माँ की मुस्कान
मीना देवी अपनी छोटी-सी बालकनी में बैठी अख़बार पढ़ने की कोशिश कर रही थीं, पर नज़रें बार-बार आंगन में खेलते बच्चों पर चली जातीं।
कभी सोचतीं — “काश मेरा बेटा रोहन भी आज यहीं होता...”
रोहन मुंबई में एक बड़ी कंपनी में सीनियर इंजीनियर था। शादी को तीन साल हो चुके थे, पत्नी नेहा भी वहीं स्कूल में टीचर थी। मीना देवी अपने छोटे शहर लखनऊ में अकेली रहती थीं। पति की मृत्यु को पाँच साल बीत चुके थे।
शुरू-शुरू में रोहन हर सप्ताह माँ को फोन करता था, पर अब तो महीनों बीत जाते, तब जाकर एक कॉल आता —
“माँ, बहुत काम है इन दिनों, ऑफिस का प्रेशर है।”
मीना बस मुस्करा देतीं —
“कोई बात नहीं बेटा, तुम खुश रहो, यही मेरे लिए काफी है।”
पर असल में वे खुश नहीं थीं।
घर में सन्नाटा था। दीवारें तक जैसे उनसे बात करना चाहतीं।
एक दिन मोहल्ले में मीना की सहेली सविता मिलने आई।
“अरे मीना! अब तू अकेली कब तक रहेगी? रोहन को बोल, तुझे अपने पास बुला ले। वहाँ रहना, आराम से, बहू है, पोता-पोती होंगे तो तू भी खुश रहेगी।”
मीना मुस्कुराई,
“हाँ सविता, मैं सोच रही हूँ... पर बच्चों की ज़िंदगी में दखल देना अच्छा नहीं होता।”
सविता बोली, “दखल नहीं, साथ देना चाहिए मीना। जब माँ साथ होती है न, तो घर का सुख बढ़ जाता है।”
उस दिन रात भर मीना सोचती रहीं।
अगले दिन सुबह उन्होंने फैसला कर लिया — “अब मैं मुंबई जाऊंगी।”
कुछ दिनों बाद मीना मुंबई पहुँच गईं।
रोहन और नेहा दोनों एयरपोर्ट पर लेने आए।
नेहा ने प्यार से माँ के पैर छुए —
“माँ, अब आप यहीं रहिए, हम सब मिलकर रहेंगे।”
मीना को बहुत अच्छा लगा।
शुरू के दिन बहुत प्यारे बीते —
सुबह की चाय साथ, शाम को बातें, नेहा उन्हें अपने स्कूल की बातें सुनाती।
रोहन ऑफिस से आता तो माँ के हाथ की बनी खिचड़ी या पूरी-सब्जी खाता और कहता — “माँ, बस आपके हाथ का स्वाद नहीं भूल सकता।”
पर जैसे-जैसे महीने बीते, नेहा के स्वभाव में बदलाव आने लगा।
अब वह जल्दी में रहती, बातों में रूखापन आने लगा।
मीना कुछ बोले तो कहती, “माँ, प्लीज़ मुझे स्कूल की तैयारी करनी है।”
धीरे-धीरे मीना खुद को बोझ महसूस करने लगीं।
कई बार उन्होंने नाश्ता खुद बनाया, और सबके खाने के बाद अकेले बैठकर खा लिया।
बेटा व्यस्त था, उसे कुछ पता ही नहीं चलता।
एक दिन नेहा ने कहा —
“माँ, आप चाहें तो कुछ दिन लखनऊ घूम आइए। मौसम भी अच्छा है वहाँ।”
मीना समझ गईं — यह विनम्र शब्दों में “इशारा” है कि अब उन्हें जाना चाहिए।
वे मुस्कराईं और बोलीं,
“ठीक है बेटा, मैं सोचती हूँ।”
रात में जब सब सो गए, मीना छत पर चली गईं।
आसमान के तारों को देखकर बोलीं —
“हे भगवान, क्या यही मेरी बुढ़ापे की किस्मत है?
जिस बेटे को पालने में पूरी ज़िंदगी बीती, उसी के घर में अब मैं बोझ बन गई हूँ।”
अगली सुबह उन्होंने चुपचाप अपना टिकट करवा लिया।
शाम को रोहन ऑफिस से लौटा तो माँ बोलीं —
“बेटा, मैं अपने घर जाना चाहती हूँ। यहाँ रहकर मुझे अजीब-सा लगता है।”
रोहन चौंक गया —
“माँ, क्या हुआ? नेहा ने कुछ कहा क्या?”
मीना ने कुछ नहीं कहा, बस हल्की मुस्कान दी —
“नहीं बेटा, बस अपने घर की याद आ रही है।”
नेहा चुप थी, न कुछ बोली, न रोकी।
अगले दिन माँ लखनऊ चली गईं।
कुछ दिनों तक रोहन का फोन आता रहा, पर धीरे-धीरे वह भी कम हो गया।
नेहा अपने स्कूल में, रोहन अपने ऑफिस में व्यस्त था।
फिर एक दिन रोहन को ऑफिस में फोन आया —
“मीना देवी हॉस्पिटल में हैं, हार्ट की समस्या हुई है।”
रोहन और नेहा तुरंत लखनऊ पहुँचे।
माँ बेहोश थीं, पर होश में आते ही सबसे पहला शब्द निकला —
“रोहन... तुम आए?”
रोहन रो पड़ा —
“माँ, आपने बताया क्यों नहीं कि आप बीमार हैं?”
मीना ने धीमे से कहा —
“बेटा, हर दर्द बताया नहीं जाता... कुछ चेहरे ही सब कह देते हैं।”
हॉस्पिटल से घर लौटने के बाद नेहा माँ के पास बैठी रही।
मीना ने उसका हाथ पकड़कर कहा —
“नेहा बेटा, मैं बुरी नहीं थी, बस अकेलापन महसूस होता था।”
नेहा की आँखों में आँसू आ गए।
“माँ, मुझे माफ कर दो। मुझे समझने में देर हो गई। मैंने अपने आराम को रिश्तों से बड़ा समझ लिया।”
मीना मुस्कराईं —
“कोई बात नहीं बेटी, माँ का दिल कभी शिकायत नहीं रखता।”
उस दिन के बाद नेहा का व्यवहार पूरी तरह बदल गया।
वह मीना की देखभाल ऐसे करने लगी जैसे अपनी माँ की करती।
घर का माहौल फिर से खुशियों से भर गया।
रोहन ने माँ से कहा —
“माँ, अब हम लखनऊ में ही रहेंगे। कंपनी से ट्रांसफर की बात चल रही है।”
मीना की आँखों से खुशी के आँसू झरने लगे —
“अब मेरी मुस्कान वापस आ गई है, बेटे।”
संदेश:
रिश्तों की नींव प्यार और सम्मान पर टिकती है,
जहाँ “अपनापन” होता है, वहाँ हर घर स्वर्ग बन जाता है।
#MaaKiMuskaan #FamilyBond #IndianEmotions

Post a Comment