का ख्याल रखा है।”


मां ने भी वहीं बैठे-बैठे कहा —

“हाँ बेटा, नेहा ने तो मुझे दोबारा जीना सिखा दिया है। जब तेरे पिताजी गए थे ना, तो लगा था कि अब सब खत्म। लेकिन इसने धीरे-धीरे मेरा हाथ पकड़ लिया।”


मैंने नेहा की तरफ देखा। वह रसोई में खड़ी चाय बना रही थी।

मुझे लगा, जैसे इस घर की दीवारें अब फिर से सांस लेने लगी हैं।


मां ने कहा —

“बेटा, जीवन में रिश्ते बोलने से नहीं, निभाने से बनते हैं। तेरे पिताजी हमेशा कहा करते थे — ‘बेटा, बहू को बेटी की तरह रखो।’ आज समझ में आया कि बहू भी मां बन सकती है, अगर घर उसे अपनाने दे।”


उस शाम सब साथ बैठकर खाना खा रहे थे। मां ने पहली बार नेहा से कहा —

“नेहा, ज़रा दही देना, तेरे हाथ का बनाया रायता बहुत अच्छा है।”


नेहा मुस्कुरा दी।

और उस मुस्कान में मुझे लगा — अब यह घर पूरा हो गया है।



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संदेश:


कभी-कभी रिश्ते बोलकर नहीं, चुपचाप निभाकर अपनेपन में बदल जाते हैं।

समय और संवेदनशीलता ही वो डोरी है, जो दूरियों को भी प्यार में बदल देती है।



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