❝ माँ की चुप्पी ❞
संध्या हमेशा से शांत स्वभाव की थी। ज़्यादा बोलती नहीं थी, लेकिन उसकी आँखों में हमेशा एक अनकही कहानी तैरती रहती थी। उसकी बेटी रिद्धि अब सत्रह साल की हो चुकी थी — समझदार, जिद्दी और आज की पीढ़ी की तरह हर चीज़ को सवालों की नज़र से देखने वाली।
एक दिन स्कूल से लौटते वक्त रिद्धि ने गुस्से में दरवाज़ा जोर से बंद किया।
“माँ, आप समझती ही नहीं हैं मुझे! हर चीज़ में टोकती रहती हैं!”
संध्या ने बस धीमे से कहा,
“ठीक है बेटा, खा ले खाना जब मन हो।”
और फिर चुप हो गई।
रिद्धि और भी नाराज़ हो गई — “आप कभी कुछ कहती क्यों नहीं? आपको गुस्सा भी नहीं आता?”
संध्या मुस्कुराई, पर कुछ नहीं बोली।
रिद्धि कमरे में चली गई, लेकिन उसके मन में माँ की वो शांत मुस्कान गूँजती रही।
रात को जब रिद्धि सो रही थी, संध्या बरामदे में बैठी आसमान को देख रही थी।
बरसों पहले जब वो रिद्धि की उम्र की थी, तब उसके भी कई सपने थे — पढ़ने के, आगे बढ़ने के, दुनिया देखने के।
लेकिन हालात ऐसे बने कि शादी जल्दी हो गई। पति रवि अच्छे थे, पर उनका स्वभाव थोड़ा सख्त था।
शादी के बाद संध्या ने घर और रिश्तों को सँभालना सीखा। जब रिद्धि पैदा हुई, तो संध्या ने मन ही मन ठान लिया था —
“मेरी बेटी को मैं वो सब दूँगी जो मुझे नहीं मिला।”
पर शायद यही सोच कभी-कभी दूरी का कारण भी बन गई।
वो अपनी भावनाएँ शब्दों में नहीं कह पाती थी, बस हर बात में रिद्धि की सुरक्षा ढूँढती थी।
“संध्या, लड़की बड़ी हो रही है, उसे थोड़ा आज़ाद छोड़ो,” पड़ोसन अक्सर कहती।
पर संध्या का जवाब हमेशा एक ही होता,
“वो मेरी साँस है, उसे तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए।”
एक शाम रिद्धि ने कहा,
“माँ, मैं कॉलेज ट्रिप पर जा रही हूँ — तीन दिन के लिए।”
संध्या का चेहरा बदल गया,
“तीन दिन? बेटा, इतनी दूर? वहाँ कोई जान-पहचान नहीं है…”
“बस माँ! मैं अब बच्ची नहीं हूँ। सबके माता-पिता भेज रहे हैं। सिर्फ़ आप ही हैं जो डरती रहती हैं।”
रिद्धि की आवाज़ ऊँची हो गई।
संध्या कुछ बोलना चाहती थी, पर शब्द गले में अटक गए।
वो चुपचाप कमरे से बाहर चली गई।
अगली सुबह रिद्धि ने देखा — माँ ने उसका बैग पैक कर दिया था, कपड़े सलीके से रखे थे, और एक छोटा सा लिफाफा भी रखा था।
उस पर लिखा था — “अपना ध्यान रखना, माँ।”
रिद्धि ने सोचा, कितनी अजीब हैं माँ… कहती कुछ नहीं, पर सब कर देती हैं।
ट्रिप के दूसरे दिन फोन आया — बस खराब हो गई थी, और कुछ बच्चे ज़रा दूर वाले ढाबे में रुके थे।
रिद्धि भी वहीं थी, लेकिन रास्ता सुनसान था।
संध्या का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा।
उसने लगातार फोन मिलाया, पर नेटवर्क नहीं था।
रात के दो बजे तक वो जागती रही, भगवान से प्रार्थना करती रही।
सुबह जब रिद्धि का कॉल आया — “माँ, हम सब ठीक हैं।”
तो संध्या फूट-फूटकर रो पड़ी।
फोन पर रिद्धि ने पहली बार माँ की ऐसी आवाज़ सुनी — डर और प्यार से भरी हुई।
“माँ… आप रो क्यों रही हैं? मैं तो ठीक हूँ…”
“बस ऐसे ही, कुछ नहीं बेटा,” संध्या ने जवाब दिया और आंसू पोंछ लिए।
जब रिद्धि घर लौटी, तो माँ ने उसे गले लगा लिया।
पहली बार रिद्धि ने महसूस किया कि माँ की चुप्पी के पीछे कितनी गहराई है —
हर बार डाँटने के पीछे डर छिपा होता है,
हर बार रोकने के पीछे प्यार।
“माँ, मुझे माफ़ कर दो… मैं समझ नहीं पाई।”
संध्या ने उसके बालों में हाथ फेरा,
“माँ किसी से नाराज़ नहीं होती बेटा, बस डरती है… कि कहीं उसका बच्चा उससे दूर न हो जाए।”
रिद्धि की आँखों से आँसू बह निकले।
उसने माँ को कसकर गले लगा लिया।
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कुछ साल बाद....
समय बीता। रिद्धि कॉलेज से निकलकर नौकरी करने लगी।
एक दिन उसने माँ से कहा,
“माँ, मैं तुम्हारी तरह बनना चाहती हूँ — जो हर बात बिना कहे समझ जाती है।”
संध्या मुस्कुराई,
“तब तो तू मुझसे भी बड़ी हो जाएगी।”
दोनों हँस पड़ीं।
रिद्धि ने महसूस किया कि माँ की चुप्पी दरअसल ममता की भाषा है —
जिसे बोलने की नहीं, महसूस करने की ज़रूरत होती है।
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अंत में...
माँ-बेटी का रिश्ता दुनिया का
सबसे गहरा रिश्ता है।
कभी झगड़े, कभी तकरार, कभी चुप्पी —
पर हर बार उस चुप्पी में छिपा होता है निस्वार्थ प्रेम।

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