मेरे सपनों की साड़ी

 

करवा चौथ की पूजा के दिन लाल साड़ी में सजी नई बहू, हाथों में करवा और दीये लिए खड़ी है। पीछे उसकी सास भावुक नज़रों से उसे देख रही है।


"मम्मी जी, इस बार सोच रही हूं करवा चौथ पर लाल रंग की साड़ी ले लूं। पिछली बार तो बस पुरानी साड़ी पहन ली थी, लेकिन इस बार कुछ नया पहनने का मन है।"

पल्लवी ने संकोच से कहा।


"साड़ी? वो भी नई?" — कमला देवी ने अखबार मोड़ते हुए कहा —

"बेटा, साड़ी तो तुम्हारी अलमारी में पड़ी हैं ना, वो नीली वाली, वही पहन लेना। क्या हर त्योहार पर नई साड़ी ही जरूरी है?"


"मम्मी जी, वो नीली साड़ी थोड़ी फीकी हो गई है, अब उसमें रंग भी नहीं रहा। और ये मेरा दूसरा करवा चौथ है… थोड़ा अच्छा दिखना चाहती हूं," पल्लवी ने धीमे स्वर में कहा।


"अच्छा दिखना चाहती हो या दिखावा करना चाहती हो?" — कमला देवी ने थोड़ी खीझ भरी आवाज़ में कहा —

"आजकल की लड़कियां ना, खर्च करना जैसे फैशन बना लिया है। हमारे ज़माने में तो सालों-साल एक ही साड़ी में त्योहार मनते थे।"


पल्लवी चुप रह गई। वो जानती थी, कुछ कहने से बात और बढ़ेगी।

पर उसके दिल को बुरा लगा — क्या हर इच्छा ज़रूरी है कि गलत हो?



उसका पति विवेक बैंक में नौकरी करता था। घर का सारा खर्च, माता-पिता की दवाई, बिजली-पानी के बिल — सब वही संभालता था।

कभी-कभी जब वो पल्लवी के लिए कुछ लाता, तो मां के चेहरे पर शिकन आ जाती।


कमला देवी की आदत थी — "बेटा घर चलाने के लिए है, बीवी पर खर्च करने के लिए नहीं।"

पल्लवी ने कई बार देखा था, जब विवेक उसे एक छोटी सी चीज़ भी देता, तो मां का चेहरा उतर जाता।



करवा चौथ नज़दीक आ गया था।

पल्लवी ने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो, इस बार खुद के लिए साड़ी खरीदेगी।

उसने अपनी सिलाई का थोड़ा-थोड़ा पैसा बचाया था — किसी को पता नहीं था।


एक दिन उसने चुपचाप पास के बाज़ार से सिंदूरी लाल रंग की सिल्क साड़ी ली। बहुत महंगी नहीं थी, पर पहनने में बहुत सुंदर लग रही थी।

घर आकर उसने साड़ी को अलमारी में छिपा दिया।


शाम को विवेक ने पूछा,

"आज कुछ खुश लग रही हो, क्या बात है?"

"कुछ नहीं, बस बाज़ार से आई थी, सब कुछ अच्छा लग रहा था।"

विवेक मुस्कुराया, "अच्छा है, कभी-कभी खुद के लिए भी सोचो।"



करवा चौथ के दिन सुबह से ही घर में हलचल थी।

पल्लवी ने पूरे मन से घर सजाया, व्रत रखा, सब तैयारियाँ कीं।

शाम को जब वो अपनी लाल साड़ी में तैयार होकर आई, तो विवेक की नज़रें थम गईं —

"वाह पल्लवी! बिल्कुल नई नवेली दुल्हन लग रही हो।"


पल्लवी के चेहरे पर खुशी छलक रही थी।


लेकिन तभी कमला देवी की नज़र पड़ी,

"अरे! ये साड़ी कहां से आई? मैंने तो कहा था, नई मत लेना!"

"मम्मी जी, ये मैंने अपने बचाए पैसे से खरीदी है। किसी से नहीं मंगाई।"


"फिजूलखर्ची बंद नहीं होती तुमसे। घर के हालात देखो कभी, हर महीने का हिसाब संभालो!"

उनकी आवाज़ ऊँची थी।


पल्लवी ने पहली बार साहस से कहा,

"मम्मी जी, मैंने किसी से पैसे नहीं मांगे। अपना शौक पूरा करने में क्या बुराई है?

मैं घर का सारा काम करती हूं, आपकी सेवा भी, व्रत-उपवास भी रखती हूं, तो थोड़ा अपने लिए करने का हक़ तो है ना?"


विवेक ने बीच में कहा,

"मां, पल्लवी ने कुछ गलत नहीं किया। उसने खुद के पैसों से अपनी खुशी खरीदी है।

आपने भी तो अपने समय में हमें अच्छे कपड़े पहनाए थे, वो भी किसी दिखावे के लिए नहीं — बस प्यार के लिए।"


कमला देवी चुप रह गईं।

पहली बार उन्हें महसूस हुआ कि बहू की खुशी पर रोक लगाने में कोई समझदारी नहीं।



रात को पूजा खत्म होने के बाद, पल्लवी ने उनके पैर दबाते हुए कहा,

"मम्मी जी, अगर मैंने कुछ गलत किया हो तो माफ़ कीजिए।

मैं बस चाहती थी कि करवा चौथ के दिन आपके बेटे की पत्नी थोड़ी सुंदर दिखे।"


कमला देवी के होंठ कांप उठे। उन्होंने पल्लवी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,

"नहीं बहू, तूने बिल्कुल सही किया।

आज तू साड़ी में जितनी सुंदर लग रही है, उतनी ही दिल की भी सुंदर है।"


उस रात पल्लवी

 की आंखों में चमक थी —

वो सिर्फ साड़ी की नहीं, अपनी पहचान की जीत की चमक थी।

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