सेवा और स्वार्थ
“नैना, अब तो तू खुद डॉक्टर बन गई है, अब शादी के बारे में भी सोच ले” मां ने धीरे से कहा।
“मां, मुझे अभी शादी नहीं करनी, मैं पहले कुछ लोगों की ज़िंदगी सँवारना चाहती हूँ,”
नैना ने मुस्कुराकर जवाब दिया और अस्पताल की ड्यूटी के लिए निकल गई।
नैना सरकारी अस्पताल में नर्स थी। बचपन से ही उसका सपना था कि वो लोगों की सेवा करे।
पिता रिक्शा चलाते थे, मां मंदिर में फूल बेचती थीं। गरीबी के बावजूद उन्होंने बेटी को पढ़ाया क्योंकि नैना के मन में एक आग थी — दूसरों का दर्द मिटाने की आग।
हर दिन सुबह सात बजे से रात नौ बजे तक नैना अस्पताल में रहती।
कभी जली हुई औरतें आतीं, कभी बूढ़े-बुज़ुर्ग अकेले पड़े रहते।
कई मरीजों के घरवाले तो दो दिन बाद ही याद करते कि “अरे, अस्पताल में कोई पड़ा है!”
पर नैना के लिए हर मरीज अपना था।
वो बूढ़ी अम्मा, जो तीन महीने से वहीं भर्ती थी, उसे “बेटी” कहकर पुकारती।
नैना हर सुबह उनके लिए चाय लाती, दवा देती और कहती, “अम्मा, आप तो जल्द ठीक हो जाएँगी।”
अम्मा कहतीं, “बेटी, अगर मेरे अपने बच्चों में ज़रा भी तेरे जैसा दिल होता, तो मैं आज अकेली न होती।”
एक दिन अस्पताल में एक अमीर बिजनेसमैन का बेटा, अर्जुन, एक्सीडेंट में भर्ती हुआ।
नैना ने उसकी दिन-रात सेवा की।
तीन महीने में अर्जुन ठीक हो गया।
जाते समय उसने कहा — “नैना, तुम्हारे जैसे लोग ही इस दुनिया में इंसानियत बचाए हुए हैं। मैं चाहता हूँ तुम मेरे अस्पताल में चीफ नर्स बनो, सैलरी दोगुनी मिलेगी।”
नैना मुस्कुरा दी — “धन्यवाद, पर मैं गरीबों के बीच ही रहना चाहती हूँ... वहाँ जिनके पास पैसे नहीं, पर दुआएँ हैं।”
अर्जुन हैरान रह गया।
“लोग तो पैसे के लिए नौकरी बदलते हैं और तुम...?”
नैना बोली — “सेवा को सौदे में नहीं बदला जा सकता।”
कई साल गुजर गए।
नैना अब 38 साल की हो चुकी थी।
पर न शादी, न परिवार — उसका जीवन बस अस्पताल और मरीजों के इर्द-गिर्द था।
एक दिन जब वो अस्पताल पहुँची, तो देखा — उसी अर्जुन की माँ वहाँ भर्ती है।
हार्ट अटैक हुआ था।
अर्जुन के पास अब सब कुछ था — बड़े-बड़े अस्पताल, बंगले, गाड़ियाँ, पर माँ की सेवा करने का वक्त नहीं।
नैना ने फिर वही किया जो हमेशा करती थी —
रात-दिन उनकी देखभाल, दवाइयाँ, खाना, हौसला।
कुछ ही दिनों में अर्जुन की माँ ठीक हो गईं।
डिस्चार्ज के वक्त उन्होंने नैना का हाथ पकड़कर कहा —
“बेटी, तूने तो मुझे फिर से जन्म दिया... तू तो असली भगवान की दूत है।”
नैना की आँखों से आँसू बह निकले।
“अम्मा, अगर सभी अपने माता-पिता की सेवा खुद करें तो किसी को मेरे जैसे की ज़रूरत ही न पड़े।”
अर्जुन शर्म से सिर झुका लिया।
वो जान गया था कि असली अमीरी पैसे की नहीं, दिल की होती है।
समय बीतता गया...
नैना अब उसी अस्पताल में वरिष्ठ नर्स थी।
वो हर युवा नर्स को यही सिखाती —
“सेवा में सुख है, और स्वार्थ में केवल अकेलापन।”
कहानी का संदेश :
> “जब तक इंसान अपने सुख से ऊपर उठकर दूसरों का दर्द नहीं समझता, तब तक उसका जीवन अधूरा रहता है।
सेवा कभी छोटी नहीं होती, पर स्वार्थ हर रिश्ते को छोटा कर देता है।”
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