❝ अधूरी चिट्ठी ❞

 




“माँ, ये पुराना ट्रंक क्यों खोल रही हो?”

आर्या ने पूछा जब उसने अपनी माँ सुजाता को पुराने कपड़ों और पीले पड़े लिफाफों में कुछ ढूँढते देखा।


सुझाता ने धीमे स्वर में कहा —

“बस यूँ ही, कुछ यादें संभाल रही हूँ।”


वो ट्रंक उनके पुराने घर से लाया गया था, जिसमें पुराने फोटो, चिट्ठियाँ, और कुछ भूली बातें छिपी थीं। लेकिन उनमें से एक चिट्ठी ऐसी थी जिसे सुजाता ने आज तक किसी को नहीं दिखाई थी।


वो चिट्ठी उसके पति, राजीव की थी — जो बीस साल पहले घर छोड़कर चला गया था और कभी वापस नहीं आया।



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सालों पहले, जब सुजाता की शादी राजीव से हुई थी, तो वह एक सादा, ईमानदार इंसान था। नौकरी छोटी थी, लेकिन सपने बड़े थे। शादी के दो साल बाद ही उनकी बेटी आर्या पैदा हुई। घर में खुशियाँ थीं, लेकिन हालात कठिन थे।


राजीव का कारोबार घाटे में चला गया, कर्ज बढ़ गया, और दिन-रात चिंता ने उसे तोड़ दिया।


एक दिन अचानक वह बिना बताए चला गया।

बस एक चिट्ठी छोड़ गया —

“मैं नाकाम आदमी हूँ, तुम दोनों को दुख नहीं दे सकता। जब सब ठीक होगा, लौट आऊँगा।”


सुझाता ने इंतज़ार किया — एक दिन, एक महीना, एक साल... फिर साल दर साल। लेकिन वो नहीं लौटा।


समाज ने उसे “त्यागी हुई औरत” कहा, रिश्तेदारों ने ताने मारे, मगर सुजाता ने सिर झुकाए सब सह लिया। उसने अपनी बच्ची को पालने में पूरी ज़िंदगी लगा दी।

वह रोज़ आर्या से यही कहती —

“तुम्हारे पापा बहुत अच्छे इंसान हैं, बस थोड़े हालातों से हार गए।”



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बीस साल बीत गए।

अब आर्या डॉक्टर बन चुकी थी। उसकी शादी तय हो चुकी थी।

माँ-बेटी का जीवन ठीक चल रहा था, जब एक दिन अस्पताल से फोन आया।


“मैम, हमारे पास एक मरीज़ है — राजीव शर्मा। उन्होंने आपको अपने रिश्तेदार के रूप में लिखा है।”


सुझाता एक पल के लिए रुक गई, मानो दिल की धड़कन थम गई हो।


दिल धड़क उठा।

“राजीव...”

वो नाम जैसे उसके अतीत से निकलकर सामने खड़ा हो गया।


वो तुरंत अस्पताल पहुँची।

कमरे में एक कमजोर, बूढ़ा आदमी लेटा था। बाल सफेद, चेहरा झुर्रियों से भरा, लेकिन आँखें वही थीं — वो ही नर्म और शर्मिंदा आँखें।


राजीव ने उसे देखा, होंठ काँपे, आवाज़ बमुश्किल निकली —

“सुझाता...”


उस पल में बीस साल का दर्द, गुस्सा, और अधूरा इंतज़ार जैसे एक साथ उमड़ आया।

लेकिन सुजाता बस चुप रही।



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राजीव ने धीमे स्वर में कहा —

“मैं बहुत कोशिश करता रहा लौटने की... पर तब तक सब कुछ खत्म हो चुका था। कर्ज़, बीमारी, और शर्म ने मुझे निगल लिया। मैंने सोचा, अगर लौट आया तो तुम और आर्या फिर उसी गरीबी में फँस जाओगी। इसलिए चला गया।”


उसकी आँखों में सच्चाई थी — और पछतावा भी।


“हर साल, मैं तुम्हारे भेजे हुए त्योहार के संदेश पढ़ता था, आर्या की तस्वीरें देखता था। बस डरता था — क्या अब लौटने की जगह बची है?”


सुझाता ने उसकी तरफ देखा, आँखों से आँसू बह निकले, लेकिन चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था।


“अगर तुम लौट भी आते, तो क्या बदल जाता राजीव? ज़िंदगी हमें वैसे ही आगे खींच लाती जैसे नदी अपने किनारे को खींच ले जाती है।”


राजीव की साँसें तेज़ चलने लगीं। उसने काँपते हाथ से कुछ पकड़ाया —

वो वही चिट्ठी थी जिसे उसने सालों पहले लिखी थी लेकिन अधूरी छोड़ दी थी।

उसके आख़िरी शब्द थे —

“अगर कभी लौट सका, तो बस इतना कहूँगा — माफ़ कर दो।”



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सुझाता ने वह चिट्ठी अपने सीने से लगाई।

उसने कहा —

“राजीव, मैंने तुम्हें बहुत पहले ही माफ़ कर दिया था। शायद इसलिए मैं आज भी टिक पाई हूँ।”


उसके चेहरे पर शांति थी।

राजीव की आँखों में भी एक सुकून उतर आया।

कुछ ही देर बाद, वह हमेशा के लिए सो गया — जैसे किसी ने उसे सारे बोझों से मुक्त कर दिया हो।



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कुछ महीनों बाद आर्या की शादी हुई।

सुझाता ने पुराने ट्रंक को फिर खोला।

अब उसमें बस एक चिट्ठी रखी —

“जाने वाले को दोष मत दो, जाने देना भी एक प्रेम होता है।”


उसने ट्रंक बंद किया, आसमान की ओर देखा और मुस्कुरा दी।

दिल में कोई ग़ुस्सा नहीं था, बस एक शांत आशीर्वाद था —

क्योंकि त्याग के बाद जो माफ़ी आती है, वही असली मुक्ति होती है।



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सीख:


कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसे मोड़ पर लाती है जहाँ हम “सवाल नहीं, शांति” चुनते हैं।

त्याग करने

 वाले को दोष देने की बजाय, अगर हम माफ़ कर दें — तो ज़िंदगी हमें सुकून का सबसे बड़ा तोहफ़ा देती है।

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