💕 ❝ संगिनी – एक अधूरी पूरी कहानी ❞
रीमा जब कॉलेज में थी, तो उसकी सबसे बड़ी खुशी थी — सुबह-सुबह लाइब्रेरी जाना और अपने कोने वाली सीट पर बैठना।
वहीं रोज़ एक लड़का आता था — अंकित। इंजीनियरिंग का छात्र था। हमेशा मुस्कुराता हुआ, और हर बार रीमा के पास वाली टेबल पर बैठ जाता।
धीरे-धीरे किताबों से ज्यादा बातें होने लगीं, और बातों से रिश्ता।
पहली बार किसी ने रीमा के माथे से बाल हटाकर कहा था —
> “तुम्हारी आँखों में बहुत सुकून है, शायद इसी में मेरा घर है।”
रीमा हँस दी थी, पर उस दिन के बाद उसकी आँखों में सुकून से ज़्यादा इंतज़ार बस गया।
दोनों ने तय किया — पढ़ाई पूरी होते ही शादी करेंगे।
चार साल बाद, परिवारों की रज़ामंदी से दोनों की शादी हो गई।
छोटे से शहर में अंकित की नौकरी लगी और रीमा गृहस्थी संभालने लगी।
शुरुआती सालों में सब कुछ सपनों जैसा था।
सपने, जो हर लड़की देखती है — घर, प्यार और मुस्कुराता हुआ पति।
पर वक्त के साथ चीज़ें बदलने लगीं।
अंकित की नौकरी का दबाव बढ़ा, और रीमा की उम्मीदें भी।
बच्चे की बात उठी तो डॉक्टर ने चुपचाप कहा —
> “अंकित के अंदर कुछ शारीरिक कमी है... बच्चे की संभावना कम है।”
रीमा के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
पर उसने कुछ नहीं कहा।
बस बोली —
> “भगवान ने जो दिया है, वही सही।”
दो साल बाद उन्होंने एक अनाथालय से एक बच्चा गोद लिया — आरव।
रीमा ने उसे पहली बार गोद में लिया तो जैसे उसकी दुनिया पूरी हो गई।
वो रोज़ उसके गाल पर प्यार भरा चुम्बन देती और कहती —
> “मेरा बेटा, मेरी दुनिया।”
अंकित भी खुश था, पर कहीं न कहीं उसे ये अहसास उसे भीतर तक सालता था कि वह पिता कहलाने के बावजूद पिता बन नहीं पाया।
रीमा सब समझती थी, पर बोली नहीं।
बस हर दिन थोड़ा और चुप होती गई, थोड़ा और मजबूत।
एक दिन ऑफिस से लौटते वक्त अंकित की बाइक का एक्सीडेंट हो गया।
रीमा के लिए वो पल मानो सब कुछ खत्म होने जैसा था।
कई हफ्ते तक अंकित ICU में रहा।
जब होश आया तो डॉक्टर ने कहा —
> “अंकित के शरीर में एक किडनी पूरी तरह से खराब हो चुकी है।”
रीमा ने बिना सोचे कहा —
> “टेस्ट लीजिए, मेरी किडनी दे दीजिए उन्हें।”
डॉक्टर ने चौंककर कहा —
> “आप सोच लीजिए, एक किडनी में जीना आसान नहीं है।”
रीमा मुस्कुराई —
> “वो मेरी सांस हैं डॉक्टर साहब, मैं उनके बिना जीकर क्या करूँगी?”
ऑपरेशन हुआ, रीमा ने अपनी एक किडनी अंकित को दे दी।
कई दिन ICU में बीते।
दोनों के बीच अब कोई शब्द नहीं थे — बस आँखें थीं जो सब कह देती थीं।
धीरे-धीरे सब ठीक होने लगा।
अंकित की आँखों में अब शर्म नहीं, गर्व था।
रीमा का चेहरा फिर से चमकने लगा — उस सुकून के साथ जो उसने सालों पहले लाइब्रेरी में महसूस किया था।
अंत – जो अधूरा भी पूरा है...
कुछ साल बाद, आरव स्कूल जाने लगा।
अंकित और रीमा रोज़ साथ बैठकर उसकी कॉपी चेक करते।
कभी-कभी अंकित मज़ाक में कहता —
> “अगर तुम्हें कुछ हो गया न रीमा, तो मैं भी नहीं रहूँगा।”
रीमा हँस देती —
> “अब तो तुम्हारी किडनी भी मुझमें है, जाओ कहीं नहीं जा सकते।”
और दोनों हँसते-हँसते एक-दूसरे की ओर देखते रहते —
जैसे दो अधूरी ज़िंदगियाँ एक-दूसरे में पूरी हो गई हों।
कहानी का संदेश:
कभी-कभी समझौता ही सबसे बड़ा प्यार
होता है।
रीमा और अंकित ने “साथ” का असली मतलब समझाया —
जहाँ रिश्ते लहू के नहीं, भावना के धागों से जुड़े होते हैं।

बहुत बढ़िया स्टोरी जिससे जीवन में कुछ सीखने को मिलता ह
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