मां का आख़िरी खत
सुबह के सात बज रहे थे।
रजनी हमेशा की तरह आंगन में झाड़ू लगा रही थी। घर बड़ा था, लेकिन अब उस घर में बस दो ही लोग रहते थे — रजनी और उसका पति हरिदास।
बेटा, आयुष, दो साल पहले नौकरी के सिलसिले में शहर चला गया था।
पहले तो हर रोज़ फोन आता था,
“मां, क्या खाया?”
“पापा की दवाई ली?”
लेकिन अब वो फोन भी हफ्ते में एक बार मुश्किल से आता।
हरिदास हंसकर कहते,
“बच्चा बड़ा हो गया है रजनी, अब अपनी दुनिया में व्यस्त रहेगा।”
रजनी मुस्कुरा देती, पर दिल के भीतर कुछ टूट जाता।
उसने सोचा, “मैं तो बस उसकी दुनिया की एक आदत थी, जो वक्त के साथ छूट गई।”
समय बीतता गया...
आयुष की नौकरी में प्रमोशन हुआ, फिर एक दिन उसने बताया —
“मां, मैं शादी कर रहा हूं। लड़की दिल्ली की है, कॉर्पोरेट में काम करती है।”
रजनी ने बस इतना पूछा, “बेटा, खुश तो है ना?”
“बहुत खुश हूं मां।”
रजनी के लिए वही काफी था।
शादी के लिए बुलावा आया।
रजनी और हरिदास ट्रेन से दिल्ली पहुँचे।
बेटे ने गले लगाया, पर अब उसमें वो अपनापन नहीं था।
बेटा पहले जैसा था, पर मां की जगह अब कोई और ले चुकी थी।
बहू, तन्वी, बहुत मॉडर्न थी। उसने कहा,
“मम्मी जी, आप दोनों होटल में रुक जाइए, घर छोटा है।”
रजनी ने एक पल को देखा — वो घर जो उसने अपने बेटे के लिए बस सपनों में देखा था, उसमें उसके लिए जगह नहीं थी।
हरिदास ने कंधे पर हाथ रखकर कहा,
“कोई बात नहीं रजनी, बेटे की खुशी में ही हमारी खुशी है।”
शादी के बाद...
रजनी लौट आई गांव।
अब फोन और भी कम आने लगे।
कभी आयुष का, तो कभी तन्वी का, पर हर बार जल्दी में।
“मां, मीटिंग है।”
“मां, बाद में बात करूंगा।”
“मां, नेटवर्क नहीं है।”
धीरे-धीरे रजनी का दिन बस इंतज़ार में बीतने लगा।
हर शाम चाय बनाकर वो उसी बरामदे में बैठती, जहां कभी आयुष उसके साथ पढ़ाई किया करता था।
एक दिन...
डाकिया आया — एक पार्सल लेकर।
रजनी ने खोला तो अंदर एक मोबाइल था, साथ में एक नोट —
“मां, ये स्मार्टफोन है, अब वीडियो कॉल पर बात करेंगे।
प्यार, आयुष।”
रजनी मुस्कुराई, पर उसे चलाना नहीं आता था।
हरिदास बोले, “मैं सीख लूंगा यूट्यूब से।”
वो दोनों बूढ़े लोग दिनभर फोन से सीखने की कोशिश करते रहे, पर अगले दिन हरिदास की तबीयत बिगड़ गई।
रजनी ने आयुष को फोन किया —
“बेटा, पापा की तबीयत बहुत खराब है।”
“मां, तन्वी की मम्मी अस्पताल में हैं, मैं नहीं आ पाऊंगा।”
रजनी ने फोन रख दिया।
कुछ दिन बाद हरिदास नहीं रहे।
अब घर बिल्कुल सूना हो गया था।
छह महीने बाद...
आयुष आया।
मां के चेहरे की झुर्रियों में उसने वो दर्द देखा, जो कभी समझ नहीं पाया था।
“मां, मैं तुम्हें अपने साथ ले जाने आया हूं।”
रजनी ने बस इतना कहा —
“बेटा, अब ये घर ही मेरा साथी है।”
आयुष ने ज़ोर दिया,
“मां, वहां सब सुविधा है — एयर कंडीशनर, मेड, सब कुछ।”
रजनी बोली,
“मुझे ठंडी हवा नहीं चाहिए बेटा, बस तेरी एक ‘कैसी हो मां?’ की गर्माहट चाहिए थी।”
कुछ महीनों बाद रजनी भी चल बसी।
घर के कोने में रखी उसकी पुरानी अलमारी से एक लिफाफा मिला।
उस पर लिखा था —
“मेरे बेटे आयुष के लिए”
अंदर बस तीन पंक्तियाँ थीं —
> “बेटा,
जब तू छोटा था, तो तेरी हर नींद में मैं थी।
जब तू बड़ा हुआ, तो मेरी हर नींद तू ले गया।
खुश रहना हमेशा, क्योंकि मां का दिल तो बेटे में ही बसता है — चाहे वो पास हो या दूर।”
आयुष उस खत को पढ़कर पहली बार फूट-फूट कर रो पड़ा।
उसे समझ आया — मां कभी नाराज़ नहीं होती, बस चुप हो जाती है... हमेशा के लिए।
सीख:
मां कभी हमसे कुछ नहीं मांगती,
बस इतना चाहती है — कि हम उसे “भूल” न जाएं।
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