दूरी जो रह गई अधूरी

एक भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार का भावनात्मक अल्ट्रा क्लोज़अप पोर्ट्रेट — मां, पिता, बेटा और बेटी सोफ़े पर साथ बैठे हैं, एक-दूसरे का हाथ थामे मुस्कुरा रहे हैं, आंखों में हल्की नमी और चेहरे पर अपनापन झलक रहा है, सुनहरी रोशनी कमरे में फैली हुई है जो परिवार के प्रेम और एकता को दर्शाती है।

 


“स्मिता, जल्दी करो — वरना स्कूल बस निकल जाएगी!”

रवि ने आवाज लगाई, तो स्मिता रसोई से घबराई-सी बाहर आई,

“बस पाँच मिनट, लंच पैक हो गया बस दूध डालना बाकी है।”


रवि और स्मिता दोनों शहर के नामी स्कूल में अध्यापक थे। सुबह की भागदौड़ हर दिन का हिस्सा थी — बेटे आरव (12 साल) और बेटी सिया (8 साल) के साथ।

लेकिन बच्चों के पास अब “माँ की गोद” या “पापा की कहानी” के लिए वक्त कम और मोबाइल ज़्यादा था।



आरव ने टेबल पर बैठे-बैठे बड़बड़ाया —

“माँ, आज भी आप पैरेंट्स डे में नहीं आ पाओगी ना?”


स्मिता ने झेंपते हुए कहा — “बेटा, आज मीटिंग है, लेकिन पापा आएंगे।”

रवि ने अखबार मोड़ते हुए कहा —

“बेटा, कल तेरे रिजल्ट डे पर मैं ऑफिस से जल्दी आऊँगा, प्रॉमिस।”


आरव चुप रहा। उसे ऐसे “प्रॉमिस” की आदत हो चुकी थी।




शाम तक दोनों थके हुए लौटते।

घर आते ही मोबाइल पर काम, स्कूल की कॉपियाँ, और फिर डिनर।

आरव और सिया अपने कमरे में — टीवी और टैबलेट के साथ अकेले।


“स्मिता, कभी लगता है बच्चों से बातें किए ज़माना हो गया?” रवि ने एक दिन कहा।

“हाँ, पर क्या करें? वक़्त ही कहाँ है…?”

दोनों ने खामोशी में कॉफी पी ली।




एक दिन…

शनिवार की सुबह थी।

रवि और स्मिता को स्कूल की वर्कशॉप थी — उन्होंने बच्चों को पड़ोस की आंटी के पास छोड़ दिया।

आरव ने जाते-जाते कहा —

“माँ, आज मेरा प्रोजेक्ट दिखाना है… आप आओगी ना?”

“हाँ बेटा, आ जाऊँगी,” स्मिता ने मुस्कुराते हुए कहा, लेकिन फिर फाइल उठाकर निकल गई।


शाम को जब लौटे, तो घर में सन्नाटा था।

पड़ोसी ने बताया —

“आरव बाथरूम में बेहोश पड़ा था, उसे हॉस्पिटल ले गए हैं!”




रवि और स्मिता भागते हुए पहुँचे।

डॉक्टर ने कहा — “हीट स्ट्रोक हुआ है, बच्चा डिहाइड्रेशन से गिर पड़ा। अब ख़तरे से बाहर है।”


स्मिता के हाथ काँप रहे थे।

रवि ने बच्चे का माथा छुआ,

“आरव… बेटा, हमें माफ़ कर दे।”


आरव ने कमजोर आवाज़ में कहा —

“आपको याद है, आज मेरा साइंस प्रोजेक्ट था? मैंने अवार्ड जीता माँ… पर आप नहीं आए।”


स्मिता की आँखें भर आईं — वह काँपती आवाज़ में बोली,

“अब कभी ऐसा नहीं होगा बेटा…”



कुछ महीने बाद..

अब स्मिता और रवि ने फैसला किया —

सप्ताह में एक दिन “फैमिली डे” रहेगा —

उस दिन न कोई मोबाइल, न कोई स्कूल, न कोई मीटिंग।

सिर्फ घर, बच्चे और बातें।


धीरे-धीरे घर में फिर से हँसी लौट आई।

आरव अब खुश था, सिया भी माँ से कहानियाँ सुनने लगी।


एक शाम रवि ने कहा —

“स्मिता, कभी लगता है हम सब कुछ पाकर भी कुछ खो रहे थे।”

स्मिता ने मुस्कुराकर कहा —

“हाँ रवि, बच्चों का बचपन… जो लौटकर नहीं आता।”




दोस्तों,

आज के भागते-दौड़ते जीवन में हम सब अपने बच्चों को “अच्छा भविष्य” देना चाहते हैं,

पर क्या कभी सोचा है —

उनका वर्तमान कौन संभाल रहा है?


कभी-कभी बच्चों को “समय” देना ही सबसे बड़ी शिक्षा होती है।

हर माँ-बाप को ये याद रखना चाहिए —

“पैसे से घर चलता है, लेकिन प्यार से परिवार।”


कहानी की सीख:


> काम ज़रूरी है, लेकिन बच्चों से जुड़ाव उससे कहीं ज़्यादा ज़रूरी है।

क्योंकि सफलता तब ही पूरी होती है जब साथ में अपने हों।


#MaaAurBeti #DilChhooJaneWaliKahani


No comments

Note: Only a member of this blog may post a comment.

Powered by Blogger.