❝ अनाथ नहीं हूँ मैं ❞
सुबह के 10 बज चुके थे।
राधा अपनी छोटी सी किराने की दुकान पर बैठी थी। दुकान उसके पति की मौत के बाद ही खोली गई थी। यही अब उसका सहारा था।
पास ही स्कूल से बच्चों की छुट्टी होने वाली थी। रोज की तरह, आज भी एक छोटी बच्ची, लगभग 8 साल की, उसकी दुकान के पास आकर खड़ी हो गई।
“आंटी, एक बिस्किट का पैकेट देना,” बच्ची ने मासूमियत से कहा।
राधा ने मुस्कुराते हुए पूछा – “कौन सा दूँ बेटा? यह वाला या यह?”
“वही वाला जो कल दिया था,” बच्ची बोली।
राधा ने पैकेट बढ़ाया और प्यार से पूछा – “बेटा, नाम क्या है तुम्हारा?”
“अंशिका,” उसने धीरे से कहा।
राधा बोली – “अच्छा, और स्कूल से रोज अकेली आती हो?”
अंशिका ने सिर झुका लिया – “हाँ, मम्मी-पापा दोनों जॉब पर जाते हैं। शाम को ही घर आते हैं। दादी पहले साथ रहती थीं, पर अब नहीं रहतीं।”
राधा को यह सुनकर कुछ अजीब लगा।
उसने पूछा – “क्यों बेटा, दादी कहाँ चली गईं?”
अंशिका बोली – “मम्मी कहती हैं, अब उन्हें अपने भाई के पास रहना चाहिए। क्योंकि यहाँ जगह कम है और उनका ध्यान रखने वाला कोई नहीं।”
राधा चुप रह गई।
कुछ देर बाद बच्ची चली गई, पर राधा का मन वहीं अटक गया।
वह सोचने लगी — “कैसे बेटे-बेटियाँ अपने माता-पिता को ‘जगह की कमी’ बताकर अलग कर देते हैं, और फिर कहते हैं कि बच्चों में संस्कार नहीं हैं।”
दोपहर के वक्त दुकान में भीड़ कम थी। उसी समय एक कमजोर सी वृद्धा आईं — साधारण साड़ी में, चेहरा थका हुआ लेकिन आँखों में गहराई थी।
वह बोलीं – “बिटिया, ज़रा पानी मिलेगा?”
राधा ने तुरंत उन्हें बेंच पर बैठाया, ठंडा पानी दिया और पूछा – “आइए, आराम से बैठिए। क्या आप पास में ही रहती हैं?”
वृद्धा बोलीं – “रहती थी, अब मंदिर के पास वाले आश्रम में रहती हूँ। जब मन बहुत उदास हो जाता है, तो पैदल यहाँ तक चली आती हूँ।”
राधा ने पूछा – “आपका नाम क्या है, आंटी?”
“शकुंतला,” उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
“पहले अपने बेटे-बहू के साथ रहती थी, लेकिन अब उनका घर छोटा हो गया और मेरा दिल बड़ा, इसलिए मैं ही निकल आई,” उन्होंने कड़वाहट छुपाते हुए कहा।
राधा सब समझ गई।
शाम को जब अंशिका फिर बिस्किट लेने आई, तो राधा ने पूछा – “बेटा, क्या तुम्हारी दादी का नाम शकुंतला है?”
अंशिका चौंकी – “हाँ, पर आपको कैसे पता?”
राधा कुछ कह नहीं पाई। बस इतना बोली – “वो बहुत अच्छी हैं, तुमसे मिलने को तरस रही होंगी।”
अंशिका बोली – “मम्मी कहती हैं कि वो जिद्दी हैं, हमेशा अपनी बात मनवाती हैं।”
राधा ने धीरे से कहा – “जिन्होंने हमें चलना सिखाया, कभी-कभी वही जिद करते हैं कि हम इंसान बने रहें।”
रात में राधा सो नहीं पाई।
अगले दिन वह मंदिर के पास वाले आश्रम चली गई।
वहाँ शकुंतला जी को देखा — वह बच्चों को कहानी सुना रही थीं।
उन्हें देखकर राधा के मन में कुछ पिघल गया। उसने कहा – “आंटी, कल मैं आपकी पोती से मिली थी, वह बहुत प्यारी है।”
शकुंतला जी की आँखें भर आईं। “बिटिया, वो बच्ची मेरी धड़कन थी। पर अब मैं उसके लिए सिर्फ याद बन गई हूँ।”
राधा ने उनसे वादा किया – “आपकी धड़कन से मैं रोज़ मिलने ले जाऊँगी।”
कुछ ही दिनों में राधा ने अंशिका की माँ, नीना से दोस्ती कर ली।
राधा ने बहाने से कहा – “नीना, आपकी मम्मी बहुत अच्छी हैं, मैंने उन्हें आश्रम में देखा। वहाँ उनके जैसी औरतें बहुत अकेली हैं।”
नीना ने कहा – “दीदी, अब क्या करें, वक्त नहीं रहता। ऑफिस, बच्ची, घर — सब संभालना मुश्किल है।”
राधा ने मुस्कुराकर कहा – “माँ-बाप वक्त नहीं माँगते, बस थोड़ा सा अपनापन चाहते हैं।”
नीना चुप हो गई।
धीरे-धीरे अंशिका राधा के साथ आश्रम जाने लगी।
वहाँ दादी को देखकर वह दौड़कर उनसे लिपट गई।
“दादी! आप यहाँ क्यों रहती हैं? चलो घर चलते हैं!”
शकुंतला जी ने आँसू पोंछते हुए कहा – “अब मेरा घर यही है, बिटिया।”
लेकिन उस दिन अंशिका ने घर जाकर माँ से कहा –
“मम्मी, अगर हमारे घर में मेरे खिलौनों की इतनी जगह है, तो दादी के लिए क्यों नहीं?”
नीना के हाथ रुक गए।
रात को उसने अपने पति से कहा – “हमसे गलती हुई है। माँ को अपने घर लाना चाहिए।”
अगले ही दिन वे दोनों आश्रम गए और माँ को घर लेकर आए।
अब शकुंतला जी फिर अपने घर में थीं।
राधा ने जब उन्हें देखा, तो उनकी आँखों में चमक थी।
उन्होंने कहा – “बिटिया, भगवान ने मुझे फिर घर दे दिया। और यह सब तुम्हारी वजह से हुआ।”
राधा बोली – “नहीं आंटी, ये सब आपकी पोती की मासूमियत की
जीत है।”
संदेश:
माता-पिता बोझ नहीं, हमारी जड़ हैं।
जड़ों से कटकर कोई पेड़ कभी हरा नहीं रह सकता।
#ParivarKiKahani #DilSeJudeRishte

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