माँ का पहला फोन
"माँ, अब तो आप भी स्मार्टफोन ले लीजिए ना!"
अठारह साल के रोहन ने कहा।
"अरे बेटा, मुझे कहाँ आता है ये सब चलाना, ये बटनवाले फोन से ही काम चल जाता है,"
माँ मुस्कुराई।
"पर माँ, आज के ज़माने में सब ऑनलाइन हो गया है — वीडियो कॉल, बैंकिंग, फोटो, सब कुछ!"
"तू है ना मेरे लिए, मुझे क्या ज़रूरत है?"
माँ ने हंसते हुए जवाब दिया और रसोई में चली गई।
रोहन उस दिन भी अपनी माँ को मनाने में नाकाम रहा।
उसे लगता था, माँ जैसे पुराने ख्यालों में जीती हैं।
हर बात पर — “हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था” — कह देतीं।
समय बीतता गया...
रोहन की पढ़ाई खत्म हुई, फिर नौकरी लगी, और वो शहर से बहुत दूर, मुंबई में रहने लगा।
माँ अब गाँव में अकेली रह गईं।
पापा का देहांत कई साल पहले हो चुका था।
हर रविवार को रोहन फोन करता —
"माँ, दवा ली आपने?"
"हाँ बेटा, ली। तू अपना ध्यान रख।"
इतना ही संवाद होता, फिर कॉल कट जाता।
धीरे-धीरे, रोहन की व्यस्तता बढ़ने लगी।
फोन कभी दो दिन में, कभी हफ्ते में एक बार होने लगा।
माँ इंतज़ार करती रहतीं — “आज तो ज़रूर रोहन का फोन आएगा…”
पर मोबाइल की स्क्रीन अंधेरी ही रहती।
एक दिन...
माँ को घर के सामने डाकिए ने एक छोटा-सा पार्सल दिया।
खोला तो अंदर एक स्मार्टफोन था, और एक चिट्ठी —
> "माँ, ये फोन सिर्फ आपके लिए है।
मैंने इसमें सब सेट कर दिया है, सिर्फ कॉल करने और वीडियो कॉल का बटन दबाना है।
और हाँ, हर दिन शाम को 7 बजे मैं कॉल करूंगा।
आपका — रोहन।"
माँ मुस्कुरा दीं, लेकिन मन में डर भी था।
“अरे भगवान, अब इसे चलाना कौन सिखाएगा?”
पड़ोस की नन्ही पायल आई — “काकी, मैं सिखा दूं?”
और यूँ, 60 साल की सविता देवी ने पहली बार स्मार्टफोन चलाना सीखा।
पायल हर बटन समझाती,
“ये कैमरा है काकी, इसमें आप रोहन भैया को देख सकती हैं!”
माँ के चेहरे पर बच्चे-सी चमक थी।
पहली वीडियो कॉल...
शाम के सात बजे फोन बजा —
स्क्रीन पर रोहन का चेहरा आया।
माँ ने जैसे ही देखा, आँखें भर आईं।
"अरे बेटा! तू तो सच में सामने दिख रहा है!"
रोहन हँसते हुए बोला,
"हाँ माँ, अब तो रोज़ मिलेंगे ऐसे!"
माँ के चेहरे पर जो चमक थी, वो शब्दों में नहीं थी।
उस दिन के बाद, हर शाम वो बाल ठीक करतीं, चुन्नी सँवारतीं, फिर रोहन का इंतज़ार करतीं।
“अब तो ये फोन मेरा सबसे अच्छा दोस्त है,” वो पड़ोसियों से कहतीं।
तीन महीने बाद...
एक सुबह रोहन को अपने ऑफिस में फोन आया —
“बेटा, गाँव से खबर आई है... तुम्हारी माँ बीमार हैं।”
वो बिना देर किए गाँव भागा।
घर पहुँचा तो माँ बिस्तर पर लेटी थीं, साँसें धीमी, पर चेहरे पर मुस्कान थी।
उन्होंने धीरे से कहा —
“बेटा, अब तू रोज़ मेरा चेहरा देखता है ना... अब मन को तसल्ली है। पहले तो लगता था, जैसे तू मुझसे दूर चला गया। पर इस फोन ने मुझे तुझसे जोड़ दिया।”
रोहन की आँखों से आँसू बह निकले।
उसने माँ का हाथ थामा,
"माँ, अब मैं आपको साथ ले चलूंगा, कहीं नहीं छोड़ूंगा।"
माँ ने कमजोर मुस्कान के साथ कहा,
"नहीं बेटा, अब मैं वहीं खुश हूँ जहाँ तू खुश है... बस रोज़ फोन करना मत भूलना।"
एक साल बाद...
माँ अब नहीं रहीं।
लेकिन हर शाम 7 बजे, रोहन का फोन अब भी वही रिंगटोन बजाता है —
“माँ का नंबर — Calling...”
वो कॉल करता है,
वीडियो में माँ की हँसती हुई फोटो खुलती है,
और वो धीमे से कहता है —
"माँ, आज भी आपकी याद उसी स्क्रीन पर मुस्कुरा रही है..."
सीख:
> “माँ के लिए छोटा-सा पल भी, पूरी दुनिया होता है।
उनके लिए वक्त निकालना, सबसे बड़ी पूजा है।”
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