बड़ा घर, छोटी सोच
सुबह के आठ बजे थे।
पूरे घर में अफरा-तफरी मची हुई थी।
रसोई में नेहा जल्दी-जल्दी पराठे सेंक रही थी।
“नेहा, चाय में शक्कर कम है, ज़रा ठीक कर दो,”
सास उषा देवी ने ड्राइंग रूम से आवाज़ लगाई।
“जी मम्मी जी, अभी करती हूँ,”
नेहा ने जवाब दिया और दूसरी गैस पर दूध रख दिया।
इतने में साढ़े आठ बज चुके थे।
नेहा ने आवाज़ लगाई —
“रवि, नाश्ता कर लो, देर हो रही है ऑफिस के लिए।”
रवि टाई बाँधते हुए बोले,
“हाँ आ रहा हूँ, पर ये मेरी कमीज़ प्रेस नहीं है क्या?”
नेहा ने कहा, “कल ही तो प्रेस करके रखी थी,
देखो शायद आलमारी में दूसरी लाइन में हो।”
रवि गुस्से में बोले,
“तुम्हें हर चीज़ में बस ‘शायद’ कहना आता है,
थोड़ी-सी सफाई भी नहीं रख सकती!”
उषा देवी ने तुरंत बात पकड़ ली —
“बिलकुल ठीक कहा रवि ने,
तुम्हारे मायके में तो गंदगी की आदत रही होगी,
यहाँ तो रोज़ सफाई होती है।”
नेहा चुप रही, बस धीमे से बोली,
“मम्मी जी, कल शाम से बिजली गई थी,
इसलिए काम अधूरा रह गया था।”
“तो क्या हुआ?” उषा देवी बोलीं,
“हमारे ज़माने में तो बिजली ही नहीं होती थी,
फिर भी सब काम पूरा होता था।”
रवि ने जल्दी से नाश्ता किया और निकल गए।
घर में सन्नाटा छा गया।
नेहा ने चुपचाप रसोई समेटी,
फिर अपनी तीन साल की बेटी रिया को स्कूल तैयार करने लगी।
“मम्मी, मुझे वो गुलाबी रिबन चाहिए,”
रिया ने कहा।
“अरे वो तो कल फट गई थी ना,
मैं आज नया ला दूँगी,”
नेहा ने मुस्कराते हुए कहा।
“क्यों सब चीज़ फाड़ देती है ये लड़की?”
उषा देवी फिर बोलीं,
“तुम्हारी तरह ही निकली है,
न कुछ संभालना आता है, न सिखाना।”
नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया,
बस बेटी को गोद में उठाकर दरवाज़े तक छोड़ आई।
शाम को जब रवि लौटे,
तो उषा देवी ने तुरंत कहा,
“देखो ज़रा, आज तुम्हारी बीवी ने क्या किया।
दूध का बर्तन गैस पर रखकर भूल गई,
पूरा दूध उफन कर गिर गया।”
रवि ने झुंझलाकर कहा,
“नेहा, तुम दिनभर करती क्या हो?”
नेहा की आँखें भर आईं।
वो बोली,
“मैं कुछ नहीं करती शायद...
बस सबके पीछे भागती हूँ —
बेटी के लिए, आपके लिए,
घर के हर छोटे-बड़े काम के लिए।”
इतने में दादाजी पूजा से बाहर आए।
“रवि बेटा,” उन्होंने शांत स्वर में कहा,
“थोड़ा सोचो,
घर में शांति किससे बनी रहती है?
उषा, बहू सुबह से रात तक एक पल नहीं बैठती।
थोड़ी गलती हो गई तो क्या हुआ?
तुम दोनों तो दिनभर बाहर रहते हो,
घर कौन संभालता है?”
उषा देवी चुप हो गईं।
रवि नीचे नज़र किए बैठे रहे।
दादाजी आगे बोले —
“बेटा, बड़ा घर होना अच्छी बात है,
पर बड़ी सोच होना उससे भी बड़ी बात है।
बहू इस घर की जान है,
उसे सम्मान दो,
तभी घर सच में ‘बड़ा’ कहलाएगा।”
नेहा के आँसू गिर पड़े,
पर चेहरे पर हल्की मुस्कान भी थी।
उसे लगा जैसे इतने दिनों की चुप्पी
आज पहली बार किसी ने सुनी है।
उस रात नेहा बालकनी में बैठी थी।
हल्की हवा चल रही थी।
उसने मन ही मन कहा —
“मैं छोटे शहर से आई हूँ,
पर मेरा दिल और सोच
कभी छोटी नहीं रही।
काश, सब समझ पाते कि
‘घर की दीवारों की ऊँचाई नहीं,
रिश्तों की गहराई ही असली शान होती है।’
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