🌼 दीया और सासु माँ की कहानी — "दीपावली का दिया"

 



सुबह के आठ बज रहे थे। रसोई से घी की महक पूरे घर में फैल रही थी। दीया रसोई में लगी थी — बेसन के लड्डू बना रही थी। कल दीपावली थी, और यह उसकी शादी के बाद की पहली दीपावली थी।


दीया बहुत उत्साहित थी। बचपन से उसने अपनी माँ को देखा था — दीपावली आने से पहले घर की सफ़ाई, पूजा की तैयारी, दीये सजाना, रंगोली बनाना… सब कुछ कितने प्यार से करती थीं।

अब वो खुद एक नवविवाहिता बहू थी, और अपनी सासु माँ के साथ पहली बार दीपावली मना रही थी।


लेकिन सासु माँ, सुधा देवी, पिछले दो दिनों से मायके गई हुई थीं। वहाँ उनकी बड़ी बहन की तबीयत खराब थी।

दीया सोच रही थी —


> “काश मम्मी जी यहाँ होतीं, तो सब कुछ उनसे पूछकर करती। मुझे तो पूजा का तरीका भी ठीक से नहीं पता…”



वो खुद ही धीरे-धीरे काम कर रही थी।

घर सजाया, फूलों की लड़ियाँ लगाईं, मिठाइयाँ बनाई, लेकिन मन में एक हल्की सी उदासी थी —

क्योंकि सुधा माँ नहीं थीं… और पति अंशुल को भी कल तक ऑफिस के काम से बाहर जाना था।


शाम को जब अंशुल ने कहा —

“दीया, मैं कोशिश करूँगा कि दीपावली की रात तक वापस आ जाऊँ।”

तो दीया ने बस मुस्कुराकर कहा,

“हाँ, जल्दी आ जाना… घर तुम्हारे बिना सूना लगेगा।”



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अगले दिन सुबह, यानि दीपावली की सुबह।

दीया जल्दी उठ गई। घर में अकेले सब काम करना थोड़ा थकाने वाला था, लेकिन उसके चेहरे पर मुस्कान थी।

वो सोच रही थी कि “चलिए, पहली दीपावली है, खुद से सब करूँगी — मम्मी जी को अच्छा लगेगा।”


वो झाड़ू लगाकर, पूजन की चौकी सजा ही रही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बजी।

दरवाज़ा खोला तो सामने सुधा माँ खड़ी थीं।

दीया तो खुशी से उछल पड़ी —

“अरे मम्मी जी! आप आ गईं! मैं तो सोच रही थी आप नहीं आ पाएँगी!”


सुधा माँ ने मुस्कुराते हुए कहा,

“नहीं बहू, कैसे रह सकती थी मैं तुम्हें अकेला छोड़कर? आखिर तुम्हारी पहली दीपावली है!”


दीया ने उनके पैर छुए, फिर उन्हें पानी दिया।

घर में जैसे रौनक सी आ गई थी।


सुधा माँ ने इधर-उधर देखा और बोलीं —

“वाह बहू, तुमने तो सारा घर कितना सुंदर सजा दिया। सच कहूँ तो, मेरी यादें ताज़ा हो गईं।”


दीया शरमा गई,

“मम्मी जी, मैं तो बस आपकी तरह सब कुछ करना चाहती थी। पर पूजा की विधि मुझे ठीक से नहीं पता।”


सुधा माँ बोलीं,

“तुम चिंता मत करो, मैं हूँ न तुम्हारे साथ।”




थोड़ी देर बाद जब दोनों पूजा की तैयारी कर रही थीं, तभी सुधा माँ की आँखें अचानक भर आईं।

दीया ने देखा —

“क्या हुआ मम्मी जी? आँखों में आँसू क्यों?”


सुधा माँ ने चुपचाप दीपक में बाती डालते हुए कहा,

“कुछ नहीं बहू… बस पुराने दिन याद आ गए।”


दीया ने ज़िद की —

“नहीं मम्मी जी, बताइए न… दिल हल्का हो जाएगा।”


सुधा माँ ने गहरी साँस ली और बोलीं —

“बेटा, जब मेरी शादी हुई थी, तब मेरी पहली दीपावली थी। मैं बहुत खुश थी।

पूरे दिल से तैयारी की थी, अपने हाथों से दीये बनाए, मिठाइयाँ तैयार कीं।

लेकिन… मेरी सासु माँ को मुझसे कोई खास लगाव नहीं था।

वो हर काम में कमी निकालती थीं। उस दिन भी जब मैंने पूजा की चौकी सजाई थी, तो बोलीं —

‘अरे, ये क्या कर दिया तूने? ये जगह तो अशुभ होती है!’


फिर उन्होंने पूरा सजाया हुआ सामान उलट दिया था।

मैं कुछ बोल भी नहीं पाई।

रोते-रोते मैंने दीया जलाया, लेकिन मन बुझ गया था…”


उनकी आवाज भारी हो गई थी।

दीया चुपचाप सुन रही थी।

सुधा माँ आगे बोलीं —


“रात को जब तुम्हारे ससुर जी आए, तो उन्होंने पूछा — ‘इतनी उदास क्यों हो?’

मैंने बस इतना कहा — ‘मुझे डर लगता है गलती न हो जाए।’

तब उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा था —


> ‘दीपावली का मतलब ही है — अंधकार मिटाना।

डर भी एक अंधकार है सुधा। उसे मिटा दो।’



उस दिन के बाद मैंने ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपनी बहू को कभी डर में नहीं रखूँगी।

मैं चाहती हूँ कि वो अपने दिल से दीप जलाए, डर से नहीं…”


सुधा माँ ने दीया की ओर देखा —

“और आज वो दिन है जब मैं उस वादे को निभा रही हूँ।”


दीया की आँखों से आँसू गिर पड़े।

उसने सुधा माँ का हाथ पकड़ लिया और बोली,

“मम्मी जी, आपने जो प्यार मुझे दिया है, वो मेरे लिए सबसे बड़ी दीपावली है।”




शाम को जब अंशुल वापस आया, तो उसने देखा —

घर जगमगा रहा था, माँ और पत्नी दोनों मुस्कुरा रही थीं।

दीया सजी हुई थी, माथे पर लाल बिंदी, हाथों में चूड़ियाँ, और आँखों में चमक।


वो मुस्कुराया और बोला,

“लगता है इस बार घर में सिर्फ दीये ही नहीं, दो-दो चाँद चमक रहे हैं।”


सुधा माँ ने हँसते हुए कहा,

“बस यही रोशनी हमेशा बनी रहे।”


दीया ने आगे बढ़कर आरती की थाली उठाई,

फिर माँ और पति दोनों को प्रणाम किया।

दीपक की लौ में तीनों के चेहरे चमक रहे थे —

एक सास जिसने अपने अतीत का दर्द प्यार में बदल दिया,

एक बहू जिसने उस प्यार को अपनाया,

और एक घर… जो सच में रोशनी से भर गया था।



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कहानी का संदेश:


हर

 पीढ़ी की औरत अपने हिस्से का अंधेरा झेलती है,

लेकिन जो अगली पीढ़ी को रोशनी देती है —

वही सच में दीपावली का दिया होती है।

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