ममता का असली मोल
सुबह के छह बज रहे थे। घर में हल्की-हल्की आवाजें गूंजने लगी थीं।
रसोई से चूल्हे की आंच और चाय की महक पूरे आँगन में फैल गई थी।
“सविता ओ सविता! ज़रा मेरी दवाई देना बेटा,”
बाहर बरामदे से अम्माजी की आवाज आई।
सविता तुरंत अपने हाथ पोंछते हुए बोली,
“जी अम्माजी, बस अभी लाई।”
वह जल्दी से ट्रे में पानी और दवा रखकर बाहर आई।
अम्माजी सोफे पर बैठी थीं, सर्दी की ठंड से बचने के लिए कंधे पर शॉल लपेटे।
वह उम्र के साथ थोड़ी चिड़चिड़ी और बात-बात पर ताने देने की आदत वाली हो गई थीं।
घर में तीन बेटे थे — सबसे बड़ा महेश, फिर सुरेश और सबसे छोटा राजेश।
तीनों की शादियाँ हो चुकी थीं।
बड़ी और मंझली बहुएँ बहुत आधुनिक और अपने-अपने जीवन में व्यस्त थीं।
लेकिन छोटी बहू सविता सीधी-सादी और घरेलू थी।
शादी के वक्त ही अम्माजी ने कहा था —
“राजेश, तुझे तो बहुत संस्कारी लड़की मिल गई है, पर देखना…
संस्कार से पेट नहीं भरता, घर तो पैसे से चलता है।”
सविता ने यह बात सुनी भी थी, मगर कुछ नहीं बोली थी।
उसने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो, वह अम्माजी की सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ेगी।
दिन यूँ ही बीतते गए।
अम्माजी छोटी-छोटी बातों पर सविता को डांट देतीं —
“चाय ठंडी क्यों है?”
“दाल में नमक ज्यादा है।”
“ज़रा भी काम की नहीं है!”
सविता हर बार “जी अम्माजी” कहकर चुप हो जाती।
उसे बस एक ही बात सुकून देती —
उसका पति राजेश हमेशा उसका साथ देता था।
वह कहता, “सविता, माँ को बुरा नहीं लगता, बस उम्र का असर है।”
एक सुबह अम्माजी पूजा करने के लिए मंदिर में गईं।
मंदिर की सीढ़ियाँ थोड़ी फिसलन भरी थीं।
वह नीचे उतर रही थीं कि अचानक पैर फिसल गया और वह गिर गईं।
पूरे घर में हड़कंप मच गया।
बड़ी बहुएँ और बेटे सब दौड़कर आए।
राजेश ने तुरंत गाड़ी निकाली और अस्पताल ले गया।
डॉक्टर ने बताया कि उनके कंधे और पैर में फ्रैक्चर है,
कम से कम डेढ़ महीने तक आराम जरूरी है।
शुरुआत के कुछ दिन तो सब आए-दिन मिलने आते रहे,
फिर धीरे-धीरे सब अपनी-अपनी व्यस्तता में खो गए।
सविता सुबह से रात तक अम्माजी की सेवा में लगी रहती।
वह दवा देती, खाना बनाती, कपड़े बदलती और रात को उनके पास ही सो जाती।
कभी जब दर्द बढ़ जाता, तो अम्माजी चीख पड़तीं —
“सविता, ये तकिया ठीक से रखो, हाय मेरी कमर!”
सविता तुरंत तकिया ठीक करती, पंखा बंद करती,
और धीरे-धीरे उनके सिर पर हाथ फेरती।
“अब ठीक है अम्मा?”
अम्माजी का दर्द धीरे-धीरे कम होने लगता।
वह भीतर से सोचती —
"ये लड़की इतना कैसे सह लेती है?"
एक दिन डॉक्टर ने कहा —
“अब आप चलने की कोशिश कर सकती हैं।”
सविता ने धीरे से उनका हाथ पकड़ा और बोली —
“डरिए मत अम्मा, मैं हूँ न।”
अम्माजी ने दो कदम बढ़ाए और फिर सविता को देखकर मुस्कुरा दीं।
वह पहली बार अपने मन से मुस्कुराई थीं।
धीरे-धीरे उनका दिल बदलने लगा।
उन्हें एहसास हुआ कि
जिसे वह “गरीब घर की लड़की” समझती थीं,
वही इस घर की असली लक्ष्मी है।
आज दिवाली थी।
घर रोशनी से जगमगा रहा था।
सभी बहुएँ सजी-धजी थीं,
लेकिन पूजा की थाली सजाने का काम हमेशा की तरह सविता ने ही किया था।
पूजा के बाद सबने अम्माजी के पैर छुए।
सविता सबसे आखिर में आई, चुपचाप उनके पैर छूकर पीछे हट गई।
अम्माजी ने कहा —
“सविता, ठहरो!”
सविता ने हैरानी से देखा।
अम्माजी ने धीरे से कहा —
“आज तक मैंने तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया है बेटा।
मुझे माफ कर दो।”
सविता की आँखों में आँसू आ गए।
अम्माजी ने उसे गले लगा लिया।
फिर पूरे परिवार से बोलीं —
“सच्चा दहेज सोना-चाँदी नहीं होता,
सच्चा दहेज होता है संस्कार और दिल की ममता।”
सीख:
उस दिन के बाद अम्माजी का व्यवहार पूरी तरह बदल गया।
अब वह हर जगह कहतीं —
“मेरी सविता ही मेरी
असली बेटी है।”
घर में प्यार और अपनापन लौट आया।
और अम्माजी ने आखिर समझ लिया —
ममता का असली मोल रुपये में नहीं, रिश्तों में होता है।
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