रोटी और इज़्ज़त
सविता देवी रोज सुबह घर के आँगन में झाड़ू लगाती थीं। उम्र साठ के पार हो चुकी थी, लेकिन शरीर अब भी मेहनत का आदी था। बेटा निखिल और बहू रचना के साथ रहती थीं। निखिल शहर की एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था और रचना स्कूल में अध्यापिका थी।
सुबह आठ बजते ही दोनों अपने-अपने काम पर निकल जाते, और पीछे रह जाती सविता देवी — घर की शांति और सन्नाटे में।
उनका काम बस इतना था — दरवाज़ा खोलना, बंद करना और रात में सबके आने तक इंतज़ार करना।
रचना अक्सर कहती —
“माँ जी, अब आप आराम कीजिए, काम करने की ज़रूरत नहीं।”
पर सविता देवी के लिए “आराम” का मतलब था — बिना बोले दिन काटना।
एक दिन दोपहर को सविता देवी के पेट में बहुत दर्द हुआ। सुबह से कुछ खाया नहीं था। रसोई में गईं तो देखा — रचना ने जाते-जाते ताला लगा दिया था।
वो धीरे से कुर्सी पर बैठ गईं, और अपनी पुरानी साड़ी का कोना मुँह पर रख लिया। आँसू अपने आप निकल आए।
तभी पड़ोसन कुसुम आंटी आईं —
“अरे सविता बहन, क्या हुआ? तबियत खराब लग रही है।”
सविता बोलीं —
“बस बहन, थोड़ा चक्कर सा आ गया है। रचना बिटिया स्कूल गई है, तो सोचा उसके आने के बाद कुछ खा लूँगी।”
कुसुम बोली —
“अरे मैं तो कहती हूँ, ये लो मेरे घर की दो रोटी और दाल, पहले कुछ खा लो।”
सविता मुस्करा दीं —
“नहीं बहन, तुम्हें तकलीफ़ क्यों दूँ? तुमने प्यार से दी है, बस आधी रोटी ही काफी है।”
रोटी खाते हुए सविता के चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी — जैसे कई दिनों बाद भूख नहीं, सम्मान मिला हो।
शाम को जब रचना घर लौटी तो देखा — सविता देवी थाली धो रही थीं।
रचना बोली —
“माँ जी, आपने खा लिया?”
सविता बोली —
“हाँ बेटा, खा लिया।”
“पर कैसे? रसोई तो बंद थी?”
सविता मुस्करा कर बोलीं —
“अरे पड़ोसन ने दो रोटी दे दी थी।”
रचना का चेहरा तमतमा गया —
“वाह माँ जी, अब तो आप लोगों से भीख मांगने लगीं! लोग क्या सोचेंगे हमारे बारे में?”
निखिल भी अंदर से निकल आया —
“माँ, ये क्या तरीका है? अगर कुछ चाहिए था तो फोन कर लेतीं।”
सविता बोलीं —
“बेटा, फोन करने से पहले तो किसी के पास बात करने का हक़ होना चाहिए। और फिर मैं कौन हूँ यहाँ? बस एक पुरानी चीज़, जो घर में रह गई है।”
निखिल कुछ कह नहीं पाया।
रचना झुँझलाकर बोली —
“माँ जी, आप हमेशा ये नाटक करती रहती हैं। अगर इतनी तकलीफ़ है तो अपने मायके चली जाइए।”
सविता चुपचाप अपने कमरे में चली गईं। पुराना बक्सा खोला, जिसमें पति की फोटो रखी थी। धीरे से तस्वीर को देखा और बोलीं —
“देख रहे हो ना, अब तुम्हारी सविता किसी की ज़रूरत नहीं रही।”
अगले दिन जब सब ऑफिस और स्कूल चले गए, सविता देवी ने एक छोटा बैग पैक किया, उसमें कुछ कपड़े रखे, और घर के दरवाज़े पर चिट्ठी छोड़ गईं —
> “बेटा, अब मैं तुम्हारे लिए बोझ नहीं बनूँगी। यहाँ खाना भले ही बंद हो, पर इज़्ज़त की रोटी कहीं और मिल जाएगी। मैं वृद्धाश्रम जा रही हूँ। वहाँ हर दिन की रोटी और थोड़ा सुकून मिलेगा।”
जब रचना लौटी और चिट्ठी पढ़ी, उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। निखिल तुरंत वृद्धाश्रम पहुँचा। वहाँ सविता देवी चाय पी रही थीं और आस-पास कुछ बुज़ुर्ग महिलाएँ हँसते हुए बातें कर रही थीं।
निखिल बोला —
“मा, चलिए घर चलते हैं।”
सविता मुस्कराई —
“बेटा, अब ये भी तो घर ही है। यहाँ कोई मुझसे नहीं कहता कि मैं बोझ हूँ। यहाँ मुझे रोटी के साथ सम्मान भी मिलता है।”
निखिल की आँखें भर आईं —
“मा, माफ़ कर दो। हमें देर से समझ आया कि भूख सिर्फ पेट की नहीं होती, इज़्ज़त की भी होती है।”
सविता देवी ने बेटे का हाथ थामा और बोलीं —
“बेटा, अगर किसी दिन किसी माँ के हिस्से की रोटी तुम्हारे हाथ में आए, तो उसे सिर्फ रोटी मत देना, थोड़ी इज़्ज़त भी देना।”
संदेश:
> “भूख सिर्फ पेट की नहीं होती, इज़्ज़त
की भी होती है।”
जो बुज़ुर्गों को रोटी देता है, वो भगवान को भोग लगाता है।
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